कोला आजी – पुष्पा पाण्डेय

हमारा घर हवेली के नाम से जाना जाता था। गाँव के रईस घराने में गिनती होती थी।

शाम होते ही मेरी दादी हवेली के दूसरे दरवाजे पर पल्ला मारकर अपनी छोटी मचिया लेकर बैठ जाती थी। वहीं बाहर की तरफ ओटा पर एक तरफ कोला आजी बैठती थी। गाँव के सभी लोग बूढ़े-बच्चे उन्हें कोला आजी ही कहते थे, क्योंकि उनका घर गली के एक कोने में था। दूसरे ओटा पर गली से गुजरते लोग दादी को दुआ सलाम करने के एवज में बैठ जाते थे। उस ओटा पर न जाने कितने नर-नारी बैठते थे और थोड़ी देर बाद अपने-अपने रास्ते चल देते थे। वहीं से लगभग पूरे गाँव की खोज-खबर वे लोग ले लेती थीं। कोला आजी से हम सभी का आत्मीय लगाव हो गया था। वो भी हमलोगों को बहुत प्यार करती थी। वो हमारे बिरादरी की नहीं थी, फिर भी दादी के साथ उनका अपनों सा सम्बन्ध था।

कोला आजी एक अलग व्यक्तित्त्व की बाल विधवा महिला थी। जब से उन्होंने अपनी आधी जमीन स्कूल खोलने के लिए दान कर दिया था, तब से गाँव में उन्हें काफी सम्मान मिलने लगा था,लेकिन परिवार से मनमुटाव हो गया था।——script async src=”//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js”>

गाँव में माध्यमिक स्कूल खोलने की बात प्रधान जी ने उठायी थी। गाँव के सभी लोग इस शुभ कार्य के लिए तैयार थे, पर समस्या थी जमीन की। कुछ लोग अपनी जमीन देना नहीं चाहते थे तो कुछ लोगों की जमीन गाँव से अधिक दूरी पर थी और कुछ लोग धन से सामर्थ नहीं थे पर तन से थे।

कोला आजी अपने देवर के परिवार के साथ रह रही थी। उनकी जमीन गाँव के नजदीक भी थी। कोला आजी ने सुना कि स्कूल के लिए जमीन की जरूरत है तो वे स्वयं प्रधान जी के पास जाकर अपनी जमीन देने की बात की। परिवार के लोगों ने काफी बवाल किया, लेकिन कोला आजी अड़ी रही। वो आधी जमीन स्कूल को और आधी देवर के बेटे के नाम करना चाहती थी। जहाँ पूरी की उम्मीद थी वहाँ आधे से संतोष कहाँ होता है और नाराज होकर इन्हें अपने से अलग कर दिया। कोला आजी ने उनके निर्णय को स्वीकार कर लिया था और अपनी रसोई अलग बनाने लगी, लेकिन उम्र और बीमारी उन्हें भी दस्तक देने लगी । कोला आजी की जिन्दगी किसी तरह गुजर-वसर हो रही थी। कभी-कभी वह गाँव की गरीब महिलाओं से अनाज देकर अपना काम करावती भी थीं। बीमारी की हालत में भी कोला आजी ओटा पर आना नहीं छोड़ती थी। किसी का सहारा लेकर भी आती थी और घंटों बैठी रहती थीं। मेरी दादी भी उनकी खोज-खबर रखती थीं।

एक दिन हमारे घर में पूजा थी।मेरी दादी एकादशी का उद्यापन करा रही थी, उसी दिन कोला आजी सुबह उठी ही नहीं। दो पहर तक परिवार का कोई भी सदस्य उनकी खोज- खबर नहीं ली।

उनका भतीजा तो पहले ही एलान कर चुका था कि जमीन तुम ने स्कूल को दिया है वही तुम्हारा दाह-संस्कार भी करेगा। कोला आजी का देवर भी वृद्धावस्था के कारण बेटे के सामने खामोश था। वही जाकर देखा और गाँव वाले को बुलाकर ले आया। सभी तमाशाई बने देख रहे थे। भतीजा पहले ही खेती का सामान लाने के बहाने बाजार निकल चुका था। खबर प्रधान जी तक पहुँच गयी। प्रधान जी चार आदमी को लेकर आये और उसके अंतिम संस्कार की तैयारी करने लगे। उन्होंने कहा-script async src=”//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js”>

” कोला आजी   पूरे गाँव की आजी है वो मेरे लिए पूजनीय है। धर्म का काम करने वाली महिला का पार्थिव शरीर सम्मान के साथ पंचतत्व में विलीन होगा। इनके पार्थिव शरीर के साथ पूरे गाँव की परिक्रमा होगी। मैं इनका दाह-संस्कार करूँगा।”

विधिवत अंतिम यात्रा की तैयारी होने लगी। अंत में उनके देवर का बेटा भी अनकहे दबाव में आकर शामिल हो गया।

जैसे ही मेरी दादी को पता चला तो उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया। एकादशी का उद्यापन तो अगले महीना भी किया जा सकता है, लेकिन कोला आजी तो आ ही जा रही हैं। मेरी दादी ने भी एक देवरानी की तरह उनके अंतिम कार्यकलाप में शामिल रहीं।

कोला आजी मरी नहीं, वो अमर हो गयीं। स्कूल का नाम रखा गया–

“कोला आजी हाईस्कूल। “

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

 

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