आज सुबह से ही आनंदी जी के शरीर में गज़ब की फ़ुर्ती थी।कभी सुगना को कहतीं कि मलाई कोफ़्ते में नमक ठीक से डालना तो कभी घर के नौकर नंदू को आदेश देती ,” छोटे भईया के कमरे में पानी रखना मत भूलना।” दरअसल आज उनकी शादी की पचासवीं सालगिरह थी।शाम को उन्होंने पार्टी रखी थी।बड़ा बेटा सुशांत परिवार सहित एक दिन पहले ही दिल्ली से आ गया था।छोटा निशांत एयरपोर्ट से घर आने के लिये गाड़ी में बैठ चुका था।
आनंदी जी ने अपने पति सुदर्शन बाबू की तस्वीर को पहनाई गई फूलों की माला उतारी और ताज़े गुलाबों की माला पहनाते हुए मुस्कुराई।फिर हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए बोलीं,” शादी की पचासवीं सालगिरह मुबारक हो मेरे हमसफ़र! आपका-मेरा साथ जन्म-जन्मांतर तक यूँ ही बना रहे।” उन्होंने अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं और वहाँ पहुँच गईं जहाँ वो पहली बार अपने प्रियतम से मिलीं थीं।
युवा सुदर्शन शहर में रहकर अपनी काॅलेज़ की पढ़ाई कर रहें थें।काॅलेज़ की कैंटिन में उनकी मुलाकात चंद्रकांत से हुई जो उनसे एक साल सीनियर थे।दोनों के बीच अलग-अलग विषयों पर बातें होती और इस तरह से उनकी मित्रता प्रगाढ़ होती चली गई।एक दिन चंद्रकांत उन्हें अपने घर ले गये।उन्हें चाय देने आई किशोरी का परिचय कराते हुए चंद्रकांत बोले,” ये मेरी छोटी बहन आनंदी है।”
इसके बाद से चंद्रकांत अक्सर ही सुदर्शन को अपने घर ले जाते थें।धीरे-धीरे सुदर्शन आनंदी को पसंद करने लगे।वो अपने मन की बात कह पाते तभी एक दिन चंद्रकांत ने उन्हें बताया कि आनंदी का विवाह तय हो गया है और तुमको आना है।सुदर्शन के लिये ये खबर किसी सदमे से कम नहीं थी।विवाह से दो दिन पहले ही वो कुछ बहाना बनाकर अपने घर चले गये।वापस आकर आनंदी को भूलाकर पूरे मन से अपनी पढ़ाई पूरी करने लगे।
चंद्रकांत को दूसरे शहर में नौकरी मिल गयी। ग्रेजुएशन पूरा करके सुदर्शन भी नौकरी की तलाश करने लगे।कई दफ़्तरों में इंटरव्यू भी दिये।फिर उन्हें एक दफ़्तर में नौकरी मिल गई और वे शहर में एक डेरा लेकर रहने लगे।
एक दिन अचानक सुदर्शन की मुलाकात चंद्रकांत से हो जाती है।चंद्रकांत उनको लंच पर घर आने को कहकर चले गये।
खाने की मेज़ पर चंद्रकांत की माताजी खाना परोस रहीं थी।तभी उन्होंने आनंदी को आवाज़ लगाई,” आनंदी…ज़रा पापड़ तो ले आ…।” आनंदी का नाम सुनकर सुदर्शन का दिल धड़क उठा।किसी तरह से उन्होंन खुद को संयत किया लेकिन जब आनंदी की उजड़ी माँग और सूनी कलाइयाँ देखी तो वो धक् रह गये।तब चंद्रकांत ने उन्हें बताया कि आनंदी के पति को शराब की लत लग गई थी..लीवर खराब हो गया और एक दिन…।फिर तो ससुराल वालों ने इसका जीना दूभर कर दिया।मैं एक रोज मिलने गया तो बस अपने साथ ही ले आया।माँ बस आनंदी की चिंता में घुली जा रहीं हैं।चाहतीं हैं कि इसका घर फिर से बस जाये।मैं तो एक-दो रोज में चला जाऊँगा।अगली बार आकर देखता हूँ।
बस सुदर्शन ने चंद्रकांत से कह दिया,” मैं आनंदी से शादी करना चाहता हूँ।”
” नहीं सुदर्शन…तुम कैसे… वह विधवा है और…।”
तब सुदर्शन ने अपने मन की पूरी बात बताई और कहा कि आप बस शादी की तैयारी कीजिये बाकी सब मुझपर छोड़ दीजिये।
