धिक्कारिए नही …स्वीकारिए !!- लतिका श्रीवास्तव : Moral stories in hindi

एक डर था जो धीरे धीरे आकार ले रहा था मेरे अंदर जो अचानक  नहीं हुआ था नवागंतुक नहीं था यह शायद यह तभी मेरे अंदर प्रस्फुटित हो गया था जब मेरी मां मुझे एक पुत्री को जन्म देने वाली थी वो भी उस समय जबकि पूरा खानदान घर के चिराग की एक अदद पुत्र की आतिशी कल्पना में डूबा हुआ था ।बैंड बाजे वाले  सन्नध खड़े थे पुत्र जन्म की धुन बजाने के लिए  आतिशबाजी के पैकेट राह देख रहे थे आसमान को रोशन करने की  मिठाइयों के डब्बो से सुस्वादु मिठाइयां उपस्थित परिवार जनों परिचितों के मुंह में जाने को लालायित कर रहीं थीं।लेकिन तभी मेरे जन्म लेने की खबर ने मानो बम विस्फोट के पश्चात की मुर्दनी खामोशी को सभी के सिर तक पहना दिया था । बैंड बाजे वाले बेआवाज वापिस रवाना हो गए थे आतिशबाजी अछूती रह गईं थी मिठाइयां डिब्बों के अंदर ही शोक मनाने लग गईं थीं।

मां डर गई थी मुझे देख कर नहीं मुझे दिखा कर!! एक पल में ही घरवालों की धिक्कार भरी नजरे मेरी मां को और मुझे बींधने लगीं थीं ।उसी वक्त मां के दिल का डर मेरे दिल में पैठ गया था ।यह  डर था अपने अस्तित्व का यह डर था अपनी पहचान का यह डर था खुद अपने आप पर धिक्कार का।

उम्र बढ़ती गई साथ ही यह डर भी बढ़ता गया।मेरी मां ही नही मेरे पिता के अंदर भी एक डर था मेरे लड़की होने से डरते थे।अकेले होने पर या किसी के साथ होने पर यह डर आंखें दिखाने लगता था। कहीं अकेले आने जाने पर वर्जनाएं अनगिनत।वर्जनाओं में भी यही डर छुपा था मेरे पिता के दिल में।इतनी बड़ी हो गई है दुनिया की नजरें इस पर पड़ने लगी हैं गड़ने लगी हैं !यहां अकेली बैठी क्या कर रही है ये बिना बांह वाली कुर्ती क्यों पहन ली यहां दरवाजे पर खड़ी किसे निहार रही है जा अंदर जा यहां बैठक में क्यों बैठी है किताबे पढ़ के क्या करेगी जा चाय बना ला ..आईने के सामने बड़ी देर खड़ी रहती है आजकल  वह लड़का आजकल रोज घर के सामने से निकलने लगा है सुन कल से रोज रोज कॉलेज जाने की जरूरत नहीं है तुझे घर गिरस्ती के काम सीख ले ….सुन ये लड़के बहुत बुरे होते हैं इनसे दूर ही रहना इनकी बातों के जाल में ना फंस जाना कोई लड़का कुछ भी कहे बहकावे में बिल्कुल ना आना जहां लड़की देखी बहक ही जाते हैं….हर बात लड़की होने का डर याद दिलाती थी धिक्कारती थी मुझे।

भाई रात के बारह बजे भी घूम के आए जाए यह डर नहीं होता था ।

धिक जीवन लगने लगा था। मेरे पैदा होने पर मेरी मां को धिक्कार ही मिली थी वही धिक्कार अब मेरे जीवन का अंग बन गई थी ।घर के अंदर भी और घर के बाहर भी ।लड़की है तुझे ही संभल के चलना है संभल के बात करना है तेरी ही गलती होगी तूने ही कुछ उल्टा सीधा कहा होगा अरे लड़कियों को ही झुकना पड़ता है काहे की अकड़ लड़की हो दबना सीखो पहले सबको खाना खिला दे फिर अपनी थाली लगाना तुझे कम पड़ जाए कोई बात नहीं घर के लोगों ने तो ठीक से खाना खा लिया ना !!हर बात पर तुच्छता का एहसास ।

मां चुप रहती थी शायद समर्थन ही करती थी इन सब रिवाजों का वर्जनाओं का स्वत स्वीकार्य वर्जनाएं थीं जिन्हें मां ने मुझमें रोपित कर दिया था अपने सारे डर मां ने मुझे दे दिए थे सारी धिक्कार भी मैंने भी दिलो जान से मां की सौंपी विरासत संभाल ली थी।

