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ढोंगी – अमित किशोर

घनश्याम बाबू आज बहुत खुश थें। बरसों की उनकी तमन्ना जो पूरी हो रही थी। क्या क्या, नहीं सोच रखा था इस दिन के लिए !!! पर, अब भी मन में उनके कुछ आशंकाएं थी। बेटे की शादी, वो भी इतने जतन के बाद, अगर आज ठीक हुई थी तो खुशी की बात तो थी ही, पर ये भी मन में डर था कि सबकुछ बढ़िया से हो जाए। कहीं कोई विघ्न न पड़े।

घनश्याम बाबू समाज के प्रतिष्ठित तबके से आते थे। नाम, शोहरत और दौलत, ऊपर वालें ने किसी चीज की कोई कमी नहीं की थी। समाज में इतनी प्रतिष्ठा थी कि छोटे मोटे पारिवारिक पंचायतों में वो स्वत: सरपंच की भूमिका में आ जाते। जहां खड़े होते, भाषण देना शगल था उनका। ओजस्वी स्वर के मालिक थे, घनश्याम बाबू। परिवार में पत्नी भी अपने पति के ही सांचे में ढली हुई थी। एक तरह से कहें तो पूरा परिवार ही आदर्श स्थापित करता था, समाज में। बस, एक ही दाग था उनके परिवार पर। और वो था, उनका बेटा पंकज, जो विकलांग था। ईश्वर ने उसके आंखों की ज्योति नहीं दी थी। जन्म से ही पूरी तरह देख नहीं पाता था। इलाज में कहीं कोई कमी नहीं रखी घनश्याम बाबू ने, पर जब तक ईश्वर न चाहे, कहां कोई इलाज सफल हो पता है !!अंत में, पूरे परिवार ने इसे नियति मानकर जीवन स्वीकार कर लिया था। 

घनश्याम बाबू के नारी उत्थान, महिला सशक्तिकरण जैसे विचारों पर पूरा समाज मोहित तो था, पर कोई अपने घर की लड़की की शादी उनके बेटे पंकज से नहीं कराना चाहता था। करे भी तो कैसे …. !!! कोई जानबूझकर अपने कलेजे के टुकड़े को अंधकार में कैसे धकेले ? इसी चिंता और परेशानी ने पंकज के माता पिता की बेचैनी बढ़ा रखी थी। घनश्याम बाबू ने जैसे तैसे एक गरीब घर की लड़की ढूंढी और पैसे के प्रभाव से शादी तय हुई। नियत दिन पर शादी भी हो गई। दुल्हन का नाम ज्योति था। और पूरे परिवार ने उसे “पंकज की ज्योति” कहकर हृदय से स्वीकार कर लिया।




समय बीता। सब कुछ बढ़िया चला। एक दिन घनश्याम बाबू के घर पर नई खुशियों ने दस्तक दी। पंकज पिता बनने वाला था। ज्योति से ब्याह कराने का उद्देश्य भी पूरा हो रहा था और घनश्याम बाबू के लिए ये एक नए शुरुवात की आहट थी। इकलौता बेटा, और वो भी विकलांग, तो भविष्य अंधकारमय होना स्वाभाविक ही था पर अपने प्रयास से उन्होंने पत्थर पर भी दूब खिला दिया था। पूरे घर में हर्ष का माहौल था। समय समय पर ज्योति का चेकअप करवाया जा रहा था। ज्योति तो अनपढ़ थी। ज्यादा दुनियादारी से भी अनजान। अपने सास के साथ डॉक्टर के यहां आना जाना करती। अपने प्रभाव और पैसे के बल पर ज्योति के बच्चे का लिंग परीक्षण करवा लिया गया और पता चला कि गर्भ में एक शिशु कन्या पल रही है। 

