जीवन का सवेरा (भाग -10 ) – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi

“रात भर में रोहित ने तुम सब के बारे में इतना बता दिया कि लगता ही नहीं कि यह हमारी पहली मुलाकात है। उनकी बातों में एक अजनबी क़ी नहीं, बल्कि एक पुराने दोस्त से मिलने क़ी चाहत दिख रही थी औऱ तुम्हारे हाथ के खाना के बारे में रोहित ने बताया कि किसी फाइव स्टार होटल के शेफ को भी पीछे छोड़ दे”… दादी सबसे प्यार से मिलती हुई योगिता का हाथ अपने हाथ में लेती हुई कहती हैं। इस समय दादी की आँखों में प्यार और अपनेपन क़ी चमक थी।

“अभी तो अंदर चलिए दादी, फिर इत्मीनान से बातें करेंगे हम लोग।” राधा मुस्कुरा क़र कहती है।

बातों बातों में दादी ऊपर देखती हैं, जहाँ छत की रेलिंग पर आगे की ओर “जीवन का सवेरा” बहुत ही सुन्दर तरीके से उकेरा गया था और उसके ऊपर चावल के दानों को रंगों मे भिगोकर चिपकाया गया था। जो कि देखने में काफी आकर्षक लग रहे थे। साथ ही बारिश.. धूप से बचाने के लिए छज्जे का प्रयोग इस तरह किया गया था कि उसका आकर्षक बरकरार रहे और छज्जे को आकर्षक बनाने के लिए उस पर नृत्य करते आदिवासियों के चित्र बनाए गए थे, यह सब किसी का भी ध्यान आकर्षित करने के लिए काफी थे।

दादी को ऊपर देखते देख़ सबने ऊपर देखा। “ये जीवन का सवेरा क्या है”.. दादी ने पूछा। 

“हमारी हवेली का नाम है दादी”.. आरुणि बताती है। 

“इस पर की गई रंगों की कारीगरी और चित्रकारी बहुत ही मनमोहक है”… दादी ने मुग्धता भरी दृष्टि से कहती हैं।

“ये सब मेरी माँ ने बनाया था दादी”.. आरुणि गम और खुशी दोनों के सम्मिश्रित भाव के साथ कहती है। 

“परसों जब मैं आया था, तब तो नहीं दिखा मुझे”.. रोहित आश्चर्य से कहता है।

“तू तो सब दिन का बुद्धू है”.. दादी रोहित की खिंचाई करती हुई बोलती हैं। 

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इसके साथ ही सब दादी को लिए घर के अंदर आ गईं। दादी सामने बड़ा सा आँगन देख खुश होते हुए कहती हैं, जब मैं छोटी थी तो गाँव में हमारे घर के बीचोंबीच ऐसे ही आँगन हुआ करता था। हम सब भाई-बहन ढ़ेर सारी मस्ती किया करते थे। माँ, चाची, ताई तरह तरह के पकवान बनाती थी और हम सब एक ही थाल में लेकर खाने बैठ जाते थे। मजाल है कि कोई भूखा रह जाता हो.. सब संतुष्ट होकर ही उठते थे।अब तो खाने के लिए तरह तरह की चीजें हैं, लेकिन अब वो संतुष्टि नहीं मिलती है।” दादी आँगन में बिछाए खाट पर आकर बैठती हुई बोलती हैं। 

“खाट कहाँ से ले आई”.. दादी पूछती हैं। 

“मम्मी एंटिक चीजें रखना पसंद करती थी और पूरी तरह उपयोग भी करती थी। अब तो स्टोर में ही रहता है.. आज खास आपके लिए निकाला है”… तृप्ति ने बताया। 

“चाय और पराठा.. आज तो मन से खाऊँगी। एक युग बीत गया इत्मीनान से खाए हुए। पहले इसकी माँ छोड़ गई, फिर इसे मेरी कोई फिक्र नहीं हुई।” दादी माँ योगिता के हाथ से चाय औऱ पराठा का प्लेट लेती हुई कहती हैं, बातों बातों में योगिता चाय और पराठा दादी के लिए तैयार क़र लाई थी।

