जुगनू – अमित किशोर
- Betiyan Team
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- on Feb 07, 2023
आज मेरी जिंदगी का बहुत खास दिन रहा। पता नहीं, कितने लोग यकीन करेंगे ,लेकिन कभी कभी कुछ दिन आते हैं जीवन में ऐसे, जो दिखते तो मामूली से होते हैं, पर उनका असर ताउम्र रहता है। कुछ अधूरे ख्वाबों का पूरा होना, कुछ अधूरी हसरतों का परवान चढ़ना और कुछ वादों का एक लंबे अरसे बाद मंजिल पाना, सब रहा आज के इस खास दिन में……..
मेरे जीवन में अक्सर रिश्तों को कमी ही रही है। आस पास जब भी नजर उठा कर देखा, तो भीड़ की जगह खुद को, भीड़ में अकेला ही पाया है। कारण बहुत सारे हैं। पर जो सबसे महत्वपूर्ण कारण मुझे दिखता है वो है, मेरी साफगोई। मैं लागलपेट में भरोसा नहीं करता और बातों को तोड़ मरोड़ कर नहीं पेश करता। शायद इसी कारण लोग ज्यादा मुझे पसंद नहीं करते थें और करते हैं। मुट्ठीभर दोस्त भी नहीं बचे थे मेरे पास। मैं उस फलसफे पर यकीन करता था जिसमें कहा गया है कि “सच सुनने की तलब थी सबको, हम बोलते गए और साथ छूटता गया”। इस पसंद नापसंद की उहापोह में बस एक इंसान था जो मेरे इस स्वभाव के कारण मुझे बहुत पसंद करता था। बस उस एक इंसान ने मेरे इस फलसफे को पसंद किया और मेरा नाम “जुगनू” रखा। और वो इंसान थी , मेरी मां।
मेरी मां और मेरा रिश्ता, हर उस मां बेटे के जैसा ही था, जैसा सब जगह होता है पर एक खास बात थी हमारे बीच। मेरे लिए मां बस एक रिश्ते का नाम नहीं, यकीन की चाबी थी, मेरी सारी शंकाओं की समाधान थी, मेरे हर मर्ज की दवा थी । बचपन में उसकी सिखाई बातों ने मुझ पर ऐसा असर डाला कि आज भी इतने सालों बाद उसकी बातों और उसकी सीख को आगे लेकर चलने में मुझे बोझ का अनुभव नहीं बल्कि गर्व का अनुभव होता है। हर बेटे के लिए उसकी मां देवी ही होती है। मेरे लिए भी थी पर भक्ति करने में और व्यक्ति को स्वयं में समाहित कर लेने में बहुत फर्क होता है। मैंने मां को समाहित करना चाहा है अपने जीवन में।
बचपन भी कई अनुभवों से गुजरा। पर जिस अनुभव ने आजतक दिल में जगह बनाई वो थी मां वाली ही। मैं बचपन में तकिए पर चढ़कर अक्सर कूदता रहता।कभी कभी सीधे पलंग से नीचे गिर जाता है और मुंह के साथ साथ नाक से भी खून निकलने लगता। मां बड़ी झिड़कती पर गुस्सा नहीं होती। इतना कहती, ” अगली बार जब तुम्हें कूदना हो, तो मेरे सामने कूद लेना।” मैं मां के सामने कूदता और मां मुझे गिरने से बचा लेती। आज भी इतने बरस बाद जब जिंदगी की ठोकरों से दर्द महसूस होता है ना, तो मां की अदृश्य हाथों को महसूस कर लेता हूं। लगता है वो सामने से कह रही हो, ” उठो जुगनू , कुछ नहीं हुआ। और कुछ होगा भी नहीं, क्योंकि मैं अब भी तुम्हारे साथ हूं।” इसी के साथ मैं ठोकर भी खा लेता हूं और संभल भी जाता हूं। खुशी खुशी, मां के प्यार के साथ।
मां अपनी साड़ी के पल्लू में कुछ पैसे हमेशा बांध कर रखा करती। वो जो साड़ी का कोना होता है ना, उसमें और जब भी मुझे किसी चीज की जरूरत होती उसमें से ही निकालकर मेरी जरूरतों को पूरा करती। बाबूजी से छिपाए हुए और बचाए हुए पैसे मुझ पर यूं ही खर्च हो जाते। कहती, ” ये पल्लू नहीं है, ये तो भानुमति का पिटारा है। जब चाहो, इस में से, जो चाहो मिल सकता है ,पर याद रखना इस पिटारे को कभी खाली न होने देना। पता है जुगनू , यही पिटारा एक दिन गुल्लक की शक्ल में हमारे बहुत काम आता है। मुसीबत का साथी और यादों का खजाना वो भी एक साथ।
