
बन्धन – नीलम सौरभ
- बेटियाँ टीम
- 1
- on Mar 05, 2023
सम्मानित अतिथियों के लिए आरक्षित सबसे सामने की पंक्ति में बैठे मैं और बाबूजी आज फूले नहीं समा रहे हैं। आखिर हमारी लीला को आज पुरस्कार जो मिलने वाला है।
नवोदित उद्यमियों को प्रोत्साहित करने के लिए हमारे जिले के माननीय जिलाधीश श्री अवनीश शरण ने पिछले साल ही यह योजना शुरू की थी, जिसमें सम्मान-पत्र के साथ पुरस्कार के रूप में दस लाख की नकद राशि भी दी जाती है जो प्रथम, द्वितीय व तृतीय स्थान के विजेताओं हेतु पाँच, तीन व दो लाख के रूप में वितरित की जाती है। हमें गर्व है कि इस साल विजेताओं में प्रथम स्थान पर हमारी लीला की ‘अम्माँ की थाली’ का नाम है।
भारी भीड़ का कोलाहल एकाएक तीव्र हो उठा तो चौंक कर देख रहा हूँ। ओह! कलेक्टर महोदय पधार चुके हैं। कार्यक्रम संचालक द्वारा मंच पर उनका स्वागत करते हुए पुष्प-माल से अभिनन्दन करने के पश्चात अब सम्मान व पुरस्कार समारोह प्रारम्भ हो चुका है। जब तक हमारी लीला के पुरस्कार ग्रहण की बारी आती है, तब तक मैं आपको अतीत में कुछ वर्ष पीछे ले चलता हूँ जहाँ इस विशेष उपलब्धि की नींव पड़ी थी। हमें जीवन भर के लिए एक प्यारा सा रिश्ता मिल गया था।
ललित और लीला दोनों एक बहुत पिछड़े पहाड़ी गाँव में पले-बढ़े थे जो प्रेमविवाह के बाद वहाँ से भाग कर हमारे इस बड़े शहर में आ गये थे। भागने का कारण उनके पिछड़े गाँव में खाप पंचायतों के कानून का चलना था, जिनके हिसाब से अंतरजातीय विवाह एक बड़ा व दण्डनीय अपराध है। ऐसा कोई काण्ड करने वाले लड़के व लड़की के परिवारों को एक बड़ी राशि अर्थदण्ड यानी कि जुर्माने के रूप में भरनी पड़ती है साथ ही अभिभावकों को अपने उन बच्चों से रिश्ता हमेशा के लिए तोड़ना पड़ता है, अन्यथा गाँव व समाज में उनका हुक्का-पानी बन्द कर दिया जाता है, अर्थात् पूर्णतः सामाजिक बहिष्कार जिसके कारण एक प्रकार से वे अछूत हो जाते हैं सबके लिए।
यह नवविवाहित जोड़ा सात-आठ साल पहले जब इधर-उधर पूछते हुए काम की तलाश में मेरे पास आया था तो उनकी रामकहानी सुन कर पहले तो मुझे विश्वास नहीं हुआ था कि आज के समय में जबकि शहरों में ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ जैसे कॉन्सेप्ट चल पड़े हैं, कहीं पर अब भी ऐसे बर्बर कानून चलते हैं।
सकुचाते हुए लीला बता रही थी तब,
“हमारे गाँव में बड़ी जातियों में तो ‘ऑनर किलिंग’ भी सुनने में आता है साहब जी और पुलिस या कानून तक बात भी नहीं पहुँच पाती।”
उसकी बोली से मुझे लगा था वह कुछ पढ़ी-लिखी अवश्य होगी। पूछने पर उसने गाँव से लगे कस्बे से इंटर तक पढ़ी होने की बात कही, जबकि ललित मैट्रिक की परीक्षा में फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ उसी कस्बे में ड्रायविंग सीखने लगा था।
