विषवृक्ष – रवीन्द्र कान्त त्यागी

छोटे से कस्बे में मेरा आई.आई.टी में उच्च श्रेणी प्राप्त करना कई दिन चर्चा का विषय रहा था. पहले महीने ही एक अंत्तराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पॅकेज की नौकरी लग जाने के बाद पिताजी ने वधु तलाश कार्यक्रम शुरू कर दिया था और ये स्वाभाविक भी था.

महानगर की एक पौष कॉलोनी में प्रशासनिक अधिकारी की कोठी में प्रवेश करते हुए ही मैं स्वयं को असहज अनुभव कर रहा था.

लाख मना किया था पिताजी से कि स्कर्ट पहनकर इंग्लिश मीडियम के स्कूल में पढ़ने वाली कॉन्वेंट कल्चर में पली बढ़ी महानगरीय बाला के साथ मुझ जैसे परम्परा और संस्कारों में रचे बसे कस्बई नौजवान का जीवन निर्वाह कैसे हो पायेगा भला, मगर उनकी अपने होनहार का रिश्ता बड़े घर से जोड़ने की महत्वाकांग्शा को कैसे रोक सकता था।

विदेशी खुशबू में नहाये और कीमती फर्नीचर से पटे पड़े मखमली फर्श पर चाय की ट्रे हाथ में लिए हुए जिस रमणी ने प्रवेश किया, ऐसी तो तस्वीर भी अपने जीवन में मैंने कभी नहीं देखी थी. मानो अजंता की गुफाओं से चित्रकार की कल्पना सजीव होकर भटक गई हो और वासंती हवाओं ने उस शिल्प में अपने सारे रस रंग और सुगंध भर दिए हों. बर्फ के शिलाखंड को तोड़कर निकली संगेमरमर की प्रस्तर मूर्ती सी. आह .

न जाने क्यों मैंने अपनी जेब में पडी अंगूठी को टटोलकर देखा. लड़की पसंद आने पर उसे पहनाने के निर्देश के साथ माँ ने दी थी.

कांपते हाथों से मैंने एक घूँट पानी पिया और तिरछी निगाह से सौंदर्य की उस प्रतिमूर्ति का पुनर्मूल्यांकन किया. कहीं तिल रखने की भी गुंजाईश नहीं.

चाय पीने के बाद प्रश्नसूचक निगाहों से पिताजी और मेजबान महोदय ने मेरी तरफ देखा. मुझे असमंजस में देख कर उन्होंने कहा “निसंकोच होकर अपना निर्णय लो बेटा. तुम्हारे जीवन भर का सवाल है”.

“मेरा निर्णय ….. मैं …. मगर पहले उन से”. मैंने लड़की की और संकेत करते हुए कहा.

रेशम के धागे से भी महीन लज्जा मिश्रित मुस्कान की एक रेखा गालों से प्रवाहित होकर अधरों में विलुप्त हों गई और मूक स्वीकारोक्ति से अति उत्साहित, हड़बड़ी में अंगूठी की डिब्बी मैंने होने वाले स्वसुर साहब के हाथ में धर दी. वे ठठाकर हंसे और प्रफुल्लित होकर बोले “अंगूठी मेरे हाथ में नहीं देनी है बेटा. लड़की को पहननी है”. सारे लोग हंसने लगे.

अकल्पनीय अहसास. जीवन जैसे स्वर्ण पंख लगाकर सातवें आसमान पर विचर रहा था. एक मधुर स्वप्निल मदोन्माद की लहरों पर तैर रहा था. शहरी आधुनिक सभ्यता और चरित्र के प्रति जो विषवृक्ष का बीज मेरे कस्बाई समाज ने बचपन से मेरे हृदय में बोया हुआ था कुम्हलाकर मुरझा गया था.

कुछ महीनो के बाद ऋचा को नवजीवन को जन्म देना था तो माँ के निर्देश पर मैंने उसे घर छोड़ दिए और जॉब के लिए चला गया. आठ महीने के बाद मेरे पुत्र ने जन्म लिया.

