तू इस तरह मेरी जिन्दगी में शामिल है (भाग -14)- दिव्या शर्मा : Moral stories in hindi

बिस्तर पर पड़ा जगदेव कुछ सोच रहा था तभी मगरू भीतर आता है और कहता है,

“क्या सोच रहा है चाचा?”

जगदेव गर्दन घुमाने की कोशिश करता है लेकिन कोशिश नाकाम साबित होती है।वह दाँत भींच कर घों घों की आवाज निकालने लगता है।यह देख मगरू हँस पड़ता है,

“हे ..हे…हे…ऐ क्यों जोर लगा रहा!पड़ा रह चुपचाप।खा और सो।तेरी जिंदगी भी मस्त कट रही है।औलाद ऐश करा रही है।”

जगदेव मगरू की बात सुनकर चुप हो जाता है।मेज पर रखे खाने को निकाल कर मगरू जगदेव को बिठाता है और अपने हाथ से कौर उसके मुँह में डालने लगता है।

छह साल से ऐसे ही अपाहिज पड़ा जगदेव टूकड़े टूकड़े के लिए दूसरे पर मोहताज था।जिसकी आवाज़ पर कभी मौहल्ला कांपता था वही मौहल्ला अब उस पर थूकता भी नहीं।किसे फुर्सत है किसी की सुध लेने की।यह तो वैसे भी कमीन लोगों का मौहल्ला था।देह व्यापार से लेकर चोरी चपाटी करने वालों का मौहल्ला।

पुलिस की अच्छी कमाई होती थी यहाँ से।तभी तो बेधड़क बेखौफ बस्तीवाले जीये जा रहे थे।

गुझिया बारह साल की थी जब जगदेव ने गुझिया की माँ से शादी की थी।

गुझिया का असली पिता भला आदमी था जो एक्सीडेंट में मारा गया या मार दिया गया यह तो आज तक पता नहीं चला।वैसे भी गुझिया को उसकी शक्ल याद नहीं।दो बरस की उम्र में छोड़ गया था माँ बेटी को।गाँव के बंधनों को छोड़ गुझिया की माँ अपनी बेटी को लेकर इस शहर में  चली आई।सब्जी बेचने से लेकर बर्तन साफ करने तक जिंदगी ढोती गुझिया की माँ रानी  ने दस साल अकेले गुजार दिए।

और भी गुजार देती यदि जगदेव उसकी जिंदगी में न आता।रानी को रानी बनाने के ख्वाब दिखाकर मंगलसूत्र पहना इस मौहल्ले में ले आया।जगदेव समाज के सामने गुझिया का बाप बन गया।पर क्या सच में वह गुझिया की माँ को ब्याह कर लाया था यह सवाल गुझिया आज भी तलाश रही है।

“फिर चला गया दूसरी दुनिया में!बावले उंगली खा गया तू मेरी!” मगरू गुस्से से बोला।

“क्यों बेजुबान पर बरस रहा है …जरा परेम से खिला रोटी।” मुर्शिद मुँह में गुटखा दबाए कमरे में दाखिल हुआ।उसे देखते ही जगदेव की आँखें चमकने लगी।

“तू अपने काम से काम रख।मेरे साथ मुँहजोरी न कर।” मगरू उंगली नचाकर बोला।

“आए हाए…अदाएं देखो जालिम की!” मुर्शिद मगरू को अपनी ओर खींचकर बोला।

“छोड़ नाशपिटे ..कमबख्त मर जा जाकर कहीं” मगरू उसे गालियां बकता थाली पटककर चला गया।

मगरू की लचकाती कमर को देख मुर्शिद ने सीटी मारी जिसे सुनकर मगरू और चिढ़ गया।

मगरू कहाँ से आया किसी को पता नहीं।

औरत और मर्द के बीच वह कुछ अलग था।जिसे शायद परिवार ने त्याग दिया था।किन्नर समाज का हिस्सा बन अपनी दुनिया में मस्त मगरू गुझिया का हमदर्द था जो उस पर स्नेह का हाथ रखे अपनी जिम्मेदारी पूरी करता।