सुदर्शन के निर्णय पर उसके पिता और बड़ी बहन सहमत थें लेकिन माँ…।उन्होंने तो साफ़ इंकार कर दिया कि एक तो विजातीय है और ऊपर से विधवा..।फिर भी सुदर्शन ने पिता और चंद्रकांत के परिजनों की उपस्थिति में वहाँ के एक मंदिर में आनंदी से विवाह कर लिया।
कुछ ही दिनों में आनंदी ने सुदर्शन के एक कमरे को घर बना दिया।पति के सहयोग से वह इंटर की परीक्षा की तैयारी भी करने लगी।इसी बीच सुदर्शन की तरक्की हो गई…तनख्वाह भी बढ़ी तब उसने दो कमरों का एक डेरा ले लिया।इंटर के रिजल्ट के साथ जब सुदर्शन ने अपनी माताजी को बताया कि आप दादी बनने वाली हैं तब वो खुद को रोक न सकीं और बहू-बेटे को आशीर्वाद देने चलीं आईं।
नौ महीने बाद आनंदी ने एक बेटे को जनम दिया।बेटा सुशांत के तीन वर्ष का होते-होते वह एक और बेटे की माँ बन गई।बेटी का फलता-फूलता परिवार देखकर उसकी माँ को बहुत सुकून मिला।उसके सास-ससुर भी आते-जाते रहते थें।चंद्रकांत की भी शादी हो गई।
एक दिन आनंदी दोनों बेटों को स्कूल-बस में बैठाकर वापस आई तब सुदर्शन हँसते हुए बोले,” अब तुम भी बीए की पढ़ाई कर लो…मैं फ़ाॅर्म ला देता हूँ…।” तब वह हाथ में कलछी लेकर बोली,” अब तो यही मेरा बीए-एमए है।”
एक शाम सुदर्शन ऑफ़िस से लौटे तो उनको तेज बुखार था।आनंदी उनको लेकर डाॅक्टर के पास गई।चेकअप करके डाॅक्टर ने कहा कि वायरल है..दवा के साथ-साथ इन्हें पूरा आराम भी करना है।उस समय बीमार पति की देखभाल करना… घर का पूरा काम करना… दोनों बच्चों को भी संभालना….सब कुछ आनंदी ने मुस्कुराते हुए किया।
ठीक होने के बाद जब सुदर्शन ऑफ़िस जाने लगे और आनंदी ने उनके हाथ में लंच बाॅक्स थमाया तो वे भावुक हो उठे, बोले,” आनंदी…तुम्हें हमसफ़र के रूप में पाकर मैं तो धन्य हो गया।” तब धत् कहकर आनंदी ने साड़ी के पल्लू में अपना चेहरा छिपा लिया था।
समय के साथ बच्चे जवान होने लगे।सुशांत को दिल्ली की एक कंपनी में नौकरी मिल गई।साल भर बाद निशांत को सिंगापुर के एक बैंक में ज़ाॅब मिल गया तो वो भी सिंगापुर चला गया।बेटे को विदा करते समय आनंदी के आँसू नहीं थम रहें थें तब सुदर्शन बोले,” बच्चों को अपनी ज़िंदगी जीने दो…मैं हूँ ना तुम्हारे पास…।”
कुछ समय बाद आनंदी जी ने अपने दोनों बेटों की शादी उनकी मन-पसंद लड़कियों के साथ कर दी।समय के साथ दोनों पति-पत्नी दो पोतों और एक पोती के दादा- दादी भी बन गये।उन दोनों के लिये यहाँ तक का सफ़र तय करना आसान नहीं था…राह में काफ़ी मुश्किलें आईं..आर्थिक कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा फिर भी दोनों एक-दूसरे का हाथ थामकर डटे रहे।अब वो चाहतीं थीं कि सुदर्शन बाबू रिटायर हो जायें तब उनके साथ बैठकर जी भर के बातें करेंगी।
एक दिन सुदर्शन बाबू समय से पहले ही घर आ गये और आनंदी जी को बोले,” चलो…एक जगह चलना है।” उन्होंने अपना स्कूटर एक घर के आगे रोका..आनंदी का हाथ पकड़कर घर के भीतर गये और उन्हें एक नेमप्लेट देते हुए बोले,” आज से तुम इस घर की रानी हो।” आनंदी ने नेमप्लेट पर ‘ आनंदी निवास ‘ लिखा देखा तो खुशी-से उनकी आँखे छलछला उठी थी।