ग्रामीण समाज की एक विशेषता होती है कि सभी एक दूसरे के सुख दुःख से जुड़े रहते हैं. वहीं एक बड़ी खामी भी होती है कि सबको एक दूसरे की जिंदगी में झांकने की आदत होती है.

अपने पुत्र को देखने के उत्साह से भरा हुआ, कुछ दिन बाद घर पहुंचा तो मेरी गृहस्थी के स्वैछिक संरक्षक मेरे दोस्त, ऋचा के दिप्त सौंदर्य से डाह खाई मेरी भाभियाँ और पके आम की तरह माँ की झोली में आ गिरा सौभाग्य जिनकी आँखों में शूल की तरह चुभ रहा था ऐसी पड़ौसने भला मेरे अंतर्मन के विषवृक्ष को मर कैसे जाने देतीं.

किसी ने कहा “अठमासा तो जिया भी न करै देवर जी और ये पूरा पाठा. ब्याह से पहले ही आंख मटक्का था क्या देवर जी”.

किसी दूसरी ने कहा “छोरे के बाल बड़े सुन्दर हैं. घुंघराले से. तुम्हारे खानदान में तो किसी के ना हैं ऐसे बाल”.

दोस्तों ने मजाक उड़ाया “क्या गुरु. ये भी दहेज़ में मिला है क्या”.

भीतर का विषवृक्ष अचानक लहलहा उठा था. दिन तो किसी तरह कट जाता था मगर ….. रात भर दुःस्वप्न सोने नहीं देते. शादी में शामिल हुए नोजवानो के चहरे, बाल और व्यक्तित्व से अपने नवजात की तुलना करते हुए ऋचा के चरित्रहीनता के गहरे गर्त में गिरे होने की कल्पना करता. ये बात भी बार बार मेरे मन को कचोटती कि महानगर के पौष इलाके में रहने वाली आधुनिक लड़की ने पहली ही निगाह में मुझ कसबाई गंवार को कैसे स्वीकार कर लिया था.

ऋचा पुत्र को सीने से लगाए गहरी नींद में सो रही थी किन्तु मेरे भीतर का दानव जाग रहा था. चुपचाप उठकर उसकी अलमारी की तलाशी लेने का निश्चय किया कि पूर्व प्रेमी की कोई निशानी या प्रेमपत्र हाथ लगे तो. एक लाल रंग की मखमल की थैली कपड़ों के नीचे जतन से संभलकर कर रखी गयी थी. शंका का विषवृक्ष तांडव करने लगा. हस्त लिखित पत्रों का एक बण्डल. रंगे हाथों पकड़ने की तृप्ति का अहसास होने लगा किन्तु … उफ़, ये तो वही मेरे हाथ के लिखे पत्र थे जो सगाई के बाद मैंने ऋचा को लिखे थे. मगर …. मगर ये घुंघराले बाल. आठ महीने में जन्म, चौड़ा माथा, बड़ी बड़ी ऑंखें. नहीं. इतने भर से संतुष्ट नहीं हों सकता. तह तक जाना पड़ेगा मुझे.

अब इस खोज में एक रोमांच और मंजिल पर पहुँचाने की ललक चरम पर थी. कभी बहार जाने का बहाना करके रात को अचानक घर लौट आता कि क्या पता कोई खिड़की से कूदकर भागता दिखाई दे. कभी पेरेलल फॉन पर उसकी बातें सुनता. चोरी से उसको मिले मायके के पत्र पढ़ता और ऐश ट्रे में सिगरेट के टोंटे तलाश करता था.

एक दिन चुपचाप ऋचा के शहर जा पहुंचा. कोठी के आस पास यूं ही चक्कर लगता रहा. फिर कोठी के सामने पान के खोके वाले से अनावश्यक एक सिगरेट खरीदी. एक पान लगवाया और उसे कुरेदने की दृष्टि से धीरे से पुछा “ये सामने एसडीएम् साहब का मकान है न”.

“चतुर्बेदी जी का पूछ रहे हों का”.

