दिल का रिश्ता – मीनू जायसवाल

यू तो सभी रिश्ते ईश्वर ने तय करके हमे इस दुनिया मे भेजा है जैसे माता पिता, भाई बहन इसी तरह ओर भी रिश्ते है जो पहले से तय है, बस एक रिश्ता है जो हम बनाते हैं वो है दिल का रिश्ता या यूं कहो कि दोस्ती का रिश्ता …..

19 साल पुरानी बात है जब हम किराए के मकान पर रहा करते थे उस मकान में ज्यादातर सभी किराएदार थे हर एक फ्लोर पर तीन कमरे थे जिसमें से एक कमरे में हम रहते थे और आगे वाले रूम में एक सोहेल नाम का लड़का रहता था वह स्वभाव का बहुत अच्छा था पर हमारी ज्यादा बोलचाल नहीं थी बस अपने काम से काम रखते थे एक दिन सोहेल की मां और बहन आए हुए थे कुछ दिनों के लिए.. वह पटना के रहने वाले थे शायद मेरे ख्याल से वह दिल्ली ही घूमने आए थे क्योंकि वह जब से आए थे तब से ही कहीं ना कहीं घूमने और शॉपिंग करने में लगे हुए थे उन्हें यहां रहते हुए 15 दिन हो चुके थे लेकिन अभी तक हमारी कोई बातचीत नहीं हुई थी उनसे…

अरे मैं यह बताना तो भूल ही गई की उस वक्त मेरे परिवार में कौन-कौन था मैं और मेरे पति और मेरी बेटी जिसके कारण ही तो हमारी बोलचाल शुरू हुई थी । एक दिन मैं अपनी बेटी के साथ बालकनी में खड़ी हुई थी जो कि उनके रूम के आगे ही थी बस तभी से शुरू हुई थी हमारी दुआ सलाम …तभी मुझे उनके बारे में पता चला था कि वह सोहेल की बड़ी बहन थी उनका घर का नाम नन्ही था उनकी शादी हो चुकी थी उनके दो बच्चे भी थे जिन्हें वह घर पर ही छोड़ कर आई थी… 

इसलिए जब भी वह मेरी बेटी को देखती उन्हें अपने बच्चों की याद आने लगती.. बहुत प्यार करने लगी थी वह मेरी बेटी से ..उस वक्त 2 साल की ही तो थी मेरी बेटी वो भी उनके पास खेल कर खुश रहती थी और वह बाबू बाबू कह कर उसे बहुत प्यार करती थी फिर एक दिन उनसे बातों ही बातों में पता चला कि उनके पति दुबई में रहते हैं काम के सिलसिले से… अपने घर बहुत लंबे समय तक नहीं आ पाते थे बस खतों के सहारे ही उनका हालचाल मिलता था क्योंकि उस समय तो मोबाइल जैसी कोई सुविधा भी नहीं थी ..



 उस समय तो लैंडलाइन टेलीफोन की हुआ करते थे जो कि उनके यहां नहीं था..वह बताती थी कि किस तरह उन्हें अपने पति की चिट्ठी का इंतजार रहता था, कभी-कभी तो दो-तीन महीने भी हो जाते थे उनकी कोई खैरियत नहीं मिलती थी और जब उनकी चिट्ठी आती थी  तो वह दो तीन पन्नों की होती थी जिसे पढ़कर ही वह अपने मन को तसल्ली दे दिया करती थी…. नन्ही दीदी से बात करके ऐसा लगता था जैसे कोई बड़ी बहन बात कर रही हो परन्तु पंद्रह दिनों तक की साथ रहा मेरा और उनका ..

उन्हें वापस जाना था, अपने घर पटना। जब वह वापस जा रही थी तब मैंने उन्हें एक गिफ्ट दिया था याद के तौर पर जिससे वह हमारी दोस्ती कभी न भूले…उन्होंने भी जाते वक्त यही कहा था ” हमारी दोस्ती बहुत देर से हुई ..बहुत कम समय मिला हमे साथ बिताने का… काश की पहले दोस्ती हो गई होती।” जाते वक्त उन्होंने मुझसे मेरा परमानेंट ऐड्रेस मांगा था जहां वह मुझे चिट्ठी भेज सकें तब मैंने उन्हें अपनी मम्मी के घर का पता बता दिया था क्योंकि किराए के मकान में तो आज यहां तो कल कहीं….

एक दो महीने बीत चुके थे उनकी कोई खैर खबर नहीं आई थी.. तब मुझे लगा कि भला कौन किसे याद रखता है भूल गई होंगी मुझे.. पर नहीं मैं गलत थी वह नहीं भूली थी मुझे एक दिन उनकी चिट्ठी आई थी मम्मी के घर पर उन्होंने लिखा बहुत याद आती है हमारी… सबकी खैरियत पूछी थी और उन्होंने यह भी लिखा था कि मेरा दिया हुआ गिफ्ट उनके घर में सब को बहुत पसंद आया। उन्होंने मुझसे मेरी बेटी की तस्वीर मांगी थी और बहुत दुआ भी दी थी। उन्होंने अपनी मम्मी के घर का पता भी लिखा था उस खत में ताकि मैं उनको खत् लिख सकू , परंतु कुछ समय का ऐसा फेर आया कि मैं उलझती चली गई अपनी घर गृहस्ती में ..भूल गई थी जवाब देना करीब 2 साल बाद जब मेरे हाथ में उनका खत आया तो मुझे याद आया … फिर मैंने उन्हें खत लिखा उनके बताए हुए पते पर उसका आज तक कोई जवाब नहीं आया पता नहीं वो उन तक पहुंचा भी या नहीं ….काश मैंने उसी वक्त का जवाब दे दिया होता तो आज भी हमारी दोस्ती साथ होती।

 

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