अपेक्षा नहीं तो कैसी उपेक्षा – शुभ्रा बैनर्जी

जीवन के बारे में बड़े-बूढ़ों का तजुर्बा कभी ग़लत नहीं होता। उम्र के आखिरी पड़ाव में चेहरे पर झुर्रियां,भूत वर्तमान और भविष्य की लहरों की तरह समय के परिवर्तन शील होने का प्रमाण देतीं हैं।आंखों की रोशनी कम तो हो जाती है,पर अनुभव का उजाला टिमटिमाते रहता है,बूढ़ी आंखों में।”बचपन”परीकथा की तरह सुखद होता है। … Read more

मां की इज्जत – शुभ्रा बैनर्जी

निर्मला आज पूरे कॉलोनी में लड्डू लेकर अपने कैंटीन के उद्घाटन का न्योता दे रही थी।समय के साथ जैसे हर दिन एक नई निर्मला अवतरित होती जा रही थी।वही जोश,वही उमंग,वही हंसी।बहुत कुछ बदला था उसकी ज़िंदगी में,पर नहीं बदली तो उसकी हिम्मत।पिछले बीस सालों से जानती थी मैं उसे। हमारी सोसायटी के बाहर एक … Read more

बहू भी औलाद है – शुभ्रा बैनर्जी 

बचपन में एक कहावत सुनी थी कि एक आंगन से उखाड़ कर दूसरे आंगन में लगाया गया पेड़ कभी जीवित नहीं बचता।मेरा मन कभी नहीं स्वीकारा इस सत्य को।कितने ही पेड़ पड़ोस के घर से मांगकर लाती रही और लगाती रही थी मैं। सकारात्मक सोच की धूप और प्रेम के पानी से सभी आज जिंदा … Read more

आखिर मुखौटा उतर ही गया – शुभ्रा बैनर्जी

नंदिनी काफी दिनों से विवेक को तलाश रही थी।बहुत मुश्किल से जब पता मिला तो नंदिनी मिलने के लिए पहुंची आफिस।आलीशान बिल्डिंग थी ।नंदिनी आफिस से उनकी व्यक्तिगत जिंदगी की खुशहाली देख सकती थी।दूर से देखकर नंदिनी ने विवेक को पहचान लिया था।बस अब उससे मिलने की जरूरत नहीं। विवेक को देखते ही नंदिनी अपने … Read more

अमूल्य सहारा – शुभ्रा बैनर्जी 

आज प्राची को दादा -दादी के आशीर्वाद की महिमा ज्ञात हुई।दोनों हांथ जोड़कर आसमान की ओर देखकर दिल से प्रणाम किया उसने दोनों को।बचपन से ही बहुत लाड़ली थी वो दोनों की।दादाजी की गोद में टंगकर कहां – कहां नहीं घूमी थी।चलना सीख जाने पर दादाजी की उंगली पकड़ कर हर जगह जाती थी वो,चाहे … Read more

भरोसे की जीत – शुभ्रा बनर्जी

प्रतिमा अपनी बेटी प्रिया के साथ सहमते हुए कैब से उतर रही थी।एक अनजाना डर भी उसे सता रहा था।कैसा होगा कार्यक्रम?,इतना बड़ा होटल है,यही है ना पता?हां बच्चों से आज ही तो बात भी हुई थी। फिर क्यूं इतना डर लग रहा है मुझे?शायद अपनी संतान और बच्चों के बीच समन्वय की शंका है … Read more

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