अमूल्य सहारा – शुभ्रा बैनर्जी 

आज प्राची को दादा -दादी के आशीर्वाद की महिमा ज्ञात हुई।दोनों हांथ जोड़कर आसमान की ओर देखकर दिल से प्रणाम किया उसने दोनों को।बचपन से ही बहुत लाड़ली थी वो दोनों की।दादाजी की गोद में टंगकर कहां – कहां नहीं घूमी थी।चलना सीख जाने पर दादाजी की उंगली पकड़ कर हर जगह जाती थी वो,चाहे नाई की दुकान,राशन की दुकान‌ हो या मोची के पास जाना हो। साप्ताहिक बाजार जो काफी दूर लगता था वहां भी जाती थी दादाजी के साथ।

पूरे रास्ते बकबक करती और दादाजी से ढेरों सवाल पूछती रहती थी।बाजार जाते हुए दीवाल पर लिखे स्लोगन आज भी याद हैं उसे। अर्थ पूछना नहीं भूलती थी कभी वो दादू से।एक स्लोगन जो उसे अभी भी याद है”बड़ा होना अच्छा होता है पर बड़प्पन उससे भी अच्छा है।”दादू ने बहुत अच्छे से मतलब बताया था।बाजार जाते वक्त एक पोस्ट आफिस पड़ता था,सामने बड़ा सा बरगद का पेड़।हर रविवार उस पेड़ के नीचे जलता हुआ दीपक उसे अलौकिक लगता था।हमेशा यही सोचती थी,भगवान यहीं रहते हैं।आंख मूंदकर कितना कुछ मांग लेती थी हक़ से।

बाजार पहुंचते ही सब्ज़ी वालों से दादू की नोंकझोंक मनोरंजन का विषय थी उसके लिए।एक बार पचास पैसे के लिए लौकी वाले से लड़ पड़े थे दादू”गला काट ले मेरा अपनी हंसिया से,लौकी के बदले।”और आखिर में लौकी वाले का परास्त हो जाना उसे आज भी याद है।घर आकर जब कम्मा(दादी)से कहती वो मुंह बनाकर कहतीं ” ये तो हैं ही पैदाइशी कंजूस।”

दादू आफिस में बड़े बाबू थे।अच्छा खासा रुतबा हुआ करता था उनका,पर मजाल है कि पांच पैसे कोई उनसे खर्च करवा लें।जब बात प्राची की आती तो उनसे बड़ा दिलेर कोई न था।कंपनी की गाड़ी जाती थी हर हफ्ते शहर।हां से बड़े बाबू अपनी लाड़ली नातिन के लिए टोकरी भर-भर कर फल मंगवाते थे।कंपनी के क्वार्टर में रहते थे प्राची के मम्मी- पापा,दादा -दादी दोनों बुआ और चार प्रणव उसका भाई।

सुना था दादा जी ने बहुत सारी जमीन सस्ते में खरीदकर बड़ा सा एक घर और किराए में देने के लिए पांच घर बनाए थे।ज़मीन का एक टुकड़ा खाली भी था घर के पास।बस घर में छत सीमेंट वाली नहीं थी,शीट (एस्बेस्टस)की छत थी।लोग उन्हें ताने भी मारते‌ थे इस बात पर,परंतु उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था।

एक बार जब प्राची ने पूछा था “दादू हम तो इतने बड़े घर(क्वार्टर) में रहते हैं फिर आपने इतना बड़ा घर क्यों बनाया? किराए दार क्यों रखे?




दादू उसे गोद में उठा कर सिर पर हाथ फेरते और कहते “गुड़िया रानी ,यह केवल घर नहीं, भविष्य का सहारा है तुम सब का।”ओह!प्राची को समझ नहीं आता था तब कुछ।एक दिन‌ प्राची ने ठम्मा (दादी) से पूछा “ठम्मा तुमने हमारे भविष्य के सहारे के लिए क्या बनाया है?”