“चल चचा।तूझे लालपरी पिलाता हूँ।”

इतना कहकर देशी ठर्रे की बोतल पेंट की पिछली जेब से निकाल जगदेव के सामने घुमाने लगा।जगदेव खुशी से घों घों करने लगा।

बोतल का ढक्कन खोलकर मुर्शिद एक घूंट लगाता है और फिर जगदेव की गर्दन के पीछे एक हाथ लगा दूसरे हाथ से बोतल उसके मुँह से अड़ा देता है।आधी शराब उसके कपड़ो और आधी गले को भीगोने लगी।

जगदेव बिस्तर पर निढाल था।मुर्शिद जा चुका था।यह रोज का नियम था।मुर्शिद अपने पैसों से जगदेव को शराब पिला जाता।खाली कमरें में छत को घूरता जगदेव नशे की गिरफ्तार में था।

पेट में गई शराब अपना असर दिखा चुकी थी।

पेशाब का प्रेशर उसके अनियंत्रित शरीर से निकल बिस्तर पर फैला गया।अपनी स्थिति का आभास होते ही जगदेव घो घो कर चिल्लाने की कोशिश करने लगा।लेकिन उसकी आवाज़ नौ बाई नौ के उस कमरे में फड़क कर शांत हो गई।

वाइन का गिलास हाथों में लिए थिरकती तृप्ति के जिस्म पर ब्रांडेड पोशाक उसके हुस्न में और बढ़ोत्तरी कर रही थी।म्यूजिक का शोर और हवा में उड़ता धुआं हर किसी को अपनी गिरफ्त में ले चुका था।अपने पर इतराती तृप्ति को अचानक अपने जिस्म पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ।वह पलटकर देखती है तो नशे में धुत्त एक आदमी उससे चिपकने की कोशिश कर रहा था।

तृप्ति दूरी बनाकर फिर से डाँस करने लगी लेकिन वह शख्स फिर उसके नजदीक आ उससे लगभग सट कर डाँस करने लगा।

” हे यू दिमाग खराब हो गया है!” तृप्ति जोर से बोली।लेकिन म्यूजिक के शोर में उसकी आवाज़ कहीं दब कर रह गई।आदमी की हिम्मत बढ़ती जा रही थी।अब उसके हाथ तृप्ति की कमर तक पहुंच चुका था।अपनी बाँहों में लेकर वह डाँस करने लगा।तृप्ति अपने को छुड़ाने की कोशिश करने लगी लेकिन बलिष्ठ भुजाओं में उसका नाजुक शरीर फड़फड़ा कर रह गया।अपनी पूरी शक्ति इकट्ठा कर तृप्ति ने अपने सेंडल की हिल उसके जूते पर जोर से गाड़ दी।दर्द से कसमसा कर वह तृप्ति को छोड़ अपने पैर को देखने लगा।मौके का फायदा उठा कर तृप्ति वहाँ से बाहर निकल गई।

अभी वह क्लब के एक्जिट पर पहुंची थी कि उसका मोबाइल बज उठा।

अनजान नंबर को देख उसने फोन काट दिया और रोड़ की बढ़ गई।

मोबाइल एक बार फिर बजा।इस बार तृप्ति फोन रिसीव कर लेती है।

“हैलो बेबी…इस बार तो निकल गई तुम लेकिन अगली बार मेरे करीब होंगी…ऊ..म्म्मा..।” एक भद्दे से इशारे के साथ अपनी बात पूरी कर फोन करने वाले ने फोन काट दिया।तृप्ति हैरान थी कि ऐसे कौन उसको फोन कर सकता है।लेकिन जल्दी ही अपनी सोच को झटक वह टैक्सी रोक उसमें बैठ गई।