आज मुझे सजाया जा रहा था जिन कपड़ों को जिन जेवरों को छूने भी नही दिया जाता था आज उन्ही से मुझे संवारा जा रहा था मुझे अच्छा लगे इसलिए नहीं किसी और को मैं अच्छी लग सकूं कोई और मुझे पसंद करे मुझसे रिश्ता जोड़ ले इसलिए!! अभी तक तो क्रीम पाउडर लगाने पर सख्त पाबंदी थी बिंदी लगाकर आईने के सामने खड़े हों खुद को निहारने की इजाजत नहीं थी.. पर आज जैसे सारी पाबंदियां हटा दी गई थीं मेरी खुशी के लिए नहीं किसी और को खुश करने के लिए..!!।खुद अपने आपको तो मैं पसंद नहीं मेरे पिता को तो मैं पसंद नहीं किसी और की पसंद क्यों बनूं!! अभी तक पिता ने जो कहा भाई ने जो कहा वही करती रही हर दिन डरती रही और मां मुझे डराती रही पिता को पता लगेगा तो डांटेंगे भाई देख लेगा तो चिल्लाएगा और मैं डरती चली गई।

लेकिन आज किसी पराए लड़के के लिए मुझे सजा धजा रहे हैं जब मेरा भाई मेरे पिता मुझे डरा कर रख रहे थे वर्जनाएं लगा रहे थे तो अब ये अपरिचित व्यक्ति कैसे मेरी पसंद बन जाएगा मैं अचानक इस पर कैसे भरोसा करने लगूं !यह भी तो मुझे धिक्कारेगा ही  मेरी इज्जत नहीं करेगा मुझे और डरा कर रखेगा तो क्या जो धिक्कार और दुत्कार जन्म लेने पर मुझे और मेरी मां को मिली थी वह पुश्त दर पुश्त चलती जायेगी जैसे की यह भी कोई खानदानी वसीयत हो ।

नाश्ते की प्लेट उस अपरिचित लड़के  की ओर बढ़ाते हुए उस लड़के की आंखों में भी मुझे वही धिक्कार  दिख गया ….जो उसके एक पुरुष होने का प्रमाण था शायद ।जैसे मुझे स्वीकार करके वह मेरा उद्धार कर रहा हो!!

शालिनी बेटा तुझे यह लड़का खुश रखेगा मैं तो तुझे कोई खुशी नहीं दे पाई जा अब अपने घर में राज करना मां मुझे बहला कर कह रही थी या अभी तक पलते आ रहे डर को नजरंदाज करने की झूठी कोशिश करवा रही थी ।

राज करना किसे कहते है मां क्या इस घर में तेरा राज है नहीं जाना मुझे कहीं भी पहले मैं अपने आप को खुश कर लूं अपने इस घर में जहां मैं पैदा हुई वहां सम्मान पा लूं मुझे जिस मां ने जन्म दिया उसका सम्मान करवा लूं अपने लड़की होने को एक  बेटी होने के साधिकार पा लूं उसके बाद ही किसी की पत्नी या बहू होने का साहस कर पाऊंगी अचानक शालिनी के अंदर यकायक कुछ खौलने लगा था जिसमें इतने वर्षो का जमा डर का हिमशिखर मानो पिघलने को उतावला हो उठा था।

एक स्त्री हमेशा दूसरी स्त्री को स्त्री होने का अपना यही डर  हीनता और धिक्कार सौपती रहती है..!

एक पुरुष दूसरे पुरुष को अपने पुरुष होने का अधिकार और दंभ सौंपता रहता है..!!

युगों युगों से चले  आ रहे इस अक्षुण्ण  आदान प्रदान की परिपाटी के विपरीत जाने का दुस्साहस किसी ने कभी किया ही नहीं!!

इस से मुक्त हो जाऊं साहस तो मुझे ही करना होगा।। शालिनी खड़ी हो गई थी….नही पिता जी अभी तक तो आपसे मेरा डर खत्म नहीं हुआ अभी तो आपसे मिली धिक्कार की आवाज खत्म नहीं हुई है । पहले आप तो मुझे दिल से स्वीकारिये पहले मैं खुद तो अपने अस्तित्व को स्वीकार कर सकूं..!यह अजनबी मुझे कैसे दिल से स्वीकार कर लेगा। नहीं हूं मैं तैयार अभी पुराने डरो की जकड़न मुझे बांधे हुए है। इससे भी ज्यादा डर और नए धिक्कारो का मुकाबला करने के लिए नहीं हूं तैयार..!!

आज पिता से मुझे डर नहीं लग रहा था।

मां देख रही थी कि यह डर अब पिघलने लगा था..!!

आज मेरा एक डर पिघला है कल किसी और बेटी का परसो किसी और बेटी का……!!

 लतिका श्रीवास्तव

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