चलें जड़ों की ओर -सरला मेहता

ननकू सपरिवार बस से उतरकर बापू द्वारा भेजी बैलगाड़ी में बैठा अपने गाँव के बारे में सोच रहा है। गया था तो माँ ने कितना सामान बाँध दिया था अचार, गाय का घी बच्चों के लिए लड्डू और ना जाने क्या क्या। और वह जा रहा है खाली हाथ।

 चार वर्ष पूर्व अपने बूढ़े माँ बाप को गाँव में छोड़कर शहर आ गया था। मुम्बई की चकाचौंध के आकर्षण के सामने गाँव का जीवन नीरस लगने लगा था। बीबी दीना की भी बड़ी इच्छा थी शहर में रहने की। छोटे से टी वी में सिनेमा देखना उसे रास नहीं आता था। वह चाहती थी कि गप्पू और गीता भी बस्ता लटकाए स्कूल जाए।

ननकू सपरिवार मुम्बई तो आ गया किन्तु पहचान वाले काका ने आठ दिन बाद ही बाहर का रास्ता दिखा दिया।

फुटपाथ को ठिकाना बनाने के सिवा कोई चारा नहीं रहा। एक नई बन रही इमारत में पति पत्नी को मजदूरी का काम मिल गया। किस्मत से वहाँ का चौकीदार काम छोड़कर चला गया था। ननकू को उसकी जगह काम मिल गया और रहने को झोपड़ा भी।

दीना को दिनभर तगारी ढोने की आदत कहाँ थी। गाँव में तो बस सुबह शाम सबके लिए दाल रोटी बनाओ और खाओ। घर का दूध घी, कोई कमी नहीं फ़िर मजे से टी वी देखो। ऊपर से सासू माँ का लाड़ प्यार। प्यारे पोते पोती को पाकर दादा जी निहाल हो गए। और यहाँ दिनभर जुते रहो। कमरतोड़ मेहनत करके घर का भी काम करो। बच्चे पूछते, ” माँ ! समन्दर किनारे कब चलेंगे ? हमारा स्कूल कब खुलेगा ? ” दीना के पास कोई जवाब नहीं। उसका मन भी तफ़री करने को मचलता ।

      ज़रा भी काम में कसर हुई नहीं कि ठेकेदार की लताड़ सुनो, ” ननकू ! ढंग से काम करो वरना चलते बनो। कल तो तुम तरी करना ही भूल गए थे। तुम्हारी लुगाई को अपने नखरों से फ़ुर्सत नहीं। आधा समय तो वह बाल सँवारने में निकाल देती है। ऐसा करो बच्चों से भी छोटा मोटा काम करवा लिया करो। “

ननकू हाथ जोड़ता है, ” मालिक बच्चों से ? “

ठेकेदार आँखें तरेरता है, ” हाँ भई ! बच्चों से। तभी तो वे सीखेंगे। आख़िर बड़े होकर उन्हें यही काम तो करना है। “


ननकू का माथा ठनका , ” क्या इसीलिए वह शहर आया था। वह तो अपने बच्चों का भविष्य सँवारने आया था। “

ननकू बीड़ी के कश भरता किसी और काम की तलाश में निकलता है। पता चला शहर के बाहर गाँव में फेक्ट्री बन रही है। कोई बड़ा सेठ है। जो मजदूर ईमानदारी से काम करेंगे, उन्हें वहाँ रहने के लिए खोली भी मिलेगी। ननकू ने सपरिवार वहीं डेरा डाल दिया। वहीं पास में एक

सरकारी स्कूल में बच्चे भी जाने लगे। चलो देर सबेर सब कुछ ठीक हो जाएगा, यही सोचकर दीना खोली जमाने में जुट जाती है।

काम के मामले में यहाँ का ठेकेदार बड़ा सख्त था। हाँ, मजदूरी ईमानदारी से दे देता था। अच्छे पैसे मिलने से दीना   ज़रा सजधज कर रहने लगी । काम का जायज़ा लेने मालिक मौके बे मौके पर आ टपकता। दिवाली पर सबको उपहार देते समय उनकी नज़र दीना पर पड़ गई। फ़िर तो मालिक कभी भी आ धमकते। कभी बच्चों के लिए मिठाई तो कभी सबके लिए कपड़े।

कभी कभी मालिक, ननकू को पास में बिठाकर शराब भी पिला देता। एक दिन मौका देख कर वह दीना का हाथ पकड़ कर कहने लगा, ” अरे रानी कभी कभार हमसे भी बतिया लिया करो। “

दीना समझ नहीं पाती क्या करे ? अपने गाँव में तो किसी की क्या मज़ाल कि उसकी ओर कोई बुरी नज़र से देख भी सके ?

वह धड़धड़ाती सीधी खोली पर पहुँच टूटे खटोले पर पड़ गई। ननकू बच्चों को कपड़े दिलाने बाजार गया था।

आते ही पूछा, ” ऐसे क्यों पड़ी है ? ए गीतू ! ज़रा तेरी माँ के सिर में तेल लगाकर मालिश तो कर दे। इसे आए दिन कुछ न कुछ होता ही रहता है। वो भी क्या करे, कभी जनम ज़िन्दगी में इतना भारी काम कहाँ किया इसने। “

ननकू ने चूल्हा जलाकर चाय चढ़ा दी। वह दीना का माथा सहलाते हुए बोला, ” चल उठ, एकाध गोली खाकर चाय पी ले। तेरा सिरदर्द रफूचक्कर हो जाएगा। चल आज आज सिनेमा देख आते हैं। बच्चों का भी दिल बहल जाएगा। “

” नहीं जी, तुम्हारी गोली को मारो गोली। मेरा मन ठीक नहीं है। आज मुझे गाँव की बहुत याद आ रही है। नहीं देखना मुझे सिनेमा। मेरा तो वो गाँव वाला टी वी ही अच्छा था। ” कहते हुए वह मालिक की गुस्ताख़ी छुपा गई। वह सोचने लगी, “ननकू गुस्से में कुछ कर बैठा तो यहाँ कौन उसे रोकेगा ? झगड़ा टंटा हुआ तो कोई बचाने भी नहीं आएगा। यहॉं हमारे गाँव वाले तो हैं नहीं। “


       गाँव के मंदिर की ध्वजा देखकर ननकू की तन्द्रा टूटती है, ” कितने सुकून से दोनों बच्चे माँ की गोद में सो रहे हैं। दीना भी गाड़ी के हिचकोलों के साथ इधर उधर निश्चिंत होकर गिर पड़ रही है। “

गाड़ी घर के दरवाज़े पर पँहुचती है, माँ सामने ही आरती की थाली लिए दिखाई देती है। पूरा आँगन गाँव वालों से भरा है। सब उत्सुक हैं जानने के लिए कि क्या क्या सामान लाए हैं शहर से। ढोलक की थाप पर औरतें बधाई

गीत गा रही हैं। गप्पू और गीता दादा दादी से लिपट रहे हैं। ननकू सोच रहा है , ” देर आए दुरुस्त आए। अपने खेत और अपना काम भला। पराधीन सपनेहु सुख नाही। “

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