शेखर उसी पुल पर खड़ा गहराई को निहार रहा था लेकिन इस बार उसका इरादा आत्महत्या का नहीं था।नदी पूरी तरह सूखी थी या  सूखे होने का आभास दे रही थी।कहीं कहीं गड्डे में काई जमा पानी नदी के भरे होने की उम्मीद जगा रहा था।अपने ख्यालों में खोया शेखर किसी के गुनगुनाने की आवाज़ सुन पलटता है।

आवाज़ दूर से आ रही थी जो गाड़ियों की आवाज़ में कभी दब जाती कभी उभर आती।

शेखर की निगाहें आवाज़ के साथ चलती छाया पर थी।जो करीब आते आते गुझिया में बदल गई।

अपने सामने शेखर को देख गुझिया रूक गई और बोली,

“फिर मरने आ गया तू!यार तू इस इलाके में पुलिस बुलाकर मेरा धंधा बंद कराएगा।जाकर मरना है तो रेल की पटरी पर जाकर मर!”

उसकी आँखों के मटकने को देख शेखर हँस पड़ा और हँसता रहा।गुझिया को उसका इस तरह हँसना देख अच्छा लग रहा था।शेखर हँस रहा था और बस हँस रहा था।गुझिया उसे देखती रही।फिर शेखर की बाँह पकड़ अपने साथ चलाने लगी।

“अच्छा लगा तूझे हँसता देख।ऐसे ही हँसते रहा कर।” गुझिया बोली।

उसकी बात सुनकर शेखर ठिठक जाता है और बोलता है,

“तू चाहेगी तो हँसता रहूंगा।”

“तू पागल है?” गुझिया बोली।

“हाँ हूँ तो।पर क्या करूँ।पागल होना मेरी मजबूरी है।” शेखर गंभीर होकर बोला।

“चल झल्ला।अच्छा यह बता तू मेरा पीछा कर रहा है?” गुझिया ने आँखें मटका कर पूछा।

“हाँ…कर तो रहा हूँ।तुझे दिक्कत है?” शेखर ने अपनी नजरें उसके चेहरे पर गड़ा कर जवाब दिया।

“मुझे क्या दिक्कत होगी।तू मेरा क्या लूट लेगा जो मैं डरूँ!मेरे पास बचाने के लिए कुछ है ही नहीं।” गुझिया अपने लहंगे को हाथ से घुमाकर बच्चों की तरह गोल गोल घूमने लगी।

शेखर उसे देखता रहा।उसका लहंगा एक रिदम के साथ घूम रहा था।

“पर मुझसे क्या मिलेगा तूझे जो यू्ँ अपना टाइम खराब कर रहा है?”गुझिया एकदम रूक गई और बोली

“कुछ चाहिए भी नहीं।बस कल रात तुझसे मिलकर ऐसा लगा जैसे कि कोई मेरे जैसा भी दुनिया में है।” शेखर ने कहा।

“पागल…तू लुगाई है क्या!हा…हा…हा..मैं तेरे जैसी कैसे हो सकती हूँ।” गुझिया हँसते हुए बोली।

“तू  नहीं समझेगी।अच्छा अपना नाम तो बता?” शेखर बच्चों की तरह जिद करता हुआ बोला।

“,गुझिया…गुझिया नाम है मेरा।”

“लगता है तुम्हारी माँ को गुझिया बहुत पसंद थी तभी तुम्हारा नाम गुझिया रख दिया।”शेखर गुझिया को चिढ़ाते हुए बोला।

माँ का जिक्र आते ही गुझिया का चेहरा बुझ गया।वह चुपचाप चलने लगी।शेखर को महसूस हुआ कि गुझिया किसी बात को सुन परेशान हो गई।

“मैंने कुछ गलत कह दिया क्या?” शेखर बोला।

“नहीं…कुछ नहीं हुआ।” गुझिया इतना कहकर तेज कदमों से शेखर से दूर हो गई।

शेखर उसके दौड़ते कदमों में अपनी जैसी तकलीफ देख रहा था।वह जानता था कि देह व्यापार में अपनी देह जलाती गुझिया जैसी अनगिनत लड़कियों के पास कहने के लिए कुछ भी नहीं होता।लेकिन होता बहुत कुछ है जिसे सीने में दबाव जी रही हैं।

