भाव समर्पण का -बालेश्वर गुप्ता । Moral stories in hindi

  जीवन मे इतनी बेबसी तो परमानंद जी ने कभी झेली नही थी।एकलौता युवा बेटा अनुज जिंदगी मौत के  बीच झूल रहा था,और वे लाचार उसे देखकर चुपके से रोने के अलावा कुछ भी नही कर पा रहे थे।कोई राह भी नही सूझ रही थी।

       अनुज की दोनो किडनी खराब हो चली थी।वह बिस्तर पकड़ चुका था।एक से एक स्पेसीलिस्ट डॉक्टर को दिखाया।डॉक्टर टेस्ट कराते, दवाइयां देते फीस लेते काम खत्म,पर अनुज ठीक नही हो पा रहा था।आयुर्वेदिक इलाज भी करा कर देखा पर कुछ नही हुआ।आखिर में तो कह दिया गया कि दोनो किडनी खराब हो गई हैं, एक किडनी प्रत्यारोपित करने से अनुज की जान बच सकती है।

परमानंद जी ने एक क्षण भी सोचने तक मे भी नही लगाया और डॉक्टर से अपनी किडनी अनुज को प्रत्यारोपित करने को बोल दिया।टेस्ट हुए डॉक्टर्स ने उनके किडनी को अस्वीकार कर दिया।परमानंद जी ने कहा भी की बाप की किडनी बेटे से मेल न खाये ऐसे कैसे हो सकता है?डॉक्टर खुद हैरान थे कि अनुज के माँ और पिता दोनो ही किडनी देने को तत्पर थे और दोनो की किडनी अनुज को प्रत्यारोपित नही की जा सकती थी।डॉक्टर का कहना था कि आप दोनो को मधुमेह है,इस कारण अनुज की बॉडी आप दोनो की किडनी स्वीकार नही करेगी।

      परमानंद जी के रिश्तेदार अनुज की बीमारी को सुनकर उसे देखने आ रहे थे,बड़ी हसरतों से परमानंद जी बेटे की बीमारी के बारे में बताते,शायद कोई अपना रिश्तेदार ही किडनी दान कर दे।पर सब सहानुभूति दर्शाते,सांत्वना  देकर चले जाते।किडनी ऐसी चीज तो है नही जिसे बाजार से खरीद लाओ।

     परमानंद जी ने बेटे के लिये, किडनी चाहिये के लिये जिला अस्पताल में अर्जी भी लगा दी।पर उन्होंने नाम तो लिख लिया,साथ ही बता दिया बाबूजी किडनी का खुद इंतजाम कर लो तो बेहतर होगा,क्योकि लाइन लंबी है,मिलने में दो तीन वर्ष लग सकते हैं।सुनकर परमानंद जी धक से रह गये।

        हॉस्पिटल में कुछ लोगो ने उनसे किडनी के इंतजाम कर दिये जाने के संबंध में संपर्क किया,साथ ही यह भी बता दिया कि एक किडनी के लिये परमानंद जी को अग्रिम रूप से 20-25 लाख रुपये तथा किडनी देने वाले का हॉस्पिटल खर्च भी वहन करना होगा।परमानंद जी यह सब सुनकर और मायूस हो गये, उनकी हैसियत इतना पैसा देने की नही थी।

      इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती थी कि बूढ़े माँ बाप के सामने बेटा तड़फते हुए मरे।कलेजा मुँह को आता।करे तो क्या करे?परमानंद जी की नींद उड़ चुकी थी,बस अनहोनी की प्रतिक्षा थी। एक चहकती आवाज गूंजी अरे अनुज कहाँ है रे तू,देख मेरा सरप्राइज, मैं आया हूँ।जानी पहचानी आवाज थी,परमानंद जी बाहर आये तो आगंतुक पवन अनुज के दोस्त को खड़े पाया।अरे पवन कब आया बेटा?बस आज ही आया हूँ अंकल कहते हुए पवन ने परमानंद जी के चरण स्पर्श किये।अंकल अनुज कहाँ है?दिखाई नही दे रहा?

      अंदर चल बेटा तू भी अनुज के दर्शन कर ले,कहते कहते परमानंद जी फूट फूट कर रो पड़े।किसी अनहोनी की आशंका साफ थी,पवन ने उन्हें संभाला और अंदर ले आया।खुद ही उन्हें पानी पिलाया।अनुज अंदर के कमरे में सोया हुआ था।परमानंद जी के सामान्य हो जाने पर पवन ने सब बातों की जानकारी की।अंकल अब आपको चिन्ता करने की कोई जरूरत नही है,मैं हूँ ना।सब देख लूंगा।आश्चर्य और अविश्वास के साथ परमानंद जी पवन के चेहरे को देख रहे थे।

       अनुज का बचपन का जिगरी दोस्त आज ही अमेरिका से दो माह के लिये आया था।सरप्राइज देने के कारण उसने अनुज को अपने आने का बताया ही नही था।जब पवन को अनुज के बारे में पता चला तो उसकी आँखों के सामने अनुज के साथ बिताया बचपन और जवानी सब चलचित्र की भाँति तैर गये।उसे लगा अनुज अब भी उसे पुकार रहा है।दो वर्ष के अंतराल के बाद भी पवन,अनुज के प्रति एक कशिश सी अनुभव कर रहा था।

     अगले दिन ही पवन ने अनुज को नगर के बड़े हॉस्पिटल में दाखिल करा दिया।कहना न होगा पवन ने ही अपनी किडनी अनुज को प्रत्यारोपित करा दी।आठ दस दिन बाद अनुज और पवन एक बार फिर मिले, अबकि बार उनके बीच का रिश्ता मात्र दोस्ती का ही नही रह गया था,रिश्ता था सच्ची दोस्ती का मानवता का,रिश्ता था समर्पण भाव का।

बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

मौलिक एवं अप्रकाशित।

#दिल का रिश्ता

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