अरे तो इतना लाड़ क्यूँ दिखा रही हैं दादी। कान के नीचे खींच कर तानपुरा बजाना था ना।” आरुणि रोहित का मज़ाक बनाते हुए कहती है। 

“हाँ.. हाँ.. क्यूँ नहीं.. मेरी दादी तुम्हारी तरह नहीं हैं। मेरी दादी तो बहुत अच्छी हैं।” पराठा का एक कोना तोड़ दादी के मुँह में डालते हुए रोहित कहता है।

“दादी भी योगिता के द्वारा बने चाय और पराठा की तारीफ किए बिना नहीं रह सकी। साक्षात अन्नपूर्णा है तू”.. योगिता क़ी प्रशंसा करते हुए दादी के चेहरे पर संतुष्टि फैल गई थी। 

खाने के बाद सभी एक साथ बैठकर बातें करने लगे। आज दादी के लिए सबने छुट्टी ले रखी थी, इसलिए सभी को आराम से एक दूसरे के साथ समय बिताने का मौका मिला। चारों ओर एक सुखद और प्रसन्नता भरा वातावरण बसा हुआ था, जहाँ हर कोई आत्मसात होकर इस का वातावरण आनंद ले रहा था। खुशियों और संवादों की खुशबू खूबसूरती से भरी हुई थी, यह प्यारा पल सभी को एक-दूसरे के साथ बंधन में जोड़ रहा था। 

आँगन में दिनकर की रश्मियाँ अपने नन्हें-नन्हें पग से फैल रही थीं और खिलखिलाती हुई आँगन में आकर शरारत पर उतर आईं थीं। धूप की यह खिली खिली धारा धीरे-धीरे आँगन में प्रवेश कर रही थी और सभी के तन में चुभने लगी थीं, जिससे सभी लोग उधर-इधर सरक कर बैठने की कोशिश क़र रहे थे, जबकि वह नन्हा धूप भी उन्हें मात देता हुआ उनके साथ उसी ओर बढ़ रहा था। इस छोटे से नन्हें से धूप ने पूरे आँगन में अपनी वर्चस्वता स्थापित करने के लिए उन सभी के आँखों को अपना स्थान बना क़र अपनी गर्मी चुभाने लगा और चुभती रश्मियों से बचाव के लिए सभी कमरे में जाने का मन बनाने लगे।

और रात का अधिकांश हिस्सा पोते से बात करने में दादी ने गुज़ारा था तो अब उन पर थकान और नींद दोनों हावी होने लगे। उनकी आंखें धीरे-धीरे भरी हुई लगने लगी थीं। धीरे-धीरे उन पऱ थकान और नींद का आग्रह अपना प्रभाव डालने लगा था, जिसे महसूस करती हुई आरुणि कहती है, “मेरे कमरे में चल कर आराम कर लीजिए दादी।

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जैसे ही दादी कमरे में जाने के लिए उठती हैं, बच्चों की शोरगुल मचाती हुई आवाज आती है, “बाहर किस की गाड़ी लगी है?” इस पर दादी उत्साहित होकर बाहर की ओर देखने लगीं। जब वे रोहित को देखते हैं, तो उनकी आँखों में खुशी का चमक आ गई और वे रोहित के पास जाक़र उससे लिपट गए। फिर दादी पर नजर पड़ते ही सहम कर थोड़े पीछे हो क़र खड़े हो गए और उसी जबकि सहमी हुई नजरों के साथ  बच्चे धीरे-धीरे आरुणि की ओर मुड़ते हैं और अपने चेहरे को प्रश्नवाचक चिन्ह बनाकर आरुणि की ओर ध्यान से देखने लगते हैं।

आरुणि बच्चों की इस हरकत पऱ हँसती हुई बताती है कि “ये रोहित भैया की दादी हैं तो हम सब की भी दादी हैं।” बच्चे दादी को प्रणाम कर उन्हें घेर कर बैठ जाते हैं।

और दादी हँसती हुई आरुणि को मुग्ध होकर देख़ रही थीं, उन्हें लगा रहा था जैसे ये आरुणि की हँसी नहीं होकर रजनीगंधा का फूल हो, जो उनके चारों ओर बिखर गया।

