• infobetiyan@gmail.com
  • +91 8130721728

वंश – अमित किशोर

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया, सुषमा !!! इस उमर में, ये सब बातें…. जानती भी हो, लोग क्या कहेंगे !!! घर, परिवार, समाज, मान, मर्यादा किसी भी चीज का ख़्याल नहीं तुम्हें । और, तुम चाहती हो कि तुम्हारे इस पागलपन में मैं तुम्हारा साथ दूं !!! “

“हां, तो बुरा क्या है इसमें !!! क्या मांग रही हूं, तुमसे महेश ? साथ ही चाहिए न, तुम्हारा। और, ये हम दोनों के लिए ही है।”

शहर के एक संभ्रांत मोहल्ले में बसा एक संभ्रांत परिवार जिसके दो पाटों को सुषमा और महेश चला रहे थें। तीन बेटे थें उनके। तीनों ही बच्चे बड़े हो गए थे। सबसे बड़ा बेटा इंजीनियरिंग के फाइनल इयर में, मंझला फर्स्ट ईयर में और सबसे छोटा बारहवीं में इंजीनियरिंग में जाने की तैयारी में था। 

पैंतालीस साल की होगी सुषमा और पचास के आस पास की उम्र महेश की। पूरी तरह से घरेलू स्त्री थी सुषमा। भरापूरा परिवार था। धन-धान्य, दौलत की कोई कमी नहीं थी। दोनों ही बहुत खुश थे अपनी जिंदगी और अपनी दुनिया में। बच्चों ने तरक्की कर ही ली थी और इन दोनों का बुढ़ापा भी सुरक्षित कर रखा था। पर, एक बात थी, जिसे गाहे बगाहे महेश ने सुषमा के लिए महसूस किया था। हालांकि, इस अंजान बात पर कभी दोनों ने आपस में खुलकर चर्चा कभी की ही नहीं फिर भी ऐसा कुछ तो था जो सुषमा महेश से कह नहीं पा रही थी और महेश देखकर भी समझ नहीं पा रहे थे।

इतनी संपन्नता, शांति और संतुष्टि के बाद भी अक्सर सुषमा बेचैन हो जाया करती। इसकी वजह उसे खुद भी नहीं मालूम थी। जब कभी किसी फैमिली फंक्शन में जाती और वापिस लौटती तो मन में अजीब सी उथल पुथल मची रहती। महेश उससे हमेशा पूछते, ” सुषमा, तुम परेशानी तो बताओ । हो सकता है, मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूं ? पर वह इस बात का कोई जवाब न दे पाती। और अपनी चुप्पी का कारण वह ख़ुद भी नहीं जानती थी। उसके तीनों बेटे बिलकुल महेश पर ही गए थें। उनके रुचि के विषय अपने पिता के विचारों से ज़्यादा मेल खाते। बड़े दोनों बेटे कॉलेज के हॉस्टल में थें और छोटे वाले का ज़्यादातर समय महेश , मोबाइल और दोस्तों के साथ ही बीतता था। सुषमा तो हमेशा से ही चाहती थी कि उसके तीनों बेटे उसके साथ कुछ समय बिताएं। पर उनकी रुचियां कुछ अलग थीं। अब वे तीनों ही बच्चे नहीं रह गए थे। 




जब खालीपन और मन का सूनापन जीवन को अव्यवस्थित कर दे, तो व्यक्ति ऐसा कदम उठाता है जिसमें उसे अपने घर, परिवार, समाज और परंपराओं की रत्ती भर भी चिंता नहीं रहती। उसे बस वो पाना होता है, जो अब तक उसके जीवन में दुष्प्राय रहा है।

एक दिन अचानक से सुषमा ने महेश से कहा, “ अक्सर, तुम पूछते हो ना, कि, मैं क्यों परेशान रहती हूं ? कहीं से घूमकर आती हूं, तो, मुंह क्यों लटका रहता है मेरा ? मेरे लिए एक काम करोगे, महेश ? हमारी खुशी के लिए एक काम कर पाओगे तुम, महेश ?”

“हां-हां क्यों नहीं? तुम कहो तो सही।”

सुषमा बोली, “मैं एक बेटी गोद लेना चाहती हूं।”

महेश को ताज्जुब हुआ और गुस्सा भी आया, पर सुषमा से कुछ भी न कहा। केवल सुषमा ही बोले जा रही थी। “सवाल-जवाब मत करना। शायद, मैं इस बात का तुम्हारे मन मुताबिक़ जवाब न दें पाऊं, पर अगर मेरी बात और भावना तुम नहीं समझोगे, तो और कौन समझेगा ? बताओ।” 

महेश की अब बोलने की बारी थी। कहा, ” ऐसी क्या जरूरत, उमर के इस पड़ाव पर ऐसी बातें शोभा देती हैं, क्या ? और, जरा सोचो, कल को तुमने अपनी जिद पूरी भी कर ली, तो, किसके भरोसे छोड़ जायेंगे हम दोनों उसे ? उमर देखी है हम दोनों की… ये उमर बच्चों को गोद लेने का नहीं, पोते पोतियों को गोद में खेलाने का है। क्या क्या मन में खिचड़ी पकाती रहती हो !!! और, जरा सोचो, इन तीनों को जब तुम्हारा मन का फितूर पता चलेगा तो ये क्या सोचेंगे अपनी मां के बारे में। हद है सुषमा, तुम्हारा भी !!! ” 

उसी शाम सुषमा ने अपने तीनों बच्चों के सामने भी यह प्रस्ताव रखा।किसी ने कोई आपत्ति तो नहीं की, पर सबके मन में एक ही सवाल था “ आखिर क्यों?”