“हाँ हाँ … वही. उनकी एक बिटिया भी ….. “

“हाँ … थी बिटिया. चली गईन ससुराल. मतलब की बात बोलो बाबू. ठेकेदार वगैहरा हों क्या”

“नहीं … नहीं वो … उनकी बेटी मेरे साथ कॉलेज में पढ़ती थी.”

उसने बिना आगे बात बढ़ाये जोर से आवाज दी “अरे ओ रामधनुआ. ई बाबू ऋचा बिटिया को पूछ रहे हैं”.

मैंने दुम दबाकर वहां से खिसकने में ही भलाई समझी.

शिकार के निकट पहुंचकर व्याग्र की क्षुदा की तरह मेरे भीतर का दानव चीख चीख कर कह रहा था कि तुम मंजिल के निकट ही कहीं हों. इसी शहर में मिलेगा तुम्हारी शंका का समाधान. ऋचा की बचपन की सहेली उर्मिल को टटोलने का निर्णय करके उसके घर पहुँच गया.

मंझले से कद की बेबाक सी मराठी लड़की मुझे अचानक देखकर आश्चर्य चकित रह गयी.

“अरे जीजा जी … आप अचानक”.

“हाँ उर्मिल जी. बस ऐसे ही कंपनी के काम से यहाँ आया था तो सोचा कि आप के साथ एक चाय तो बनती है”.

“बड़ा अच्छा किया आप ने. दरअसल बचपन से ही मैं और ऋचा एक साथ …. बस दो बहनो की तरह ….”

“बड़ा मन था कि ऋचा के कॉलेज के दोस्तों के साथ कभी मुलाकात हों. कई लोग तो मिले थे शादी में. एक वो गोरा सा घुंगराले बालों वाला लड़का जो ऋचा से घुट घुट कर बातें …….”. मैंने तीर सीधा निशाने पर मरने का निश्चय किया.

“अरे तुम शायद प्रताप की बातें कर रहे हों. वो तो ऋचा के मामा का लड़का है. यू एस में रहता है. बचपन में दोनों साथ ही पढ़ते थे”.

” अच्छा अच्छा …. कभी जिक्र नहीं किया उसने. हा हा हा . अच्छा ऐसे ही …… मैं सोच रहा था कि इस नारी मुक्ति के आधुनिक काल में भी नारी कितनी विवश है. कितनी असहाय. अब देखो न, इतने स्वछंद वातावरण में भी शादी के मामले में तुम दोनों को घर वालों की पसंद स्वीकारने को विवश …..”

“विवश. हा हा हा. और सुनाइए जीजा जी. आप कुछ असामान्य से लग रहे हैं”.

“नहीं नहीं …. अ… अब चलूँगा. बड़ा अच्छा लगा आप से मिलकर”.

उफ़ … घर से बहार निकलकर माथे का पसीना पोंछा और लम्बी सांस ली. औरत की मन की थाह लेना इतना सरल कहाँ है भला.

घर पहुंचा तो सुबह के आठ बज रहे थे. दरवाजा खुला था. चुपचाप घर में प्रवेश किया. तभी फॉन की घंटी बाजी. ऋचा बड़े उत्साह और उल्लास से किसी से बात कर रही थे.

शंका का काला नाग सहस्त्र फ़न फैलाकर मन आंगन में कालिया नृत्य करने लगा था. चोरों की तरह दबे पाँव से ऊपर के कमरे की और भागा और नटनी के से दक्ष हाथों से फॉन उठाकर कान से लगा लिया.

कोई अनजानी सा पुरुष स्वर था. “मिलने का बड़ा मन है ऋचा. अगले हफ्ते आऊंगा. किसी से बताना मत. सरप्राइज …..”

ओह माई गॉड. ये क्या पक रहा है मेरे ही घर में मेरी नाक के नीचे. दिल पसलियों में धाड़ धाड़ बजने लगा. दिमाग में एक सनसनाहट सी होने लगी. डिटेक्टिव …. हाँ प्राइवेट डिटेक्टिव की सेवाएं लेनी पड़ेंगी अब. जेब में जतन से संभाला हुआ डिटेक्टिव का कार्ड निकला और नंबर डायल करने लगा. लग रहा था कि अब कहानी का क्लाइमेक्स आ गया है. अब सारे रहस्यों से पर्दा उठाने में देर नहीं है.