चूँकि ललित अच्छे से गाड़ी चलाना जानता था और उसके पास लाइसेंस भी था अतः उसे हमने ड्राइवर रख लिया, साथ ही उसकी और लीला की चिरौरी पर लीला को घर के कामों के लिए भी। घर के पिछले हिस्से में बने सर्वेन्ट क्वार्टर में दोनों को रहने के लिए जगह भी हमने दे दी थी।
इससे पहले घर के काम चन्दू यानी कि चन्दन किया करता था। घर में मैं और मेरे वृद्ध पिता ही थे, चूँकि मैं अकेली सन्तान हूँ तथा माँ कई साल पहले हमें छोड़ कर चल बसी थीं, फिर मैंने शादी भी नहीं की है। क्यों? वह भी एक लम्बी कहानी है, वह फिर कभी विस्तार से। अभी संक्षेप में बस इतना ही कि नलिनी, मेरी बचपन की सखी जो युवावस्था आते तक मेरी जिंदगी बन चुकी थी, सही समय पर अपने परिवार व समाज के विरुद्ध मेरे साथ खड़ी न रह सकी और अपने माँ-पिता की पसन्द और मर्जी से उसने शादी कर ली थी। मैं उसके लिए किसी भी परेशानी का सबब नहीं बनना चाहता था तो मन की पीर मन में ही घोंट कर उसे शुभकामनाओं के साथ अपने संसार से विदा कर दिया था। इस तरह मेरे जीवन के एक अहम प्रकरण का चुपचाप पटाक्षेप हो गया था।
मैं उसकी जगह अपने जीवन में किसी को दे नहीं पाऊँगा, यह मुझे अच्छे से पता था अतः मैंने किसी की भी बेटी का जीवन न बिगाड़ते हुए कभी ब्याह न करने का निश्चय कर लिया था। अम्माँ-बाबूजी के लाख बोलने, समझाने, दबाव डालने के बाद भी इस मामले में मैंने चुप्पी साधे रखी। फिर जब अम्माँ भी चली गयीं, सब और बुरी तरह से पीछे पड़ गये थे पर मैं अपने निश्चय पर अड़ा रहा था।
एक समय के बाद थक कर बाबूजी और रिश्तेदारों ने बोलना छोड़ दिया था।
अब तो चन्दू ही पूरा घर सँभालता था, खाना भी बना कर खिलाया करता था। बाहर का भोजन यानी कि होटल आदि में खाना अब लम्बे समय से हमने छोड़ दिया था क्योंकि उससे दोनों पिता-पुत्र की तबीयत खराब हो जाती थी। चन्दू अच्छा-भला खाना बना लेता था और हमें खिलाने के बाद खुद भी हमारे पास ही खाता था। अपने घर के गरीबी-गुजारा वाले भोजन की तुलना में हमारे घर का बढ़िया खाना आखिर उसे भाता क्यों नहीं। हमें भी इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी। इसी बहाने वह अच्छा और साफ-सुथरा खाना तो बनाएगा, हमने सोच लिया था।
हाँ तो मैं बता रहा था कि जब लीला खुद को भी नौकरी में रख लेने को कहने लगी थी तो एकबारगी मुझे बड़ा अटपटा लगा था। जिस घर में किसी स्त्री का रहना तो क्या आना-जाना भी न हो, जहाँ अधिकतर समय तीन पुरुष ही अपने मस्तमौला अंदाज़ में रहते हों, वहाँ एक कमउम्र की नयी-नवेली ब्याहता को रखना मुझे सही नहीं लग रहा था लेकिन जैसे ही यह बात मेरे बाबूजी के कानों में पड़ी, उन्होंने बिना मुझसे कुछ कहे-सुने सीधे लीला से अगले दिन सुबह से काम पर आ जाने को कह दिया। वह सन्तुष्ट होकर अपने क्वार्टर की ओर चली गयी थी।
लीला के जाने के बाद जब मैं बाबूजी के सामने अपना प्रतिरोध जता रहा था कि क्या जरूरत थी, उसे काम में रखने की, चन्दन भी मेरे समर्थन में खड़ा था।
