बड़ों का आशीर्वाद –   विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

  ” सुन…अब कोई बहाना नहीं…तुझे आना ही है।सुमित आर्मी ऑफ़िसर बन गया है, उसे आशीर्वाद नहीं देगी…।”

   ” दूँगी…क्यों नहीं दूँगी…मेरे सामने ही तो वह चलना-बोलना सीखा है लेकिन रंजू….।” मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि उधर से आवाज़ आई,” लेकिन- वेकिन छोड़ और…।”

  ” ठीक है बाबा…मैं आ रही हूँ…अब तो खुश..।” मुस्कुराते हुए मैंने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।मेज पर रखी फ़्रेम में लगी फ़ोटो को देखकर मैं सोचने लगी, समय भी न कैसे बीत जाता है।कल तक तो मैं और रंजू फ़्राॅक पहनकर स्कूल जाते थें और आज उसका बेटा….।

         मेरे और रंजू की दोस्ती तो पूरे स्कूल में प्रसिद्ध थी।उन दिनों साथ पढ़ने, साथ खेलने और एक-दूसरे का टिफ़िन छीनकर खाने का आनंद ही कुछ और था।नौवीं के बाद हम दोनों ने ही होम साइंस लिया।ग्यारहवीं (उन दिनों बारहवीं की कक्षा नहीं होती थी) के बाद उसके पापा का तबादला दूसरे शहर में हो गया।मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे शरीर का कोई अंग कट गया हो।

         पत्रों के माध्यम से हमारे बीच संपर्क बना रहा।बीएससी(होम साइंस) कंप्लीट होते ही उसकी शादी हो गई।पत्र में वह अपने पति और ससुराल की बहुत तारीफ़ करती थी।फिर वो एक बेटे की माँ बनी।उसने पत्र में लिखा कि वह बहुत खुश है।बेटा अब स्कूल जाने लगा है।

        फिर मेरी शादी हो गई।मैंने उसे अपना नया एड्रेस दिया।धीरे-धीरे उसके पत्र की लंबाई कम होने लगी।तीन पेज की जगह एक पेज में ही वह अपनी बातें खत्म करने लगी।बेटे की बात लिखती लेकिन पति की चर्चा नहीं करती।

      एक दिन उसका पत्र आया जिसमें उसने लिखा कि वो अपने पति से तलाक ले रही है।पढ़कर मैं चकित रह गई।सब कुछ बढ़िया चल रहा था…फिर अचानक तलाक…।पूछने पर पहले तो वह टालती रही लेकिन मैंने भी हार नहीं मानी।

     फिर पाँच पन्नों का उसका पत्र आया जिसमें उसने लिखा कि कुछ दिनों से मैं सिद्धार्थ के व्यवहार में बहुत उखड़ापन महसूस कर रही थी।मैं कुछ भी पूछती तो वो या तो चुप रहते या फिर मुझ पर झुंझलाने लगते।कुछ तो बात है पर क्या…मैं समझ नहीं पा रही थी।चौथी कक्षा में पढ़ने वाला सुमित भी अपने पिता के नकारात्मक रवैये को देखकर असमंजस में था।उसके चेहरे से मासूमियत गायब होने लगी थी,तब एक दिन मैंने उनका हाथ पकड़कर पूछ ही लिया कि क्या बात है? मुझसे ऐसी क्या भूल हो गई है जो आप इतने खिंचे-खिंचे से रहते हैं।तब उन्होंने बताया कि उनका दिल कहीं और लग गया है।पहले तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ लेकिन फिर…।इस सच को स्वीकारना मेरे लिये ज़हर पीने के समान था।मैंने उन्हें समय दिया कि शायद वो घर लौट आयें लेकिन ऐसा नहीं हुआ।मुझसे तलाक लेकर उससे विवाह करना चाहते थें।टूटी हुई रस्सी और टूटा हुआ रिश्ता गाँठ के सहारे ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक सकता है सखी…।बस..आपसी सहमति से तलाक हो गया।अब मैं और सुमित ही एक-दूसरे के सहारे हैं।

      उसका पत्र पढ़कर तो मेरी इच्छा हुई कि अभी जाकर उससे मिल लूँ लेकिन गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों में उलझकर रह गई थी मैं।

        कुछ सालों के बाद उसने लिखा कि सुमित दसवीं में आ गया है।मैं भी कुछ काम करने लगी हूँ।पढ़कर मुझे अच्छा लगा कि उसने खुद को संयत कर लिया है।फिर एक दिन उसने पीसीओ से मुझे फ़ोन किया कि सुमित आर्मी ज़्वाइन कर रहा है।बरसों बाद उसकी आवाज़ सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा था।

        आज उसका बेटा आर्मी ऑफ़िसर बन गया है तो मुझे उसे आशीर्वाद देने जाना ही था।पति को मित्र की बेटी के विवाह में जाना था,इसलिए रंजू से मिलने मैं अकेली ही चली गई।

       उसके दो कमरे के फ़्लैट में व्हील चेयर पर बैठी उसकी सास को देखकर मेरा मन कसैला हो गया।बेटा दगाबाज़ निकला और खुद मेरी सहेली की छाती पर मूँग दल रही है।अपने गुस्से को पीते हुए मैंने उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने सुखी रहने का आशीर्वाद दिया जो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा।

    दिन भर तो लोगों का ताँता लगा रहा..सुमित के मित्र उसे बधाई देने आ रहें थें, साथ ही उसकी दादी को भी प्रणाम करके उनसे आशीर्वाद ले रहें थें।

