बहू भी औलाद है – शुभ्रा बैनर्जी 

बचपन में एक कहावत सुनी थी कि एक आंगन से उखाड़ कर दूसरे आंगन में लगाया गया पेड़ कभी जीवित नहीं बचता।मेरा मन कभी नहीं स्वीकारा इस सत्य को।कितने ही पेड़ पड़ोस के घर से मांगकर लाती रही और लगाती रही थी मैं। सकारात्मक सोच की धूप और प्रेम के पानी से सभी आज जिंदा हैं,फल फूल रहें हैं।मैं इस कहानी की सूत्रधार हूं और आपको इसके मुख्य पात्रों से मिलवाती हूं-सुषमा(बहू)बानी(सास)।यही दो चरित्र इस कहानी को अर्थ देतें हैं।”

औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है,सास कभी मां नहीं बन सकती और बहू कभी बेटी नहीं हो सकती।इन तीनों किंवदंतियों को ग़लत साबित किया था सास और बहू के इस रिश्ते ने।अपनी बुआ के पसंद किए गए लड़के वाले आए जब सुषमा को देखने,लड़का साधारण शक्ल सूरत का था,गुस्सैल स्वभाव भी दिख रहा था।सास को देखकर ही सुषमा ने इस रिश्ते के लिए हां कह दी।उसे मां की जरूरत थी।इधर सुषमा की मां को यह रिश्ता बिल्कुल भी पसंद नहीं था।

उनकी सुंदर बेटी के लिए सुंदर दामाद चाहिए था उन्हें।अपने बुआ और फूफा की लाड़ली होने के साथ ही साथ उनके प्रति अपार आस्था थी सुषमा के मन में।ये दोनों मेरे साथ कभी कुछ बुरा‌ नहीं करेंगे,इसी विश्वास के साथ दो महीने के भीतर सुषमा बानी की बहू बन चुकी थी।अपनी शादी , ससुराल,पति,किसी के भी बारे में उसने कोई पूर्व नियोजित सपने नहीं देखे थे।उसके पास तो हर परिस्थिति में खुश रहने का ब्रह्मास्त्र था।ससुराल आने पर तो जैसे सुषमा सास की ही होकर रह गई।

मानस की एक चौपाई -“जाकी रही भावना जैसी,प्रभु मूरत देखी तिंह तैसी”अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुई थी सुषमा की सास के बारे में।दोनों एक दूसरे की खुशियों का ख्याल रखतीं और अपने सुख दुख बांटती थीं।सुषमा के पति अपनी मां को ताने भी देते थे कि तुम किसकी मां हो?मेरी या अपनी बहू की।तब सास निर्विकार भाव से कहती” मैंने पसंद किया है इसे तो मेरी बेटी ही हुई ना।सच में बेटी की तरह ही माना उन्होंने सुषमा को ।

सुषमा ने उन्हें मां ही माना मां की तरह नहीं।उसके मन की पीड़ा बिना बोले ही समझ लेती थीं बानी जी।मायके जाना हो,भाई -बहनों को ससुराल बुलाना हो,उनकी मौन स्वीकृति हमेशा मिली।सीमित कमरे होने की वजह से ऐसा नहीं कि तकलीफ नहीं होती थी,पर ससुर को कभी कुछ कहने नहीं दिया उन्होंने।

बस कहती तुम्हें जो अच्छा‌लगे‌ वही करो।अपनी ब्याह योग्य बेटी को छोड़कर बेटे की शादी करवाने का फैसला कहीं से तर्क संगत नहीं था।उनका सीधा कहना था एक बेटी आकर घर संभाले,तब दूसरी जाए।सुषमा के प्रति उनका विश्वास बहुत दृढ़ था।सुषमा ने भी सारी जिम्मेदारी निभाई जिससे सास का सम्मान कम ना हो।सुषमा के बच्चों को उन्होंने ही पाला,खाना खिलाने से लेकर नहलाना,सुलाना सब उन्हीं के जिम्मे था।सास का सहयोग ही था कि वह स्कूल में नौकरी कर पाई।घर वह संभाल लेतीं थीं।कभी सुषमा से पैसों को लेकर सवाल नहीं किया उन्होंने।