मेरे अनुभवी बाबूजी ने उत्तर दिया था,
“चन्दू अब से फैक्ट्री के काम देखा करेगा क्योंकि अब इसकी ब्याह की उमर हो गयी है, इसके लिए कोई लायक लड़की देखेंगे।…यहाँ रहते कहीं तुम्हारा रंग चढ़ गया तो ये भी ऐसे ही कँवारा रह जायेगा।
चन्दन जो घर से हटाये जाने की बात पर दुःखी था, ब्याह की बात पर एकदम से शरमा कर मुस्कुरा उठा था। अगले दिन से वह हमारी लोहे के कृषि उपकरण बनाने वाली फैक्ट्री में सारे दिन के छोटे-मोटे दौड़भाग वाले काम देखने लगा।
लीला अगली सुबह ललित के साथ ही काम पर आ गयी। ललित जहाँ हम पिता-पुत्र की दोनों कारों को अन्दर-बाहर से धो-पोंछ कर साफ करने में जुट गया था, लीला घर के भीतर कामों की शुरुआत करने जा रही थी। बाबूजी व मुझे जैसे ही ध्यान आया कि चन्दन तो ट्रेंड हो चुका था तो उसे कुछ बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी कि क्या कैसे क्या करना है लेकिन लीला को तो अभी शुरू में समझाना पड़ेगा न, अतः हम दोनों घर की रसोई में पहुँचे। देखा लीला अपना सर पकड़े परेशान-सी खड़ी थी।
यूँ तो सारा घर ही वर्षों से स्त्री की अनुपस्थिति के कारण उथल-पुथल पड़ा हुआ था, लेकिन रसोई की हालत सबसे खराब थी। कहाँ तो मैं और बाबूजी उसे बोलने गये थे कि किसी चीज की जरूरत हो तो ललित से ही बोल कर मँगवा लेना, अब रसोई का बदला हुआ रूप और लीला की मुखमुद्रा देख कर अवाक् रह गये थे। दोनों ही अपने कल के रूप से कतई मेल नहीं खा रहे थे।
पूरी रसोई साफ-सुथरी होकर एकदम करीने से जमी हुई थी। देख कर लग ही नहीं रहा था कि यह वही जगह है और लीला जो कल सौम्यता और विनम्रता की मूर्ति लग रही थी, अभी रणचंडी का अवतार बनी हुई थी।
“बाऊजी और बब्बाजी, आप लोग उस पहले वाले छोकरे को कुछ बोलते नहीं थे क्या?…पूरी रंधनी उसने कूड़े का ढेर बना रखी है। सारे डब्बे गन्दे, सारे बर्तनों में कालिख जमी…दाल, अनाज और मसालों में कीड़े!…मकड़ियों और कॉकरोचों को पाल के रखा है क्या आप लोगों ने? पक्का रात के अँधेरे में यहाँ भूत-प्रेत आ जमते होंगे मीटिंग करने को!”
कल तक जो लीला मुझे ‘साहब जी’ और बाबूजी को ‘बड़े साहब जी’ कह रही थी, आज उसने अपने से सम्बोधन बदल कर मानों हमें एक बन्धन में बाँध लिया था। बड़ा विचित्र-सा किन्तु सुखद अनुभव था यह।
मेरे खुर्राट बाबूजी जिनके सामने मैं अपनी आधी उम्र पार कर चुकने के बाद भी ऊँची आवाज में बोल नहीं पाता था, फैक्ट्री के कर्मचारी और लेबर भी जिनके गुस्से से खौफ खाते थे, वे उस समय भीगी बिल्ली बन लीला की उस झिड़की को चुपचाप सुन रहे थे। तत्क्षण मुझे अपनी स्वर्गवासी अम्माँ याद आ गयी थीं। वे भी नियम-कायदों की पक्की होने के साथ बेहद सफाई पसन्द थीं। तेईस साल से ऊपर हो चुके उन्हें गये किन्तु मुझे अभी तक स्मरण है कि बाबूजी घर के बाहर चाहे जितने भी शेर हों, घर में अम्माँ की ही चलती थी और उनके रहते मजाल है जो कोई थोड़ी सी भी अव्यवस्था फैला सके। उनके जाने के बाद जब कोई डाँटने वाला न रहा, हम लोग सभी चीजों के प्रति उदासीन होते चले गये थे। चन्दू के आने से पहले तक खाना एक टिफिन सेंटर में खाते रहे थे।
