“ख़्वाबों की फ़सल” – ज्योति मिश्रा
“ओहो ! यार तुम समझती क्यूं नहीं । पिछले पांच सालों से देख रहा हूं मैं तुम्हें। तुम्हारा पड़ोसी हूं मैं । तुम्हारी खिड़की मेरी खिड़की के सामने ही खुलती है। मैंने देखा है बेचैनी से तुम्हें रात_रात भर टहलते हुए । लाख छुपाओ तुम मैं जानता हूं, रोहित तुम्हारा पति अपनी उस नेहा के … Read more