एक अरसा बीत गया। मैं बचपन की गलियों को छोड़कर जवानी के चौराहे पर खड़ा था। नौकरी करने लगा था पर मां बाबूजी से दूर था। मां का स्वास्थ्य पहले जैसा नहीं रहा। फोन पर उसकी आवाज सुनकर ही पता चल जाता कि मां की तबियत आज ठीक नहीं है फिर भी मां कभी ये नही जताती कि, बेटा सब छोड़ छाड़ कर मेरे पास चले आओ। कहती, ” चिंता न किया करो। तुम्हारे बाबूजी है ना !!! सब देख लेंगे। अब बुढ़ापे में हम ही दोनों तो हैं एक दूसरे के लिए। तुम कब तक नौकरी छोड़कर मेरे पास बैठे रहोगे। हां, विशेष जरूरत हुआ तो तुमको जरूर खबर करेंगे।” मुझे मां की ऐसी बातें चिंता में तो डालती ही थीं पर हौसला भी बहुत देती थी। एक बार मां की तबियत बहुत ज्यादा ही खराब हो गई। बाबूजी ने फोन करके बुलाया। मैं सीधा मां के पास अस्पताल में पहुंचा। मां आईसीयू के बेड पर पड़ी हुई थी और चारों तरफ उस के मशीन लगा हुआ था। ऐसा मालूम हुआ कि मां मशीनों से जंग लड़ रही हो । कहीं ये मशीन ही उसकी जान न ले लें। मां ने मुझे देखा। कुछ कह नहीं पाई। पर मैंने उसके आंखों से गिरते आंसुओं को देख लिया था। मुझे पता था कि वो मुझे देखकर खुश थी पर कह नहीं पा रही थी। और मैं भी अपने आंसू नहीं रोक पा रहा था। मैं मां के आंसू गिन रहा था। आज भी जब उस पल को महसूस करता हूं, रो पड़ता हूं मैं, आंखें नम हो जाती हैं और आज भी अपने आंसुओं को नहीं छिपा पाता मैं।
मां को हमेशा मलाल रहा कि शहर के सबसे बढ़िया स्कूल में वो मुझे नहीं पढ़ा सकी। कुछ रूपये पैसों की कमी थी तो कुछ बाबूजी की अनिच्छा। बाबूजी कहते, ” अरे, पढ़ाई कहीं से भी हो, क्या फरक पड़ता है। विद्यार्थी पढ़ता है। अगर विद्यार्थी अच्छा है, तो सरकारी स्कूल में चटाई पर बैठकर और पढ़कर भी कलेक्टर बन सकता है।” पर मां, मां नहीं मानती थी ये सब। उसे मालूम था कि पढ़ाई के लिए माहौल जरूरी है और सबसे अच्छा माहौल सबसे अच्छे स्कूल में ही मिल सकता है। खैर, मैंने जैसे तैसे पढ़ाई की। बड़ा आदमी भी बन गया। और जब बारी आई मेरे बच्चों के एडमिशन की तो मां की बात को मैंने हमेशा याद रखा। जिस स्कूल में मैं दाखिला नहीं ले पाया, चाहे वजह जो भी रही हो, उसी स्कूल में मैंने अपने दोनो बच्चों का दाखिला करवाया। आज ही मेरे दूसरे बच्चे, मेरे बेटे का एडमिशन हुआ है उसी स्कूल में जिसमें चार साल पहले अपनी बिटिया का करवाया था। आज मां साथ होती तो बहुत खुश होती। मुझ पर फक्र करती कि मैंने उसके सपनों को पूरा किया, उसके अधूरे ख्वाबों को नई उड़ान दी, भले एक पीढ़ी का अंतर हो पर मैंने मां को एक ऊंचाई दी जहां से बैठकर वो हम सबको देख सकती थी।
आज जब इस खास दिन मेरा ध्येय और मां का सपना पूरा हुआ है तो ऐसा लग रहा है कि मां मेरे बगल में बैठी है, और कह रही हो, ” बेटा, तुमने अपना नाम सार्थक कर दिया और मेरी इच्छाओं को पूरा कर दिया। ऐसे ही नहीं मैने तुम्हें जुगनू बुलाया करती हूं। जुगनू को रोशनी से प्रेम होता है और उसकी छोटी सी रोशनी गहरे से गहरे अंधेरे को खत्म कर देती है। तुम ही हो मेरे, जुगनू। “
सुधि पाठकों !!! मेरी इस रचना को आप सभी दिल से महसूस करें। एक एक घटना को स्व जीवन में अनुभव करें। यद्यपि, यह मां बेटे का प्रेम अस्वाभाविक नहीं है,परंतु विशेष अवश्य है…….
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