सुदर्शन बाबू सेवानिवृत हो चुके थें।उनकी सास तो पहले ही गुज़र चुकी थीं और माता-पिता ने भी परपोती का मुख देखकर हमेशा के लिये आँखें मूँद ली थी।चंद्रकांत और उनकी बड़ी बहन अपनी व्यस्त लाइफ़ से समय निकाल कर उनसे मिलने आ जाया करते थें।
एक सुबह आनंदी जी किचन में नाश्ता बना रहीं थीं। सुदर्शन बाबू अखबार पढ़ रहें थे कि तभी उनका मोबाइल बज उठा।स्क्रीन पर निशांत का नाम देखकर घबरा गये…बोले,” इतनी सुबह-सुबह…सब ठीक तो है..।”
” हैप्पी एनिवर्सरी पापा! “हँसते हुए निशांत बोला।फिर बहू बोली,” आप दोनों को शादी की चालीसवीं सालगिरह मुबारक! पापा…हम केक भेज रहें हैं।आप दोनों मिलकर उसे काटिएगा।” तभी सुशांत ने भी फ़ोन करके उन्हें बधाई दी।दरवाज़े पर घंटी बजी…आनंदी जी ने दरवाज़ा खोला…कोरियर वाले ने उन्हें केक और फूलों का गुलदस्ता दिया तो वो चौंक पड़ी।तब सुदर्शन बाबू ने उन्हें बताया कि ये सब हमारे बच्चों ने किया है।
” अरे…काम के आपाधापी में मैं तो इतना महत्वपूर्ण दिन भूल ही गई थी।शादी की सालगिरह मुबारक मेरे सरताज़!” कहते हुए आनंदी जी के झुर्रियों पड़े गाल शर्म से लाल हो गये थें।
ऐसे ही साथ उठते-बैठते और बातें करते सात बरस बीत गये।अब सुदर्शन बाबू अस्वस्थ रहने लगे थें।कुछ दिनों से तो वे बिस्तर पर ही थें।दोनों बेटे-बहुओं ने सेवा में कोई कमी नहीं रखी थी, फिर भी मृत्यु तो निश्चित है।आनंदी जी उनका हाथ पकड़कर कहने लगीं थीं,” हमें भी अपने साथ ले चलिये…सैंतालीस बरस तक आपका हाथ पकड़कर चली हूँ…अब नहीं रह…।” फूट-फूटकर रो पड़ी थीं।तब सुदर्शन बाबू ने एक अंगुली से बेटों की तरफ़ इशारा किया जैसे कह रहें हों,” मैं उनमें तुम्हारे साथ हमेशा रहूँगा और सदैव के लिये अपनी आँखें मूँद ली।
दोनों बेटों ने माँ को साथ चलने को कहा तो पति की तस्वीर की तरफ़ देखते हुए आनंदी जी बोलीं,” तुम्हारे पापा को घर में अकेले छोड़कर कैसे जा सकती हूँ।” तब से सुगना और नंदू उनके साथ ही रहने लगे।शाम का दीया जलाने के बाद पति की तस्वीर से बातें करना उनका नियम-सा बन गया था।शादी के सालगिरह वाले दिन वो केक भी काटतीं थीं।इस साल तो उनकी शादी के पचास साल पूरे हो रहें थें तब बच्चों ने कहा कि हम सब मिलकर मनायेंगे तो…..।
” दादी माँ…निशु अंकल(निशांत) आ गये…” पोते आरव की आवाज़ से आनंदी जी वर्तमान में लौटी।पोती तो आते ही उनसे लिपट गई।शाम को हाॅल सजाया गया।बीच में एक बड़ी-सी मेज़ पर केक रखा गया और उसके ठीक सामने सुदर्शन बाबू की मुस्कुराती हुई तस्वीर रखी हुई थी।आनंदी जी ने केक काटा तो सबने तालियाँ बजाई और कहने लगे,” शादी की पचासवीं सालगिरह मुबारक हो मम्मी-पापाजी को…हैप्पी एनिवर्सरी टू दादू- दादी..।” एक तरफ़ खड़े चंद्रकांत और आनंदी जी की बड़ी ननद भी इस खुशी का आनंद उठा रहें थें।
आनंदी जी अपने पति की तस्वीर को निहारने लगी जो स्वयं अपनी पत्नी को देखकर मुस्कुरा रहें थें जैसे कह रहें हों,” शादी की पचासवीं सालगिरह मुबारक हो मेरे हमसफ़र..!”
विभा गुप्ता
स्वरचित
# हमसफ़र (सर्वाधिकार सुरक्षित)
सच्चा हमसफ़र वही होता है जो जीवन की डोर टूट जाने के बाद भी अपने साथी के साथ हमकदम बनकर रहता है सुदर्शन और आनंदी की तरह