अरूण जी बार बार बरामदे का चक्कर लगा रहे थे । उन्हें इस तरह बेचैन देखकर उनकी बहू मीता पूछ बैठी ,
“क्या बात है पापाजी? आपको कुछ चाहिए क्या?”
“नहीं…. बहू… वो … मैं बस यूं ही …. वैसे तनुज नहीं आया अभी तक आफिस से” बात घुमाते हुए अरूण जी बोले ।
“पापाजी, वो बस आने वाले हीं हैं। कोई काम है तो आप मुझे बता दीजिए,” मीता ने सहजता से कहा ।
” नहीं बहू , कोई काम नहीं है। बस यूं ही पूछ रहा था।” फिर से बात टालते हुए अरूण जी बोले।
अरूण जी पैंसठ साल के हो चुके थे। अपने समय में सेल्स मैन का काम करके परिवार का जीवन यापन करते थे। अपने बेटे तनुज को उन्होंने तंगी में भी अपनी हैसियत से ऊपर होकर पढ़ाया-लिखाया ताकि उसे एक अच्छा भविष्य मिल सके। तनुज ने भी अपने माता पिता की उम्मीद को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपनी मेहनत और लगन से अब वो एक कंपनी अच्छी जाॅब कर रहा था।
तनुज की मां अभी तीन साल पहले ही बीमारी की वजह से इस दुनिया से विदा हो चुकी थीं। पत्नी के जाने के बाद घर में एक गृहणी की कमी बहुत खलती थी। छह महीने पहले हीं तनुज ने अपनी पसंद की एक लड़की मीता से शादी कर ली। मीता व्यवहार में अच्छी थी। अपने ससुर अरूण जी का भी ध्यान रखती थी और घर भी संभालती थी। फिर भी अरूण जी खुल कर अपने मन की बात बहू से नहीं कह पाते थे। समाज को देखते हुए उन्हें लगता था कि बहू बेटे के लिए उसके बुढ़े माता पिता केवल एक जिम्मेदारी होते हैं।
थोड़ी देर में तनुज आफिस से आ जाता है। हाथ मुंह धोकर वो चाय पी रहा था तो मीता उससे बोल पड़ी,
” पापाजी आपको पूछ रहे थे। शायद कोई काम होगा मुझे तो बताया नहीं।”
ये सुनकर तनुज चाय खत्म करके अरूण जी के कमरे की तरफ बढ़ गया।
” पापा, कोई काम था क्या?” तनुज ने पूछा।
” बेटा,….. वो कल गुप्ता जी का जन्मदिन है । पिछली बार मेरे जन्मदिन पर उन्होंने जबरदस्ती मुझे ये घड़ी उपहार में दे दी थी। , तो मैं सोच रहा था कि मुझे भी उन्हें कोई उपहार देना चाहिए। इसलिए मुझे हजार रूपए दे सको तो….” सकुचाते हुए अरूण जी बोले।
” हां हां पापा, क्यों नहीं…कहते हुए तनुज ने अपनी जेब से बटुआ निकाला और उसमें से हजार रूपए निकालकर” अरूण जी की ओर बढ़ा दिए।
मीता कमरे के बाहर खड़ी बाप बेटे की बातें सुन रही थी। उसने अंदर आकर तनुज के हाथ से हजार रूपए और तनुज का बटुआ दोनों ले लिए। ये देखकर अरूण जी और तनुज दोनों ही स्तब्ध रह गए।
तनुज की आंखें पिता के सामने शर्म से झुक रही थीं कि तभी मीता ने बटुए से सारे पैसे निकालकर अपने ससुर के हाथों में रखते हुए कहा ,” पापाजी, आप ये सारे पैसे रखिए और आपका जो मन करे ले आईये।”
अरूण जी और तनुज दोनों अब आवाक से मीता का मुंह देख रहे थे। तनुज की आंखें छलक आई थीं । वो बिना कुछ बोले मुस्कुराते हुए पापा के हाथों को कसते हुए कमरे से बाहर आ गया।
मीता उसकी मनोस्थिति समझ रही थी इसलिए बोली,
“तनुज , पापाजी ने अपनी पूरी जवानी तुम्हारी जरूरत पूरी करने में निकाल दी। जिस इंसान ने सारी जिंदगी खुद कमा कर परिवार की जरूरत और इच्छाएं पूरी की हैं उस इंसान के लिए अपनी जरूरतों के लिए किसी के आगे हाथ फैलाना बहुत मुश्किल होता है चाहे वो खुद की संतान हीं क्यों ना हो। तुमने देखा नहीं पापाजी तुमसे पैसे मांगते हुए कितना झिझक रहे थे। मुझे तो उन्होंने कुछ बताया भी नहीं।
तनुज जब हम दोनों बाहर घूमने या डिनर पर जाते हैं तो भी इससे ज्यादा पैसे खर्च हो जाते हैं फिर पापाजी को क्यों कुछ पैसों के लिए सोचना पड़ता है ??”
मीता की बात सुनकर तनुज को अहसास हुआ कि हर उम्र में इंसान की कुछ इच्छाएं होती हैं। पापा की उम्र हो चुकी है इसका मतलब ये नहीं की उन्हें हाथ खर्च नहीं चाहिए होता। उस दिन से तनुज ने अपने पिता जी को भी हर महीने खुद जेब खर्च देने का निर्णय लिया। वो बहुत खुश था कि उसे मीता के रूप में ऐसी जीवनसाथी मिली है जो उससे पहले उसके पिता की मनोस्थिति को समझ सकती है।
अपने कमरे में खड़े अरूण जी का सीना भी गर्व से चौड़ा हो गया था। अपनी पत्नी की तस्वीर के आगे मुस्कुराते हुए वो बोले, ” देखा तनुज की मां… हमारे दिए हुए संस्कार जाया नहीं गए ।,,
उनके अंतर्मन से बहू बेटे के लिए ढेरों आशीर्वाद निकल रहे थे।
#संस्कार
सविता गोयल