फिर तो पूरी कहानी ही पलट गई। घनश्याम बाबू ने बड़े प्यार से ज्योति के सिर पर आशीर्वाद से हाथ फेरा और कहा, ” समाज में कई लड़कियां हैं, जिसको मैं अपनी बेटी कहता हूं। मुझे इस घर में बेटी नहीं चाहिए। बेटों का परिवार है ये। क्या हुआ, जो मेरा बेटा देख नहीं सकता। तुम तो देख सकती हो, बहुरानी। कल को एक अंधे की बेटी से शादी कौन करेगा ? बताओ।” उसी रात ज्योति की सास ने बच्चा गिरा देने की बात ज्योति से की। पंकज ने भी ज्योति को रूखे शब्दों में अपना फैसला सुना दिया कि उसे एक बेटी का बाप बनना मंजूर नहीं। ज्योति के लिए ये सब एक सदमे की तरह था। अपने ही अंश को लिंग के दायरे में चुनना पड़े, तो ये किसी भी गर्भ के लिए शर्म की बात थी। 

अगली सुबह ही सास के साथ ज्योति डॉक्टर के क्लिनिक में थी। डॉक्टर साहिबा से घनश्याम बहु के पुराने ताल्लुकात थे। फिर भी डॉक्टर साहिबा ने जिज्ञासावश पूछ ही लिया, ” बहनजी, आप लोग तो  इतने विकासवादी विचार रखने वालों में से हो तो फिर ऐसा क्यों ? क्या फरक पड़ता है कि जन्म लेने वाला बच्चा लड़का है या लड़की ? संतान स्वस्थ हो ये सबसे ज्यादा जरूरी है। ” घनश्याम बाबू की पत्नी ने आंखें तरेर कर डॉक्टर साहिबा को ऐसे देखा जैसे कह रही हो ,” तुम अपने काम से काम रखो।” डॉक्टर साहिबा ने अपनी फीस ली और फीस के बदले अपना कर्तव्य पूरा किया। ज्योति पूरे तीन दिन तक क्लिनिक में भर्ती रही।




घर लौटी तो दिमाग एकदम सुन्न हो चुका था। उसके मन में बस एक ही बात थी। ज्योति ने जिस पंकज को विकलांग होते हुए भी अपनाया और उसके साथ को अपना धर्म समझा था उसी पंकज ने उस के मां होने के अस्तित्व को ललकारा था। अब उस के सामने पंकज का दोहरा चरित्र जाहिर हो गया था। और साफ साफ वो देख पा रही थी समाज के दोहरे मापदंड को भी, जहां कथनी और करनी में अंतर था। मन किया कि विवाह के बंधन को तोड़, वो सब छोड़ कर चली जाए पर उसी समाज ने उसके पैरों में बेड़ियां डाल रखी थी जिसने तोड़ने की न हिम्मत थी उसमें और न ही इतनी सबल थी वो एक नया रास्ता चुन सके।

और इधर घनश्याम बाबू फिर से खुशियों के लौटने का इंतजार करने लगे। उनकी पत्नी ने फिर से नए सपने सजाने शुरू कर दिया और पंकज, पंकज को अपने अंधेरों में भी बेटे की शक्ल दिखने लगी। ज्योति अपनी पहली संतान की हत्या का दर्द कभी नहीं भूल सकती थी।

अगले दिन मोहल्ले में फिर से किसी और के घर की पारिवारिक पंचायत हुई। घनश्याम बाबू एक बार फिर से सरपंच की भूमिका में दिख रहे थे।  जब पंचायत समाप्त हुई तो पूरे समाज ने उन्हें कहते हुए सुना, ” बेटियां हैं, तो संसार है। बिना बेटियों के घर की क्या शोभा ? याद रखिए, हम देवियों की पूजा करते हैं और ये देवियां भी किसी न किसी की बेटियां होती हैं।” सभी मंत्रमुग्ध होकर घनश्याम बाबू के तारीफों के कसीदे पढ़ रहे थे और थोड़ी दूर पर खड़ी, ज्योति हल्की मुस्कान बिखेर रही थी। मुस्कान नहीं, एक दर्द था वो, वो दर्द था अपनी बेटी को खोने का, अपनी पहली संतान की हत्या का और क्षोभ था दोहरे चेहरे  वाले समाज पर जो आदर्श के बारे में बातें तो कर सकता था पर उसे स्वीकार करना, उस समाज के लिए बहुत कठिन था ………….

स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित

#दोहरे_चेहरे

अमित किशोर

धनबाद  (झारखंड)

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