    ईमानदारी अगर हो रिश्तों में तो वो सच्चे और मजबूत होते जातें हैं समय के साथ।इस खानदान की पहली बहू थी सुषमा जो काम कर रही थी और इस दुनिया की पहली सास थी बानी जी जिन्हें अपनी बहू के पढ़ाने पर गर्व था।स्कूल टूर जाने पर कम समय में सुषमा का बैग पैक वहीं करती थी।स्कूल से आने पर जब पूरा‌घर सो रहा होता बीना जी हांथ में पानी का गिलास पकड़ाती नियमित रूप से।ये क्या सास कर सकती हैं ,ये तो मां ही करती है।

इस परिवार की जिम्मेदारी निभाने में,पुराने रिश्तों को बांधे रखने में और नए रिश्तों को बनाने की प्रक्रिया में सुषमा ने निज सुखों,अरमानों,इच्छाओं की आहूति दी थी,उसका परिणाम यह निकला कि बच्चे संस्कारों के यज्ञ में तपकर सदाचार से अभिमंत्रित होकर बड़े हो रहे थे।सुषमा का वर्तमान बच्चों का भविष्य संवार रहा था।

जीवन मूल्यों को कहानियों में सुनाकर वे नाती -नातिन का चरित्र निर्माण कर रहीं थीं।सुषमा की बेटी ने तो एक दिन अपनी दादी को आड़े हाथों ले लिया जब किसी परिचित को अपनी बेटियों की दो संख्या बताई उन्होंने।बेटी ने साफ शब्दों में सभी के सामने टोका था अपनी दादी को”फिर मेरी मां क्या है?सारा दिन तुम्हें मां मां कहती रहती है,और तुमने तो उन्हें बेटी के रूप में परिचय ही नहीं दिया।

बानी जी को अपनी ग़लती का अहसास हुआ।सुषमा के हर फैसले की सहभागी बनती थीं वो।इतना विश्वास तो कोई अपनी बेटी पर ना करें।उनके संघर्षों का सम्मान करती थी सुषमा।अपाहिज पति से शादी करने का फैसला लेना अपने आप में जोखिम वाला काम था।उस पर सिर्फ भरोसे की वजह से तीन संतानों को जन्म देकर उनको पालना,पढ़ाना -लिखाना,शादी करवाना मामूली बात नहीं थी।

उनके त्याग के आगे सुषमा नतमस्तक हो जाती थी। धर्म, राजनीति,इतिहास,कला ,साहित्य,खेल प्रायः सभी में रुचि थी उनकी।सुबह उनकी अखबार पढ़ने से ही शुरु होती थी।के बी सी के प्रश्नों को हल करने के लिए हम उन्हें पूछते थे।शिक्षा के प्रति उनका लगाव ही सुषमा को काम करने दे रहा था।




मायके में मां की मौत हो जाने पर उनकी जिद से ही सुषमा अपनी छोटी बहन को अपने पास ले आई थी।विद्यलय में नौकरी भी लगवा‌ दी थी।बानी जी ने पीछे पड़-पड़ कर उसका ब्याह भी करवा‌ दिया।मां के चले जाने से बानी जी सभी की मां बन चुकी थीं।अपने बच्चों को पढ़ाने के दौरान बानी जी से सुनी हुई कोई पौराणिक या राजनैतिक कहानी सुनाती तो बच्चे खुश हो जाते।तब वह बताती कि ये दादी ने बताई है।

सास-बहू के ज्ञधुर रिश्तों की छाप सिर्फ खुद के बच्चों पर ही नहीं बल्कि प्रत्येक छात्र सम्मोहित होते ये संबंधों का ताना -बाना देखकर।जिन नैतिक मूल्यों को हम पढ़ाते हैं,जब वही हम खुद भी अपने व्यवहार में लाते हैं तभी आप प्रतिष्ठित हो सकतें हैं।सुषमा की हर परेशानी में डाल बनकर खड़ी रही थीं वे।

इकलौते बेटे की मौत ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया था।इस उम्र में बेटे की लाश देखना नरक यातना से भी ज्यादा कष्टकारी होता है।सुषमा भी अपना दुख कभी नहीं रोई बानी जी के सामने।बस यही कहा था “मैं नहीं जाऊंगी तुम्हें अकेली छोड़कर।

दुर्घटनाएं आती तो हैं प्रकोप बनकर पर रिश्तों को या तो मजबूती देती हैं,या खोखले रिश्तों को खत्म भी कर देती हैं।बानी जी फूल तोड़ते हुए बगीचे में गिर पड़ीं। आपरेशन करवाना पड़ेगा बाहर जाकर।सुषमा दुविधा में थी ,अकेले बेटे को कैसे भेजें,यही सोचते दोनों ननदों से विनती करने लगी आने की।