“ऐसे क्या देख़ रही हैं दादी।” रोहित दादी के चेहरे के भाव को देखते हुए उनके कान में धीरे से कहता है।

“अरे, कुछ नहीं।” बोलती हुई दादी के चेहरे पर छाया आनंद कम नहीं हुआ था।

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दादी-पोते की बातों से अनभिज्ञ आरुणि बच्चों को अन्य लड़कियों के साथ कमरे में भेज देती है। साथ ही दादी और रोहित को अपने कमरे में आराम करने के लिए ले आती है।

दादी और रोहित को आराम कहने कह योगिता की मदद के लिए आरुणि रसोई की ओर जाने के लिए उद्दत होती है, लेकिन दादी हाथ पकड़ उसे वही अपने पास बिठा लेती हैं, “बैठ बेटा.. कुछ बातें करनी है तुमसे।”

आरुणि वही दादी के पास बैठ जाती है और रोहित दोनों को देखता हुआ सामने बिछी हुई बेड पर बैठ जाता है।

“रोहित ने तुम्हारे मम्मी पापा के बारे में बताया बेटा। बहुत दुःख हुआ जानकर.. राधा, योगिता, तृप्ति, बच्चों, इन बच्चियों के बारे में सुनकर बहुत ही बुरा लगा। भगवान भी जाने कैसे कैसे खेल रचता है। क्या हुआ था बेटा.. मुझे पूरी बात बताओ”.. दादी बिना किसी भूमिका के आरुणि का हाथ अपने हाथ में लेकर बहुत प्यार से कहती हैं।

आरुणि की आँखों को उस प्यार की भावना का आभास हो रहा था, जो दादी की बातों से उभर रहा था। आँखें प्यार की भावना का अहसास क़र अपने आँसू आरुणि के कपोलों पर गिरा रहे थे, जिससे उसकी आँखों की रोशनी धुंधली हो गई थी। दादी ने उसे संबोधित किया और उसकी शांति के लिए उसकी पीठ को सहलाते हुए उसे रोने दिया।

आरुणि के अश्रु धीरे-धीरे सुकून पाने लगे थे और वह दीवारों पर की गई कलाकृति को देखती हुई खुद को संभालने का प्रयास क़र रही थी। दीवारों पर की गई कलाकृति देखते हुए उसकी आँखों में गहराई लहरा रही थी, मानो वह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उनसे आदेश माँग रही हो। और उसका हृदय ध्वनि से भरी खामोशी में, उस कलाकृति के साथ अपने भावों को समाहित करने का प्रयास कर रहा था, जैसे कि वह उसकी हर रेखा और रंग को ध्यान से समझ रही हो।

अब उसका चेहरा शांति और समाधान का प्रतीक था, जो उसके भीतर की ऊर्जा को पुनः स्थापित कर रहा था। कलाकृतियों को देखते हुए आरुणि ने कहना प्रारम्भ किया, “छोटा सा परिवार था हमारा.. मम्मी पापा और मैं। मेरे दादा जी मुंबई में रहते थे और वहाँ उनके तीन चार होटल थे। यहाँ की जगह दादी को पसंद आने के कारण उन्होंने सुकून की वादियों में कुछ पल बिताने के लिए दो कमरों का एक मकान लिया था।

मम्मी जब शादी के बाद यहाँ आई तो यही की होकर रह गई। मम्मी दादी की पसंद थी और पापा की बेइंतिहा मोहब्बत थीं। इसीलिए मम्मी की ख्वाहिश पापा की ख्वाहिश बन जाती थी.. पापा भी यही के होकर रह गए। साथ ही यहाँ उन्होंने कैफे भी बना लिया और मम्मी अपनी पेंटिंग का वर्कशॉप देखने लगी। मम्मी पापा मुंबई आते जाते रहते थे या दादा दादी ही यहाँ कभी-कभी आ जाते थे। मम्मी बताती थी कि मेरा जन्म होने वाला था..