तब दादी ने अपने साड़ी के आंचल से जतन से बंधी एक छोटी सी चाबी दिखाई और कहा चल मेरे साथ।दादी प्राची को स्टोर रूम के अंदर ले गई।वहां एक जंग लगी बड़ी सी संदूक खोलकर‌ बोली “आ देख, ये है तुम लोगों के भविष्य का सहारा।”

संदूक खालिस कांसे,पीतल,चांदी के बर्तनों से भरा‌ पड़ा  था।दादी रौब दिखाते हुए बोलीं”ये सब बर्तन मेरे मायके से मिले थे‌ शादी पर मुझे।जमींदार थे मेरे दादाजी और बाबूजी।

बैलगाड़ियों में लाद-लादकर सामान दिया उन्होंने।जेवर,सोने के सिक्के,कपड़े और भी बहुत कुछ था पर देश विभाजन के वक्त लुटेरों ने लूट लिया था सभी कुछ।बस साठ तोले सोने -चांदी और ये बर्तन बड़ी मुश्किल से बचाकर लाए थे हम।”साठ तोला कितना होता है ठम्मा?प्राची कौतूहल वश जब पूछा तो दादी ने पूरी लिस्ट सुना दी।बेंदी,नथ,हार नौ जोड़ी ,कंगन, चूड़ियां,करधन,पायल,टियारा,बाजूबंद और भी न जाने क्या -क्या।

“ठम्मा मुझे दिखाओ न टिआरा, बाजूबंद” 

प्राची का प्रश्न‌ सुनकर दादी ने कहा” अरे अब कुछ नहीं बचा रे मेरे पास।आठ ननदों की शादी में दे दिया था मैंने पूरा सोना अपना।टिआरा तुड़वाकर तेरी बुआ की शादी करवाई और बाजूबंद तुड़वाकर तेरी मम्मी को दिया एक सैट पूरा।”

उस दिन के बाद से दादू का घर -जमीन और ठम्मा का संदूक प्राची को अपना आसमान लगने लगे।निश्चिंत हो गई थी वह अपने भविष्य से मानो।

दादू रिटायर हो गए।पूरा परिवार दादू के घर में आ गया था।ऊपर शीट होने के कारण गर्मियों में आग उगलती थी छत।मम्मी आगबबूला होकर पापा से भिड़ जातीं क्वार्टर लेने के लिए।तभी छोटी बुआ जो कि पोलियो से पीड़ित थी,को रेलवे में नौकरी मिल गई।अकेले रहना मुनासिब ना होगा सो दादू और ठम्मा उनके साथ आने के लिए तैयार हो गए।जिस दिन जाना था उन्हें दादू सुबह से ही अपनी जमीन और अपने घर का कई बार चक्कर लगाया।दादी ने अपने आंचल से कभी न छूटने वाली चाबी मम्मी के हांथ में रख दी।प्राची को बुलाकर हांथ में प्यार से दो छोटी-छोटी बालियां दीं।उस जंग लगे संदूक को बड़ी ममता से आखिरी बार देखा उन्होंने।




दादू -दादी के चले जाने से पूरा घर सूना हो गया था।रात को नींद भी नहीं आती थी।ठम्मा के साथ मच्छरदानी में सोने की आदत जो थी प्राची की।कुछ ही दिनों में पापा को क्वार्टर भी मिल गया।दादू का घर किराए में देकर हम क्वार्टर में आ गए रहने।एक  दिन पापा को टेलीग्राम मिला ,दादू बहुत सीरियस हैं ,अपने घर आना चाहतें हैं।अगले ही दिन पापा उन्हें लाने निकल गए,हम भाई- बहन बेहद खुश थे ।तभी अगले दिन दुसरा टेलीग्राम आया और मम्मी हम भाई बहनों को लेकर चल दीं।

बुआ के घर के आगे टैंट लगा था।अंदर जाने पर पता चला पापा के पहुंचते ही दादू गुज़र गए।उनके जाने की खबर सुनकर ठम्मा जो अचेत हुईं फिर होश में नहीं आई।चारों ओर खबर फैल गई एक ही दिन एक घर से दो प्राण एक साथ निकले और सदा के लिए एक हो गए।हम भाई बहन इस सदमें से उबर ही नहीं पा रहे थे।आस पड़ोस वाले बार-बार बता रहे थे कि कैसे अचेत अवस्था में भी दादी मुझे और मेरे भाई का नाम ले रही थी।