फिर धीरे-धीरे कब 20-22 साल की लीला हम दोनों पिता-पुत्र की माँ बन कर हमें छोटे बच्चों की तरह सँभालने लगी, पता ही नहीं चला था। उसकी नाराजगी और डाँट-फटकार में भी हमें बेहद अपनापन महसूस होता।
थोड़े दिनों बाद ललित हमसे अनुमति लेकर हमारे एक बेहद रईस पड़ोसी मधुरम अय्यर और उनके भाई कृष्णन अय्यर की गाड़ियाँ भी चलाने लगा था।
3-4 साल बीतते न बीतते लीला की गोद में दो प्यारी-प्यारी बेटियाँ आ गयी थीं और वह मातृत्व की गरिमा से परिपूर्ण हम दोनों पिता-पुत्र के प्रति और अधिक ममतामयी हो गयी थी। समय से नाश्ता-खाना, दवाइयाँ या फिर व्यायाम आदि में कोताही करने पर पहले तो जी-भर फटकारती, फिर गुस्से से अबोला कर लेती। उसकी इस एक बात से हम बहुत डरते थे, क्योंकि उसके न बोलने से पूरी दुनिया उदास और सूनी लगने लगती थी।
और फिर एक दिन वह हुआ जो नहीं होना चाहिए था। लीला की खुशनुमा जिंदगी में गम के काले बादल ऐसे चुपचाप उमड़ आये कि हम में से कोई कुछ नहीं कर सका।
ललित को अय्यर परिवार में नयी-नयी काम पर लगी एक चंचल तितली रीमा पसन्द आ गयी थी जिसके भड़काने पर वह अपने घरवालों से रिश्ते टूटने का कारण अब लीला को मानने लगा था। फिर उसे एक के बाद एक, दो-दो बेटियाँ पैदा करने का दोषी करार करके उससे ख़ूब झगड़ने लगा था।
कुछ समय तक तो लीला ने किसी को कुछ नहीं बताया, अपने स्तर पर समस्या का समाधान करने की सोचती रही मगर जब पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा, उसने बाबूजी के सामने रोते हुए सब कुछ कह दिया था।
बाबूजी ने मुझसे चर्चा की और अगले दिन जब मैंने ललित को फटकारते हुए कायदे से रहने और बीवी-बच्चों का ध्यान ठीक से रखने को कहा, वह सर झुकाये चुपचाप सुनता रहा। मुझे लगा कि इसे अपनी गलती का अंदाज़ा हो गया है, अब यह सुधर जायेगा। लेकिन नहीं, अगले दिन ललित हमें फैक्ट्री छोड़ कर आया और शाम को लेने नहीं गया। हम टैक्सी करके घर आये तो पता चला, ललित तो वापस लौटा ही नहीं।
बहुत पता करने पर भी उसका कोई पता-ठिकाना नहीं मिला। तीसरे-चौथे दिन जब मधुरम अय्यर हमसे ललित के बारे में पूछने आये और उन्होंने रीमा के भी तीन-चार दिनों से काम पर न आने की सूचना दी, कहानी बहुत हद तक साफ हो गयी थी। ये दोनों प्रेम के पंछी अलग नया घोंसला बनाने को फुर्र हो गये थे।
लीला और बच्चियों का रोना देख कर हमने अपने सूत्रों द्वारा उनके गाँव में भी ललित के बारे में खोजबीन करवायी। वह वहाँ भी नहीं पहुँचा था।
फिर एक दिन बाबूजी ने लीला से पूछा था, “अकेले छोटी-छोटी बच्चियों के साथ इस बड़े शहर में कैसे जीवन बिताएगी बेटी?…तेरे गाँव-घर में बात करें क्या कि तुझे वापस बुला लें?”