        डिनर के बाद हम दोनों को एकांत मिला…शांति से बैठे तो उसकी सास के लिए जो मेरे मन में कड़वाहट थी..मैंने उगल दी,” ये तूने सास नाम की घंटी क्यों अपने गले में बाँध ली है? पतिदेव ने क्या सितम ढ़ाये थें जो अब…।”

     सुनकर वो मुस्कुराई जैसे कि जानती थी कि मैं ऐसा ही कुछ कहूँगी।फिर मेरे हाथों को अपने हाथों में लेती हुई बोली, ” जानती है…सिद्धार्थ के व्यवहार से मैं बिल्कुल टूट चुकी थी तब अम्मा जी ने ही मुझे संभाला था।सिद्धार्थ को वापस लाने की कोशिश भी की थी उन्होंने  लेकिन…।तब पापाजी ने मेरे और सुमित के सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा था,” सिद्धार्थ को नहीं रहना है..ना रहे पर बेटा हम तो हैं ना।” उनके शब्दों से मेरा मनोबल बढ़ गया। मैं तो एक कमरे में रह रही थी…इस फ़्लैट को उन्होंने ही दिलवाया था।वो दोनों जब भी यहाँ आते तो सुमित को बहुत आशीर्वाद देते।

         एक दिन मुझे मालूम हुआ कि सिद्धार्थ अब अम्मा से मिलने नहीं जाते।बेटे का बिछोह तो हर माँ-बाप के लिये दुखदायी होता है।तब मैंने सोचा, मन-मुटाव तो मेरे और सिद्धार्थ के बीच है, इसमें अम्मा- पापा जी क्यों पिसे? सुमित को पिता का आशीर्वाद न मिला, ना सही लेकिन दादा- दादी के प्यार व आशीर्वाद से वह भला क्यों वंचित रहे।तभी मैंने उन्हें अपने साथ रखने का फ़ैसला कर लिया।अम्मा तो मेरे गले लगकर बहुत रोईं थीं और पापाजी…वो तो निशब्द थें।

       अम्मा ने तो यहाँ आते ही खुद सब संभाल लिया और मुझे बैठा दिया।उन्होंने मुझे फिर से हँसना-बोलना सीखा दिया।सुमित तो दादा जी के पास ही बैठा रहता…पापा जी से देशभक्ति और बहादुरी के किस्से सुनकर ही उसके अंदर आर्मी ज्वाइन करने की इच्छा जागी थी।”

     ” तेरे मम्मी-पापा…।” मैंने पूछा।

 वो बोली,” उन्होंने तो मुझे बहुत सपोर्ट किया।जानती है…अम्मा जी के आने पर कइयों ने तो मुझे पागल कहा था, तब मेरी मम्मी ने कहा था,” बेटी…घर में बड़े-बुजुर्गों के रहने से बरकत होती है, बच्चों में अच्छे संस्कार आते हैं और उनका आशीर्वाद भगवान का प्रसाद होता है।”

   ” तेरी एक ननद भी हैं ना..शायद तुझसे बड़ी…वो..।”

  तब रंजू बोली,” हाँ.. प्रमिला जीजी…।जब भी आती हैं तो मुझे सुखी रहने का और अपने भतीजे को अच्छा इंसान बनने का आशीर्वाद ज़रूर देती हैं।अपने अंतिम समय में पापा जी मेरे सिर पर अपना हाथ रखते हुए बोले थें, ” रोती क्यों है…तुम्हें आशीर्वाद की कमी नहीं होगी।प्रमिला है मिला है ना…।” 

     जानती है…अम्मा जी तो बहुत फ़ुर्तीली थीं।पापा जी से तेज़ चलतीं थीं…उनके जाने के बाद से ही ये बुझी-बुझी रहने लगी थीं।एक दिन बाथरूम से बाहर आ रही थीं कि पैर फ़िसल गया…, बस तभी से इन्हें चलने में तकलीफ़ होने लगी और उन्हें पहिये वाली गाड़ी।का मोहताज़ होना पड़ा।अरे..ये तो….।” वो बोलती जा रही थी और मैं सुनते हुए एकटक उसे देखते जा रही थी।मैंने उसकी सास के बारे में कितना गलत सोचा था…. मुझे खुद पर शर्म आने लगी थी।उस दिन एक बात तो मुझे समझ आ गई थी कि बड़ों का आशीर्वाद पाकर इंसान बड़ी से बड़ी कठिनाई को भी हँसकर पार कर लेता है।

   ” अरे!..तेरे से बात करने में अम्मा जी को दवा खिलाना तो मैं भूल ही गई…अभी आती हूँ…।” वह सास के कमरे में चली गई।

      अगली सुबह मैंने सुमित को आशीर्वाद दिया और उसके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए मैंने उससे कहा कि जीवन और रणभूमि में कोई भी परेशानी आये तो घबराना नहीं…उनका डटकर मुकाबला करना।फिर मैंने रंजू की सास के पैर छुए, मन ही मन क्षमा माँगी और फिर उनसे आशीर्वाद लेकर मैं वहाँ से चली।

                                    विभा गुप्ता

# आशीर्वाद                      स्वरचित 

            हमारे बड़े-बुज़ुर्गों के पास अनुभव रूपी खज़ाना होता है।हमें उनसे आशीर्वाद लेने और उनके अनुभव से सीखने में ज़रा भी संकोच नहीं करना चाहिये।रंजू ने जो किया…हम सभी को भी वैसा ही करना चाहिए।

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