महेश से अब रहा नहीं गया। 

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया, सुषमा !!! इस उमर में, ये सब बातें…. जानती भी हो, लोग क्या कहेंगे !!! घर, परिवार, समाज, मान, मर्यादा किसी भी चीज का ख़्याल नहीं तुम्हें। और, तुम चाहती हो कि तुम्हारे इस पागलपन में मैं तुम्हारा साथ दूं …. नहीं होगा मुझसे !!! “

अगले दो महीने पूरे सन्नाटे भरे रहे। सुषमा और महेश के बीच एक अजीब सी खामोशी थी। पर, महेश ने महसूस किया कि जिस अधूरेपन को वो इतने अर्से से सुषमा में ढूंढ रहा था, शायद सुषमा उसी अधूरेपन की बात कर रही थी। पर समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे सुषमा के लिए उस एक अधूरेपन को खत्म करे। समाज क्या कहेगा, परिवार के लोग क्या कहेंगे !!! 

एक सुबह नाश्ते पर महेश ने सुषमा से कहा, ” कल मैंने छुट्टी ले रखी है, ऑफिस से। सुबह ही तैयार हो जाना। दस बजे हम दोनों चलेंगे अनाथाश्रम। अगले महीने तुम्हारा जन्मदिन भी तो है, ना। सोचता हूं, इस बार तुम्हें “बेटी” गिफ्ट करूं तुम्हें।” सुषमा ने झट से महेश को गले लगा लिया।

अगली सुबह महेश और सुषमा अनाथाश्रम गए और अडॉप्शन की प्रक्रिया में लग गए। महेश की आंखों को देखकर, सुषमा को साफ साफ लग रहा था कि अब महेश को न समाज की फिकर है और न परिवार की। महेश को तो अब फिकर थी तो बस अपनी सुषमा की। सरकारी कागजों को पूरा करने में अगले बीस दिन लग गए। अगले हफ्ते सुषमा का जन्मदिन भी आने वाला था। सात साल की एक बच्ची को लेकर सुषमा और महेश अपने घर आए । ऐसा लगा मानो, घर में घर की रौनक पहली बार आई हो। तीन तीन बेटों की मां के लिए ये पहली बार था जब उसे बेटी की मां बनना नसीब हुआ था। सुषमा तो सातवें आसमान पर थी। महेश की खुशी तो सुषमा की खुशी में ही थी।




सुषमा के जन्मदिन का दिन था और उसी दिन सुषमा और महेश ने बेटी लाने की खुशी में रिसेप्शन पार्टी रखी थी। सभी जानने वालों को न्योता दिया। क्या समाज, क्या घर, क्या परिवार सभी को बुलावा भेजा। ऐसा लग रहा था, दोनों अपने बड़े बेटे की शादी कर रह हों। पर ये खुशियां थी “खुशी” के लिए। यही नाम रखा था दोनों ने अपनी नई संतान के लिए।

जब बर्थडे का केक कटा और उसके बाद सुषमा ने कहना शुरू किया।

 ” मुझे पता है, आज जितने भी लोग हमारी इस खुशी में शामिल हुए हैं, उनके मन में एक सवाल जरूर होगा कि ये “खुशी” क्यों ? मैं आज अपने परिवार और पूरे समाज को इस ‘क्यों’ का जवाब देना चाहती हूं। मेरे ख़याल से हर घर में एक बेटी का होना बहुत ज़रूरी है। बेटी के प्रेम और अपनेपन की आर्द्रता ही घर के सभी लोगों को एक-दूसरे से बांधे रखती है। पहले से ही तीन बेटे हैं मेरे पर मैं अपनी परछाईं इनमें से किसी में नहीं ढूंढ पाती हूं। बेटी शक्ति है, सृजन का स्रोत है। मुझे केवल दुख ही नहीं, तकलीफ भी होती है, जब मैं देखती हूं कि किसी स्त्री ने अपने भ्रूण की हत्या बेटी होने के कारण कर दी है। मैं समझती हूं कि मेरे पति का वंश ज़रूर मेरे ये तीनों बेटे बढ़ाएंगे, पर मेरे ‘मातृत्व’ का वंश तो एक बेटी ही बढ़ा सकती है ।”

सुषमा की बातें जैसे ही खत्म हुई, पहली ताली महेश ने ही बजाई। पूरा हॉल, तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। सुषमा को पता था कि इन तालियों में उसकी बातों की सहमति सबके पास नहीं होगी पर एक सुकून था कि आज उसकी बेचैनी और उदासी का जिसे उपाय करना था, उसने बखूबी कर दिया था। महेश के तरफ देखा उसने तो महेश ने मुस्कुराकर बेटी के बाप होने की रजामंदी दे डाली थी…..

( सुधि पाठकों !!! जीवन में कुछ रिश्ते ईश्वर द्वारा प्रदत्त होते हैं, और, कुछ रिश्ते हम यहां अपनी सोच और कर्तव्य से बनाते हैं। #एक_रिश्ता ऐसा भी होता है, जिसे दिल से महसूस किया जाता है, भले नियति ने इसे हमारे सौभाग्य के साथ न जोड़ा हो, फिर भी एक प्रयास तो किया ही जा सकता है। आपकी बहुमूल्य टिप्पणियां/ प्रतिक्रियाएं बताएंगी कि इस रचना के पीछे की सोच और प्रयास कितना सार्थक है ? धन्यवाद, आप सबका, इस रचना को पढ़ने के लिए …..)

#एक_रिश्ता

स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित

अमित किशोर

धनबाद (झारखंड)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!