लीला दृढ़ता से बोली थी, “नहीं बब्बाजी, मेरे घरवालों ने तो मेरा पिण्डदान तक कर दिया होगा, हमारे गाँव-समाज की रीत के हिसाब से। अब उनके लिए मैं मर चुकी हूँ। हमारे उधर ऐसा ही होता है। अगर वापस गयी तो वे लोग मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। मैं यहीं रहूँगी। इन लइकियों का बाप इनको छोड़, पीठ दिखा कर भाग गया है तो क्या हुआ, मैं..इनकी माँ तो सलामत हूँ न! इन्हें भरसक पालूँगी…और..और जिस दिन लगेगा, नहीं पाल सकती…बच्चियों के साथ जहर खा लूँगी।”
आखिरी शब्द बोलते हुए लीला सुबक पड़ी थी।
मेरे बाबूजी ने तुरन्त उसे डाँटते हुए कहा था, “ख़बरदार जो ऐसी मनहूस बात मुँह से निकाली तो! अरे हम मर गये हैं क्या..जो तू जहर खाएगी, मासूम बच्चियों को जहर खिलाएगी? वो तो बिटिया, मैं इसलिए पूछ रहा था कि अभी तेरी उम्र ही क्या हुई है, तेरे कितने अरमान होंगे, कितने सपने होंगे। ललित के यूँ चले जाने के बाद क्या ऐसे ही…!”
लीला ने तुरन्त बाबूजी का हाथ पकड़ अपने सर पर रख उनकी बात काट दी थी, “मेरे हर सपने अब आप लोगों से हैं बब्बाजी, आप ही हम अभागिनों का सहारा हैं। …बस मुझे डर लग रहा है कि कहीं मैं और मेरी बच्चियाँ आप लोगों पर बोझ…!”
“अरे पगली, तू तो पिछले किसी जनम की हमारी माँ है रे!..अब इस जीवन में तुम लोगों के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं हम!” बाबूजी उसे और बच्चियों को अंक में समेट खुद भी रो पड़े थे।
अपने मन को मजबूत करके थोड़े दिनों में लीला फिर से सामान्य हो चली थी या फिर नन्हीं बेटियों और हम लोगों को ख़ुश देखने की खातिर खुद भी ख़ुश रहने का दिखावा करने लगी थी। जीवन एक बार फिर से निश्चित ढर्रे पर चल पड़ा था।
कुछ समय बाद एक दिन लीला मुझसे कहने लगी थी, “बाऊजी, मैं कुछ करना चाहती हूँ…मतलब कुछ काम-धंधा, रोजगार ..कि समय भी कट जाये और बेटियों के भविष्य के लिए भी कुछ…!”
“इतना काम तो करती ही हो, अपने घर का, बच्चियों का…हमारा इतना बड़ा घर सँभालती हो..थक नहीं जाती? और बच्चियों के भविष्य की चिन्ता क्यों करती हो? हमने उनके लिए बड़ी रकम एफडी कर रखी है, उनकी ऊँचे दर्जे की पढ़ाई या फिर उनके शादी-ब्याह के काम में कोई आर्थिक रुकावट नहीं आयेगी कभी!”
“बाऊजी, आप लोग फैक्ट्री चले जाते हैं..बच्चियाँ स्कूल। …फिर पूरा घर मुझे काटने दौड़ता है। ‘क्या करूँ, क्या न करूँ’ की उधेड़-बुन में सर दुखने लगता है। फालतू की पुरानी बातें दिमाग में आती रहती हैं, कई बार लगता है कि काश बीते समय को वापस मोड़ पाती तो जो गलती की थी ललित के भरोसे घर से पाँव बाहर निकालने की…उसे सुधार लेती..!”
लीला की आवाज़ भर्रा गयी थी लेकिन वह रुकी नहीं, बोलती चली गयी।
“…घर से बेटी भाग गयी है, आन जात के छोरे के संग, पता चलते ही..मेरी माई बहुत रोयी होगी बाऊजी। मेरा बापू भी दिल ही दिल में रोया होगा। उसने मार-मार के माँ के पीठ की चमड़ी उधेड़ दी होगी दुःख, बेइज्जती और गुस्से के मारे, कि बेटी को सँभाल कर रख नहीं सकी। …और कितनी भारी विडम्बना कि जिसके लिए इतना सब कुछ मोल लिया…अपने और अपने परिवार के माथे पर कलंक लगाया…वह ऐसा नपुंसक निकला, बीच मझधार में दो-दो नादान बच्चियों के साथ अकेली छोड़ गया।”
उसकी आवाज़ सिसकियों में बदल गयी थी और मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे उसे सांत्वना दूँ, तभी मेरे बाबूजी सामने आ खड़े हुए थे। वे हमारी सारी बातें सुन चुके थे। आगे बढ़ कर वे पिछले आँगन में बिछी चौकी पर बैठ गये थे। फिर उन्होंने लीला और मुझे अपने सामने बैठने का इशारा किया और बोलने लगे।
“मैंने इंजीनियर से बात कर ली है और एक कॉन्ट्रैक्टर से भी…नक्शा पास हो चुका है और पूरा ख़ाका भी तैयार है। कल से फैक्ट्री के बगल में खाली पड़े अपने प्लॉट पर काम शुरू हो जायेगा। तुम लोगों को सरप्राइज़ देना चाहता था लेकिन…चलो छोड़ो!”