इस दलदल में खुद भी तो दबा था शेखर।जहाँ से निकलने की तड़प उसे और इसके अंदर धकेले जा रही थी।वह अपने घर की ओर मुड़ गया।जाना मजबूरी थी क्योंकि दुनिया के सामने वह एक खुशहाल जीवन जी रहा था।

गेट पर पहुंच कर उसने बॉलकनी की ओर देखा।तृप्ति वहाँ नहीं थी।शेखर सीढियां चढ़ते हुए गुझिया को ही सोच रहा था।

दरवाजे पर आज दस्तक देने की जरुरत नहीं पड़ी क्योंकि दरवाजा खुला था।वह अंदर गया।

बेडरूम की लाइट्स बंद थी।तृप्ति के अंदर होने के आभास भर से उसके मन में घृणा उतर आई।

बेडरूम का दरवाजा खोल शेखर अंदर गया और बिना कहीं नजर दौड़ाए अपनी नाइट ड्रेस लेकर हॉल में आ गया।

तृप्ति बिस्तर पर थी।उसे शेखर के आने का पता चल गया था लेकिन वह चुपचाप लेटी रही।

कमरे में घुसते ही पेशाब की बदबू गुझिया के दिमाग में चढ़ गई।उबकाई लेते हुए उसनें अपनी नाक को दुपट्टे से बंद कर दिया।बिस्तर पर बेसुध पड़ा जगदेव खर्राटे ले रहा था।

उसे देख गुझिया का सिर गर्म हो गया।

“अरे…मुर्शिद…इस हरामी को सबक सिखाना होगा।मरते हुए को फिर दारू पिला गया।’

“मगरू…ओ मगरू…अरे आ जा मर गया बुड्ढा आज फिर।” गुझिया गली में चिल्लाई।

“फिर कर दिया क्या बिस्तर गीला?” मगरू ने अपने दरवाजे से ही पूछा।

“चल आ जा।तुझे भी इसी लिए भेजा ऊपरवाले ने।चल बदल दे उसके कपड़े।” गुझिया ने कहा।

उसकी बात सुनकर मगरू जगदेव के पास चला आया।गुझिया बाहर खड़ी मुर्शिद को गालियाँ बकने लगी।

जगदेव के भारी भरकम शरीर को संभाले मगरू जगदेव के मुँह से आती अस्पष्ट बातें सुनने की चेष्टा कर रहा था।

“म..घों…या…माफ…रा…नी…मा….फ…फ…”

जाने क्या कहना चाहता था जगदेव जो मगरू समझना चाहता था लेकिन जगदेव का अधरंग शायद उसकी मौत के बाद ही ठीक होना था।

“अंदर आ जा गुझिया।बदल गए कपड़े इसके।बिस्तर बाहर डाल देता हूँ पड़े रहेंगे दो चार दिन बाहर तो दुर्गंध निकल जायेगी।” मगरू बोला।

“तू मेरा कितना ख्याल रखता है रे मगरू।ऐसा लगता है कि जैसे पिछले जन्म का नाता है कोई।” गुझिया मगरू को कृतज्ञता दिखाते हुए बोली।

” चल चलता हूँ।” मगरू मुस्कुरा कर बोला।

गुझिया ने जलती निगाहें जगदेव पर डाली और बोली,

“बस एक बार ठीक हो जा तू…फिर…।”

जगदेव उसकी बात सुनकर घों घों घों कर कुछ बोलने का प्रयास करता है लेकिन निराश होकर चुप हो जाता है।

क्रमशः

दिव्या शर्मा

2 thoughts on “तू इस तरह मेरी जिन्दगी में शामिल है (भाग -14)- दिव्या शर्मा : Moral stories in hindi”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!