वक्त सरकता जा रहा था।बी एस सी में एडमिशन करवा लिया था प्राची ने तभी एक दिन कालेज में खबर आई पापा नहीं रहे।कुछ समझने का मौका ही नहीं मिला ।आते समय तो बिस्तर में लेटे थे पापा और जाकर देखा वहीं बिस्तर पर अब उनकी मृत देह पड़ी थी।कंपनी का क्वार्टर खाली करना पड़ा और फिर हम अपने (दादू)घर आ गए।मम्मी ने छत लेंटल वाली करवा ली।और कुछ नहीं बदला।दादी का पुराना संदूक और पुराना लगने लगा था।

प्राची ने अपनी पढ़ाई प्राइवेट करने की सोची तो कामर्स ले लिया और सरस्वती शिशु मंदिर में नौकरी कर ली।आय का एक स्थाई जरिया था किराया।साल बीतते रहे और दादा दादी का आशीर्वाद हमें किराए के रूप में मिलता रहा।दादी के जंग लगे संदूक के बर्तनों ने हर मुश्किल घड़ी में हमारा साथ दिया। अप्रत्याशित खर्चों को पूरा करने का सहारा बने वो दादी के जमींदारी बर्तन।प्राची की शादी कुछ सालों में तय हो गई।मम्मी नानी के घर से बहुत पहले बनवाया हुआ सोने का सैट ले आई।प्राची के पूछने पर बताया था उन्होंने दादी ने जो उन्हें दिया था उसी को तुड़वाकर बनवा‌लीं थी वो ।

अच्छा तो ये ठम्मा के बाजूबंद हैं ।




फिर मंझली बहन की शादी हुई।दोनों भाई प्राइवेट जाब करने लगे थे।इसी बीच मम्मी भी चलीं गईं।छोटी बहन की जिम्मेदारी प्राची पर आ गई।सास के कहने पर अपने पास ले आई थी बहन को।अपने ही स्कूल में नौकरी भी लगवा दी थी।सासू मां के जोर देने पर बहन का रिश्ता भी पक्का हो गया।सब कुछ कैसे हुआ पता ही नहीं चला।अब खर्चे की सोचकर हाथ पैर फूल रहे थे।भाइयों से इसी बात पर चर्चा करने जब प्राची मायके गई,दादू के घर और दादी के संदूक को देखकर खूब रोई।शाम को यूं ही संदूक खोलने का मन हुआ तो देखा एक बड़ी सी कांसे की डेग पड़ी हुई है। बिल्कुल नई । बर्तन वाले को बुलाने पर उस डेंग के बदले बहन की शादी का अधिकतम बर्तन मिल गया।ऐसा तो सपने में भी नहीं सोचा था उसने।अब रुपयों की चिंता हो रही थी।किसी भी रिश्ते दार से कुछ नहीं मिलना था।

तभी पड़ोस के पंजाबी भैया खाली पड़ी जमीन बेचने की बात कहने लगे।प्राची ने सोचा था ज्यादा से ज्यादा एक लाख।पर ये तो कमाल हो गया ,पूरे पांच लाख में बिकी वो जमीन जिसे सभी रद्दी कहते थे।और तुरंत बेचकर जब पैसे हांथ आए तो भाई बहनों के साथ शॉपिंग पर जा रही थी वो बहन की शादी के लिए।एक अच्छा सा सैट जरूर दूंगी दादू -दादी की तरफ से छोटी को। उन्हीं की संपत्ति उनकी आखिरी नातिन के काम आई आज।उनका आशीर्वाद सदा हमें हर तकलीफ से बचाता रहा।यह घर और इस जमीन हमारे परिवार का सहारा थी सचमुच।

 

#सहारा 

शुभ्रा बैनर्जी

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