चुराना समय का – बालेश्वर गुप्ता: Moral Stories in Hindi

 निशिकांत,क्या यार इस उम्र में भी बच्चो के साथ कहीं भी घूमने चले जाते हो?क्या ये अच्छा लगता है?

      क्या करे सुशांत, बेटा जिद करता है तो चला जाता हूँ।मैं अपनी तरफ से तो कहता नही।

    पर तुम मना तो कर सकते हो।जवान बच्चे हैं, नैनीताल जा रहे हैं,उनके साथ तुम भी लटक लिये।भई साफ बात है मुझे तो अच्छा नही लगता।अब हम लोगो की उम्र 70 पार हो रही है।

       निशिकांत जी 72 वर्ष के हो चुके हैं, पत्नी ने इस जीवनयात्रा में उनका साथ दो वर्ष पूर्व ही छोड़ दिया था।अकेले निशिकांत चुपचाप अपने कमरे में या फिर बॉलकोनी में बैठे रहते।बेटा और बहू दोनो ही नौकरी करते थे,सो सुबह सुबह उठते जल्दी जल्दी तैयार होते,इस बीच खाना बनाने वाली मेड उनके लंच बॉक्स तैयार कर देती,निशिकांत जी का भी दोपहर का खाना तभी तैयार हो जाता।उसके बाद बेटा बहू तो अपने अपने ऑफिस चले जाते,तब मेड उनकी चाय बना कर दे देती,साथ मे बहू द्वारा बताया हुआ नाश्ता भी।दोपहर को निशिकांत जी अपना खाना खुद गरम करके खा लेते।यही दिनचर्या थी।पूरा दिन या तो टीवी देखना या फिर मोबाइल पर खेलना,यही समय व्यतीत करने का उपाय उनके पास था।सरोज जीवित थी तो दोनो बतियाते बतियाते समय गुजार लेते,पर सरोज स्वार्थी निकली और ऐसे ही उनकी जिंदगी से निकल गयी उन्हें तन्हा छोड़कर।

      निशिकांत जी मनोविज्ञान के प्रोफेसर रहे थे,अच्छा खासा वेतन था और लिखी पुस्तको से रॉयल्टी मिलती अलग से।एक ही बेटा था राहुल,जो होनहार था।आई टी क्षेत्र में वह सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गया और उसी के साथ जॉब करने वाली कामिनी से उसका प्रेम हो गया तो निशिकांत जी और सरोज ने दोनो की शादी स्वेच्छा से करा दी।कामिनी अच्छी बहू निकली,वह निशिकांत और सरोज जी दोनो का सम्मान करती थी,इससे दोनो बड़े ही संतुष्ट थे।

      जीवन यापन के लिये नौकरी भी जरूरी थी,सो राहुल और कामिनी अपने जॉब पर जाते ही थे।दोनो जॉब करते थे शायद इसीलिए अभी बच्चा हो इसकी योजना नही बना पा रहे थे।सरोज जी ने तो कहा भी बेटा अभी तो हम हैं सो अपने मुन्ना को पाल लेंगे,हमारा भी मन लगा रहेगा और तुम्हारे जॉब में भी कोई विघ्न नही पड़ेगा।बस हंस कर टाल जाते,पता नही मन मे क्या लिये बैठे थे।

     सरोज के जाने के बाद निशिकांत जी तो कुछ कहने की स्थिति में ही नही रह गये थे।जीवन भर पढ़ाई लिखाई ही तो की थी,इस कारण अब उनका रुझान पढ़ने या लिखने की ओर बिल्कुल भी नही रह गया था।बस इच्छा रहती कि राहुल कुछ समय तो उसके पास बैठे,पर उसके पास समय ही नही होता था।निशिकांत जी बूढ़े अवश्य हो गये थे, पर मनोविज्ञान के प्रोफेसर रहे थे,इसलिये घर का मनोविज्ञान भी समझते थे।बुढ़ापे में सम्मान के साथ रहने की कुंजी है, चुप रहना, नयी पीढ़ी की कार्य पद्धति में दखलंदाजी न करना।निशिकांत जी ने यह गुर अपनाया हुआ था,इस कारण बेटा बहू का उन्हें खूब सम्मान मिलता था,पर समय वे भी कहाँ से लाये?

     बेटा बहू को जब कुछ छुट्टियां मिलती तो वे कही का भी घूमने फिरने का कार्यक्रम बना लेते,और अपने पिता से साथ चलने का आग्रह करते।निशिकांत जी बच्चो के आग्रह को टाल नही पाते और बच्चो के साथ चले जाते।

     अबकी बार राहुल कामिनी ने नैनीताल घूमने का एक सप्ताह का प्रोग्राम बनाया,सदैव की भांति निशिकांत से भी चलने की तैयारी करने को बोल दिया।निशिकांत जी भी एक सप्ताह नैनीताल घूम आये।वहां से आकर वे खूब खुश नजर आ रहे थे,हर मिलने वाले को नैनीताल के संस्मरण सुना रहे थे।इसी टूर पर उनके मित्र सुशांत निशिकांत जी पर कटाक्ष कर रहे थे।

     सुशांत जी अपनी जगह बिल्कुल सही थे,भला जवान बच्चो के साथ हड्डी में कवाब की भांति उनका जाना कोई उचित थोड़े ही था,वे कठोरता से मना कर सकते थे,पर वे सुशांत को कैसे बताते कि इन दिनों का वे बेसब्री से इंतजार करते है,क्योकि बुढ़ापे में बच्चो का भरपूर सानिध्य  तो वही मिल पाता है,जिस सानिध्य को वे अपने घर मे तरस जाते हैं।

     सुशांत की बाते सुनकर निशिकांत जी कोई उत्तर नही देते बस अंदर ही अंदर बुदबुदाते हैं मित्र मैं बच्चो के साथ जाकर उनका समय चुराता हूँ।नही तो क्या करे इस बुढ़ापे में बच्चो के बिना?

बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

मौलिक एवम अप्रकाशित।

#बुढ़ापा 

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