“उस प्लॉट पर क्या बनने वाला है बब्बा जी!” भोली लीला सब कुछ भूल कर आतुरता से पूछ रही थी।
“उस पर बनेगी लीला की रसोई, यानी कि एक बढ़िया कैन्टीन!..अभी तक खाली हम लोगों को स्नेह से खिलाती रही है, अब तुझे बहुतों की अम्माँ बनना है लीला।”
“मुझे तो अभी भी कुछ समझ में नहीं आ रहा है…कैंटीन?..मैं कैसे..?” बेचारी मेरे बाबूजी के इस सरप्राइज़ से हतप्रभ रह गयी थी।
“मैं समझाता हूँ न मेरी माँ तुझे! …देख, हमारी फैक्ट्री में काम करने वाले बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो बाहर से यहाँ मेहनत करने आये हैं, परिवार साथ नहीं है और या तो ख़ुद किसी तरह से खाना बना कर खाते हैं या फिर होटल या ढाबों में…और इन सबको अपने घर के, अपनी माँ के हाथ के खाने की बहुत याद सताती है। इन सबके लिए हम खोल रहे हैं एक बड़ी सी रसोई यानी कि कैंटीन…जिसकी मालकिन होगी हमारी लीला। सारी व्यवस्था हो जायेगी, बस तुमको ख़ूब मेहनत करनी है और घबरा कर पीठ नहीं दिखाना है!”
बाबूजी जब उसके सर पर हाथ रख कर बोल रहे थे, मैं देख रहा था, लीला के चेहरे पर एक चमक सी आ गयी थी। आत्मविश्वास की, नयी पहल की, अँधेरों से आगे निकलने के लिए पहले कदम की।
“और यह देखो, ‘घर जैसा भोजन, माँ के हाथ का खाना यहाँ मिलता है’, यह साइनबोर्ड तो बन कर तैयार भी हो चुका है।” बाबूजी ने वहीं एक कोने में रखे एक बोर्ड पर से जब कपड़ा उठाते हुए कहा, देख कर लीला के साथ भावनाओं के ज्वार से मेरी भी आँखें नम हो आयी थीं।
“बब्बा जी’ इस बोर्ड पर सबसे ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘अम्माँ की थाली’ भी लिखवा दीजिएगा न!” जैसे एक साथ सैकड़ों गुलाब खिल उठे थे और चटकीली धूप चारों ओर फैल गयी थी एकाएक। लीला की उदास आँखें नयी आशाओं से रौशन हो चली थीं।
और वह दिन है और आज का दिन, लीला ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने परिश्रम, लगन और मन में भरी हर क्षुधित के लिए अथाह ममता के बल पर उसने उस छोटे से कदम को बहुत बड़े उपक्रम में बदल डाला है। आज हमारे शहर में बहुत बड़ा नाम है ‘अम्माँ की थाली’ यानी कि एक बड़ा रेस्टोरेंट जिसकी मालकिन है हमारी लीला, जो माँ के हाथ का खाना ढूँढ़ने वालों को उचित मूल्य पर, सही समय पर, साफ-सुथरा, स्वास्थयकर और स्वादिष्ट भोजन तो परोसती ही है, साथ ही उसने पचासों लोगों को आजीविका का साधन भी दे दिया है। बेसहारा लेकिन मेहनती लोगों को चुन-चुन कर, सही प्रशिक्षण देकर उसने रेस्टोरेंट में असली हीरों की फौज खड़ी कर ली है। रसोईये, बैरे और सहायकों के साथ कई डिलीवरी-बॉयज़ को भी उसने नौकरी उपलब्ध करवा दी है जो इस बड़े शहर में गरीब घरों से ऊँची शिक्षा के उद्देश्य से आये हैं। निःशुल्क भोजन के साथ वेतन की व्यवस्था है उन सबके लिए।