“हेलो …. क्रिएटिव डिटेक्टिव एजेंसी” उधर से एक मधुर नारी स्वर सुनाई दिया.

दरवाजे पर आहट सी हुई. ऋचा खड़ी थी. कमल सी आँखों से ढलक कर दो अश्रुकण पलकों में अटक कर रह गए थे.

“अब बस करो अरुण. बहुत हों गया”.

“व्हाट कैन आई डू ……” कान से लगे फॉन पर रटी रटाई आवाज … मैंने रिसीवर जोर से पटक दिया.

“पानी की खोज में मृगमरीचिका के पीछे भागना बंद करो अरुण”.

“मैं …. दरअसल मैं … ऐसा कुछ नहीं है ऋचा …”

“तुम ने शहर की गलियों में मेरा पीछा किया. मेरे पत्रों को खोलकर पढ़ा तुम ने. टूर पर जाने के नाम पर मेरे जासूसी करते रहे. मैंने हमेशा सोचा था कि एक दिन अपने प्यार से तुम्हारा विशवास जीत लूंगी मगर …… तुम मेरे सहेली उर्मिल के पास तक ….. ” उसने हिचकी ली. क्रोध के मारे उसका चेहरा सुर्ख हों रहा था. पलक बंद करते ही उसकी आँखों से आंसुओं का सैलाब सा बह उठता.

“ऋचा .. प्लीज ….” मैंने उसके कंधे पर हाथ रखने का प्रयास किया मगर वो बिफर कर दूर छिटक गई.

“चरित्र की परिभाषा परिधान में ढूंढते हों तुम. भावनाओं का आकलन परिवेश से, जीवनशैली से, शिक्षा से या समाज से किया जा सकता है क्या. नारी मन में झांकने का प्रयास तो किया होता अरुण. सारे सवालों का जवाब तुम्हे यहीं मिल जाता. किसी ने मुझे मजबूर नहीं किया था तुमसे शादी करने को. इतनी स्वतंत्रता थी मुझे मगर ….. मैंने स्वयं चुना था तुम्हे अपने लिए”. उसने फिर एक दर्द भरी हिचकी ली.

“ऋचा एक्चुअली …. आई एम् …. सॉरी…. प्लीज …”

“नारी को उपभोग की वास्तु समझने वाली रूढ़ीवादी सोच से तुम्हारी शिक्षा तुम्हे तनिक भी दूर नहीं कर पाई है. तुम्हारी संकुचित मानसिकता और दकियानूसी सोच ने मेरे स्वाभिमान को, मेरे समर्पित प्रेम को ठेस पहिंचाई है अरुण. मुक्ति चाहते हो न मुझे से. चली जाऊँगी तुम्हारी जिंदगी से”.

“बस करो ऋचा …. बस करो. मैं …. मैं अपने किये पर शर्मिन्दा हूँ”.

“जानना चाहते हों न कि कौन है मेरे जीवन का प्रथम पुरुष. वो तुम हों अरुण. तुम हों. कागज की आड़ी तिरछी लकीरों से निगाह हटाकर कभी मेरे आँखों में झांककर तो देखते. वहां सिर्फ तुम्हारी तस्वीर मिलेगी. अपने बेटे को सीने से लगाकर महसूस तो करते कि वहां तुम्हारे ही दिल का एक टुकड़ा धड़कता है. बे सर पैर की किंवदंतियों में पढ़कर मेरे छोटे से घर संसार को क्यों उजाड़ना चाहते हो तुम”.

” मैं तुम्हारा अपराधी हूँ ऋचा” बस रुंधे गले से इतना ही कह पाया था. न जाने कब ऋचा का सर मेरे सीने से आ लगा था. न जाने कब मेरे आँखों से दो अश्रुकण छिटककर उसके काले बालों के बीच पगडंडी सी चमकती सुर्ख मांग में कहीं खो गए थे. न जाने कब मैंने अपने भीतर के विषवृक्ष को उखाड़कर फेंक दिया था.

रवीन्द्र कान्त त्यागी

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!