यह मेला है – डा. नरेंद्र शुक्ल

तो देखिये साहिबान । इस मेले का सबसे हैरतअंगेज़ खेल । इस खेल में आप देखियेगा कि एक कलाकार किस तरह से समूची तलवार अपने मुंह में डाल लेता है । टिकिट केवल दस रूपये । मौका हाथ से न जाने दीजिये । ऐसा खेल आपने पहले कभी नहीं देखा होगा । जल्दी कीजिये । शो शुरू होने जा रहा है । उदघोषक ने मंच से आवाज़ लगाई ।‘

मैं इस मेले में दूसरी बार आया था । पहली दफा़ यह खेल नहीं था । शहर के लगभग सभी प्रमुख अखबारों में इसका विज्ञापन दिया गया था । सोचा, चल कर देखना चाहिये । टिकिट लेकर मैं टैंट के भीतर चला गया । मैं सामने लगे बैंच पर बैठा ही था कि देखता हूं कि सोलह – सत्रह वर्ष का काले से रंग का दुबला – पतला सा लड़का हाथ में नंगी तलवार लिये चला आ रहा है । लड़का टैंट के बीचों-बीच आकर खड़ा हो गया । उसने अपनी गर्दन को विपरीत दिशा में नीचे की ओर करके तलवार को मुंह के भीतर डालना आरम्भ कर दिया । देखते ही देखते उसने आधी तलवार अने मुंह में डाल ली । टैंट के चारों ओर बैंचों पर बैठे दर्शक रोमांच से चिल्लाये – ‘थोड़ी और । थोड़ी और ।‘ थोड़ी और ।‘

दर्शकों की मांग को पूरा करने के प्रयास में उसकी आखों से आंसू निकल आये । मेरे मुंह से आह निकल आई ।

शो समाप्त होने पर , मैं उसे एक कोने में ले गया और पूछा – ‘क्यों भाई , ऐसा खतरनाक खेल क्यों खेलते हो । तुम्हें पता है कि इसमें तुम्हारी जान भी जा सकती है ।‘

वह मुस्कराया । पर , जल्दी ही उसकी मुस्कराहट पीडा़ में बदल गई । चेहरे पर विषाद की काली रेखा उभर आई । धीमे स्वर में बोला – ‘पेट के लिये बाबू जी । घर पर दो जवान बहनें हैं । मां को आंखों से दिखता नहीं । बापू मां को छोड़कर किसी दूसरी औरत के साथ भाग गया । हम दो भाई यहां आ गये। वह एकाएक रोने लगा । उसकी आंखों से दो मोती लुढ़क कर उसके गालों पर आ गये । कुछ रूककर बोला – तमाशा न दिखाये तो इतने प्रणियों की भूख कैसे मिटे । कैसे पेट पालें सबका । उसकी आंखें फिर भर आईं । ‘




मैंने अपने आपको कोसा । व्यर्थ ही यह प्रशन पूछा । विषय बदल कर मैंने उससे पूछा – अच्छा, एक बात बताओ । कल तक तो इस मेले में यह खेल नहीं था ?‘

उसके चेहरे से लगा कि उसे यह प्रशन पसंद नहीं आया । वह रूक – रूक कर भारी मन से बोला- यह नया आइटम है साहब । कल लास्ट शो में इसी आइटम को करते हुये मेरा छोटा भाई जख़्मी हो गया । एक्सपीरियेंस नहीं था न । कहां चाकू से खेल दिखाता था और कहां तलवार । मैं गांव गया था । आज ही आया हूं । नहीं तो उसे यह खेल न करने देता । बेचारा अस्पताल में जिंदगी और मौत की जंग लड़ रहा है । टैंट के बीचों – बीच इशारा करता हुआ वह बोला – लोग बताते हैं कि बस इसी जगह घायल होकर गिरा था वह । कोई मदद के लिये नहीं आया । सब के सब ताली पीटते रहे । आधे घंटे के बाद शो फिर से चालू हो गया । मालिक कहता है कि वही खेल दिखाना है तो यहां नौकरी है । वरना तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं । तुम जा सकते हो । मैं क्या करता । भाई को मरता छोड़ कर खेल दिखा रहा हूं ।

अचानक , उसके स्वरों में तीखापन आ गया – यह मेला है साहब । यहां इनसान नहीं , खेल की कीमत लगाई जाती है । आप जैसे लोगों का मनोरंजन जरूरी है । सनसनी जरूरी है । और वह हिकारत भरी निगाह मुझ पर डाल , आंखों में आंसू लिये , बुझे मन से टैंट में घुस गया ।

डा. नरेंद्र शुक्ल

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!