और हाँ, इसी बीच एक बार बीते दिनों का एक स्याह साया फिर से लौट कर आया था हमारे पास। बिखरे बाल, बढ़ी दाढ़ी और गन्दे कपड़ों में ललित वापस आया था। दर-ब-दर हो चुका था फिर से। पछताता हुआ सर झुकाये अपनी आपबीती बता रहा था। उस तितली रीमा को जब एक अमीर प्रेमी मिल गया था, उसने ललित जैसी कमजोर पार्टी को लात मार दी थी और उसे वहाँ की नौकरी से भी निकलवा दिया था।
ललित ने लाख हाथ-पैर जोड़े, कितनी ही दुहाइयाँ दीं, दोबारा गलती न करने की कसमें खायीं, मगर लीला नहीं पिघली तो नहीं पिघली। उसने साफ कह दिया था तब,
“जो अग्नि को साक्षी मान विवाह बन्धन में बंधने के बाद, दो-दो बेटियों का पिता बनने के बाद भी मझधार में अकेली छोड़ कर भाग सकता है, उसका भरोसा इस जन्म में तो नहीं कर सकती। इतने बड़े धोखे के लिए पुलिस केस केवल इसलिए नहीं कर रही कि तुम्हारे इस ओछेपन ने ही मुझसे मेरी क्षमताओं की पहचान करवायी है।…अगर तुम हाथ छुड़ा कर भागे न होते तो दुनिया कहाँ जान पाती इस गाँव की गँवारन को। आज जो लैपटॉप लेकर सैकड़ों हाथों से इतना बड़ा उपक्रम चला रही हूँ न, सब तुम्हारी बदौलत है। पर हमारी जिंदगी में अब तुम्हारी कोई जगह नहीं है। हाँ अगर तुम्हारे पास अभी रोजी-रोटी न हो, खाने से भी लाचार हो, तो अम्माँ की थाली में दो वक्त का खाना जब तक चाहो, खा सकते हो। …पर इससे ज्यादा कुछ ना..!”
अपने कर्मों पर शर्मिन्दा ललित सिर झुकाये चला गया था फिर। न दोबारा लौटा, न लीला या बेटियों ने उस धोखेबाज को याद किया। और हमारे लिए हमारी लीला का फैसला ही सर्वोपरि था और है सदा।
आज सोचता हूँ, हमने तो केवल तेज हवाओं से लपलपाते एक दीये को बस अपने हाथों की ओट दी थी जो आज प्रकाशस्तंभ बन चुका है, अनगिनत लोगों को रौशनी लुटा रहा है और जिसने प्रतिदान में हमारा नाम, हमारा जीवन सब रौशन कर दिया है।
तालियों की गड़गड़ाहट से चौंक कर लौटा हूँ वापस वर्तमान में। हमारी लीला उस पुरस्कार को ग्रहण करने के लिए बाबूजी और मुझे मंच पर बुला रही है। अपने बाबूजी को गर्वोंन्नत ग्रीवा के साथ मंच की ओर बढ़ते और भीड़ के साथ कलेक्टर महोदय को भी उनके लिए करतल ध्वनि करते देख कर मुझे सब कुछ मिल गया है, सब कुछ। भावनाओं का अतिरेक मुझ पर आरूढ़ हो चला है। नयन सजल हो उठे हैं, गला भर आया है। बहुत कुछ कहना शेष रह गया…अब कुछ नहीं कह पाऊँगा मैं..कुछ भी नहीं!
_________________समाप्त_________________
#एक_रिश्ता
(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़
Waaah….. Very nice…. Heart touching….. Keep it up….. 👍👍