रंगों का त्योहार – मंजू ओमर : Moral stories in hindi

होली का त्योहार नजदीक था लेकिन गायत्री जी के मन में कोई उत्साह नहीं था। गायत्री जी सोच रही थी क्या फर्क पड़ता है अब कोई त्यौहार आए या जाए । जैसे सब दिन बीतते हैं वैसे ये भी दिन बीत जायेंगे।अब कैसी होली और कैसी दीवाली।

                   चाय पीते पीते अतीत में खो गई गायत्री जी। कितना इंतजार हुआ करता था पहले त्योहारों का , होली का तो खास तौर से । बच्चे एक हफ्ते पहले से ही पूछने लगते थे कि मम्मी क्या क्या बना रही हो इस बार होली में ।हर रोज पूछते मम्मी गुझिया कब बनाओगी। एक अलग ही उत्साह रहता था। धीरे-धीरे समय बदल गया बच्चे बड़े हो गए । गायत्री जी के एक बेटा और एक बेटी थी। बेटी की शादी हो गई वो अपने पति के साथ लंदन में बस गई थी ।

बहुत कम ही आना होता था।बेटा भी पढ़ाई करके शहर के बाहर नौकरी कर रहा था।अब घर में बस गायत्री जी और उनके पति राघवेन्द्र जी ही रह गए थे । बच्चों के जाने से घर की रौनक कम हो गई थी। फिर भी त्योहार पर बच्चे घर आ जाते थे तो रौनक लौट आती थी ।और फिर बड़े मन से गायत्री जी पकवान बनाती थी।

                     फिर बेटे की शादी हुई गायत्री जी ने सोचा चलो बेटी ससुराल चली गई तो बहू के रूप में दूसरी बेटी मिल गई है। लेकिन बहू को तो घर के काम सुहाते ही न थे ।न ही किसी काम में हाथ बंटाती थी । त्योहारों पर घर में कुछ पकवान बनाने की बात आती तो बहू कटने लगती , कहती इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत है ये सब बनाने की ,और मैं तो ये सब खाती नही मेरा वजन बढ़ जायेगा ।

फिर गायत्री जी मन मसोस कर रह जाती अकेले ही बनाने में जुट जाती। ऐसे ही घर के कुछ रीति-रिवाज हो तो बहू मानने से इंकार कर देती। कहती मैं तो इन चोंचलों में नहीं पड़ती मम्मी जी आप ही करिए जो कुछ करना हो ।इस तरह छोटी छोटी बातों पर बहू तपाक से उल्टा जवाब दे देती ।और फिर इसी तरह गायत्री जी और बहू (दिव्या) के बीच दूरियां बढ़ती गई और मनमुटाव भी ।

                    कुछ समय पहले तक तो बहू बेटा त्योहारों पर घर आ जाते थे लेकिन धीरे-धीरे त्योहारों पर भी बहू बेटों का घर आना जाना कम होने लगा ।जब गायत्री जी कहती आने को तो कोई न कोई बहाना बना कर टाल देते। गायत्री जी कहती बेटा त्योहार पर तो घर आ जाया करो तो बेटा राहुल कहता अब मां दिव्या नहीं आना चाहती तो मैं क्या करूं । गायत्री जी मन मारकर रह जाती।

                   जीवन में अकेलापन छा गया था , त्योहारों का उत्साह तो जैसे खत्म हो गया था। गायत्री जी की भी अब उम्र हो चली थी और राघवेन्द्र जी को शुगर और अन्य बीमारियों ने घेर लिया था ।सब परहेज का खाना खाने लगे थे ।घर में बच्चे आ जाते थे तो इसी बहाने कुछ बन जाता था अब तो सबकुछ खत्म सा ही हो गया था।

                 गायत्री जी सोच रही थी कल होली है क्या करूं बाजार से थोड़ा सा कुछ मीठा मंगाकर भगवान को भोग लगा देती हूं ।अब क्या अकेले और किसके लिए बनाऊं। किसी को कुछ खाना नहीं है राघवेन्द्र जी को भी सब मना किया है डाक्टर ने। चाय का कप रखकर गायत्री जी पूजा करने को घर के बाहर पेड़ से कुछ फूल तोड़ने को गई ।

तभी दरवाजे पर एक आटो आकर रूका गायत्री जी थोड़ा ठिठक कर देखने लगी तो देखा आटों से बेटा राहुल और बहू दिव्या उतरे । मां के पैर छूएं, गायत्री जी की आंखें छलछला आईं आज पूरे पांच सालों के बाद बेटा और बहू होली पर घर आए हैं।अरे आज होली पर कैसे आ गए गायत्री जी ने पूछा ।

राहुल बोला बस मां बहुत मिस कर रहा था होली पर बनने वाला आपके हाथ का पकवान। हां मां दिव्या भी बोल पड़ी वहां फ्लैट में सब लोग त्योहार पर अपने अपने घर चले जाते हैं या वहीं सोसायटी में ही खूब अच्छे से लोग होली मनाते हैं ।आज जब राहुल ने मुझसे पूछा कि होली पर घर चलोगी क्या तो मैं भी अपने आपको रोक नहीं पाई ।माफ़ करना मां जी दिव्या बोली अपने सनातन धर्म में रीति रिवाज त्योहार और परम्पराओं का एक अलग महत्व है जिसे मैं नासमझी में भुलाए बैठी थी ।आज हम सब मिलकर होली मनाएंगे।

                गायत्री जी के खुशी का ठिकाना नहीं था बहुत खुश थी वो और क्या क्या बनाना है होली पर गायत्री जी लिस्ट बनाने लगी । गायत्री जी के बेरंग से पड़े जीवन में अचानक ही रंग भर गए और पूरा माहौल खुशनुमा हो गया और लाल पीले रंगों से सराबोर हो गया।

मंजू ओमर

झांसी उत्तर प्रदेश

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!