तब सुषमा के किशोर बेटे ने ऐसी बात बोली‌ लगा”लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला है उसे।उसने कहा”मम्मी आप भी तो दादी की औलाद हो।अपनी मां के आपरेशन के लिए जो भी फैसला करना होगा,आप करेंगी।ये हमारी जिम्मेदारी है,हम दूसरों से क्यों आस लगाए।आठ घंटे चला‌था आपरेशन।

सात महीने बेड पर ही थीं ,पूरी तरह से।मानसिक आघात इस घाव को क्या इतनी आसानी से भर पाएंगे?यही सोचकर सुषमा ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया।जिस नौकरी ने उसे सम्मान दिया, प्रतिष्ठा दिलाई,जिस नौकरी को ना छोड़ना पड़े इसके लिए सालों ३ किलोमीटर पैदल भी गई है चलकर। ईमानदारी से पढ़ाया है उसने, अपने  हर दिन।उस नौकरी को करने की प्रेरणास्त्रोत बानी जी हीं थीं।

तो जब आज उन्हें सुषमा के सहारे की जरूरत है,वह रहेगी घर पर।दो साल से ज्यादा हो गए नौकरी छोड़े।लोगों को अब तक यह भरोसा नहीं हो पा रहा कि सुषमा विद्यालय नहीं आ रही।बेटे -बेटी नौकरी करने लगें हैं अब।घर में रहती हैं वही दोनों सास-बहू।अब वह धीरे-धीरे डंडे के सहारे चल लेतीं हैं।अफ़सोस करती हैं सुषमा के नौकरी छोड़ने का।कोई विकल्प भी तो नहीं।आज जब बेटी पुने में उसके पास जाने की बात कहती है तो सुषमा कह देती है,अभी इस वक्त एक औलाद को मां की उतनी जरूरत नहीं है बेटा जितनी एक बूढ़ी मां को अपने औलाद की जरूरत है।




बेटी ने कहा था एक बार,”सब तुम्हारे आंखों की तारीफ करतें हैं, व्यवहार की तारीफ करते हैं, स्वादिष्ट खाने की तारीफ करते हैं पर मां मैं तारीफ करूंगी तुम्हारे मन की।एक सच्चा सरल मन आज की दुनिया में दुर्लभ है।सुषमा भी कहती हां मैं लुप्तप्राय प्रजातियों से एक हूं।मैंने ना जायदाद बनाई,ना मकान ,ना जमीन,ना गहने सोना।मैंने विश्वास की जमीन पर प्रेम बोया है,यह निरंतर प्रवाहित होता रहेगा।

एक से दूसरे में ,दूसरे से तीसरे में।रिश्तों की पहचान प्रसवपीड़ा या खून से नहीं होती,बल्कि ईमानदारी,भरोसे और प्रेम से बनते हैं रिश्ते।आप ईमानदारी दिखाइए,चेहरे पर अपने आप शांति दिखाई देगी।मन में संतोष रखिए,आत्मा परिष्कृत होती रहेगी धीरे-धीरे ,दूसरों के प्रति प्रेम रखिए , बहुमूल्य रत्न जयते रहेंगे आपके जीवन में।अपना और पराया के बीच एक छोटी सी डोर है,इसे तोड़कर प्रेम को करने दीजिए अपना काम।समय लगेगा पर सफलता अवश्य मिलेगी।

शायद आप पाठकों को यह पढ़कर अच्छा लगे कि बानी जी अभी भी जिन्दा हैं,अपनी बहू के साथ रहती हैं।परेशान नहीं करती या यूं कह लीजिए आदत हो गई सुषमा को आदत है।आज भी सुबह सबसे पहले अखबार पढ़ती नहीं खंगाल लेतीं हैं।जब भी कुछ खाने को दो तो,कहना आज भी नहीं भूलती”बहू मां तुम भी खा लो।”

अब एक और मोड़ देते हुए बताना चाहूंगी कि सुषमा ही सूत्रधार है।

बानी जी ने बोलकर रखा है”मेरे मरने पर किसी के आने का इंतजार मत करना।सबसे पहले तुम ही गंगा जल पिलाना‌ आखिरी समय।मैं मरकर फिर वापस आंऊंगी तुम्हारे पास ही।”सुषमा हंसकर चिढ़ाते हुए आज भी कहती हैं”मैं अपने बच्चों की शादी अभी करूंगी ही नहीं।मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो फिर से तुम्हारे साथ सालों साल रहूं।माफ़ करना मां।”

शुभ्रा बैनर्जी

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