तभी किसी ने इस हवेली के बारे में बताया था। देखते ही मम्मी को यह हवेली पसंद आ गई थी। उन्हें बहुत पसंद आई थी ये हवेली। तब से यह हवेली हमारा हो गया। मम्मी बताती थी कि जिस दिन गृह प्रवेश की पूजा रखी गई थी.. उसी दिन मेरा जन्म हुआ था तो उस दिन बस छोटी सी पूजा दादी ने की थी। मेरे अस्पताल से आने के बाद गृह प्रवेश और मेरे पहली बार घर में आने की खुशी में दादी ने बड़ी सी पूजा और पार्टी रखी थी.. अपने सारे रिश्तेदारों को निमंत्रण दिया था दादी ने।

उसी दिन मेरा नामकरण भी किया गया था और दादी ने ये कहते हुए कि हम सब की लाडली आई है.. मेरा नाम आरुणि रखा था और उसी दिन इस हवेली को “जीवन का सवेरा” नाम दिया गया और कैफे का नाम बदलकर “आरुणि कैफे” कर दिया गया। धीरे धीरे कैफे भी अच्छा चलने लगा.. मम्मी की पेंटिंग की प्रदर्शनी भी लगती रहती थी। मैं भी स्कूल जाने लगी थी.. मेरे प्यार में पड़ी दादी भी अब ज्यादातर यही रहती थी। सब कुछ बहुत अच्छा था… समय बस भागा जा रहा था..

मैं दसवीं में थी.. जब अचानक दादी की तबियत खराब हुई और वो चली गई। उनके जाने के बाद पापा ने दादा जी से आग्रह किया कि अब वो यही रहे क्यूँकि पहले दादी मुंबई भी चली जाती थी, पर अब दादा जी बिल्कुल अकेले हो गए थे। दादी के जाने के दो साल तक ही दादा जी भी अपना जीवन जी सके।

पापा ने मुंबई के होटल्स सम्भाल लिया और मम्मी ने यहाँ कैफे और अपनी चित्रकारी की जिम्मा बखूबी सम्भाल लिया था। मैं अब कॉलेज में आ गई थी। उनके साथ साथ मैं भी कभी कभी कॉलेज की छुट्टी होने पर कैफे जाती और काम देखती। शायद प्रकृति मुझे आगे के जीवन के लिए तैयार कर रही थी। प्रकृति के इशारे इंसान कहाँ समझ पाता है। एक साल पहले की ही बात है दादी.. मैं कॉलेज के अंतिम साल की परीक्षा देकर फ्री थी और अधिक से अधिक समय कैफे में गुजारती थी और मम्मी की पेंटिंग्स की माँग भी बहुत थी तो मम्मी अब अपना सारा ध्यान वर्कशॉप पर ही देने लगी थी।

पापा मुंबई का कारोबार देखने जाते रहते थे। एक दिन मम्मी पापा एक शादी अटेंड करने मुंबई गए थे। मेरी बदकिस्मती ही थी.. जो मम्मी पापा के कहने पर भी उनके साथ नहीं गई। शादी अटेंड कर लौटने में रात हो गई थी और दिन भर बारिश होने के कारण रास्ते फिसलन भरे थे। उसी में उनकी गाड़ी फिसल गई और खाई में जा गिरी”… ये कहते हुए आरुणि फफक कर रो पड़ी.. दादी ने उठकर उसे अपने आलिंगन में ले लिया।

रोहित की आँखों से भी आँसुओं की एक धारा बह चली थी। वो तो इस बात से बिल्कुल अनजान था कि इस खिलखिलाती लड़की ने अपने मन के अंदर इतना बोझ छुपा रखा है। एक निस्तब्धता सी छा गई थी कमरे में …जिससे अंजान राधा आरुणि को आवाज देती निस्तब्धता तोड़ती कमरे में लंच के लिए बोलने आई और आरुणि को रोता देख किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गयी। फिर बिना कुछ बोले लौट गई और जाकर अपने कमरे में शून्य सा हृदय लिए बैठ गई। 

***

उस कमरे में योगिता और तृप्ति पहले से ही मौजूद थी। मूर्ति की तरह राधा को बैठे देख तृप्ति ने उसके कंधे को हिलाते हुए पूछा “क्या हुआ राधा.. तुम लंच के लिए पूछने गई थी ना।”

राधा सूनी सूनी आँखों से योगिता और तृप्ति से कहती है, “आरुणि रो रही थी… शायद मम्मी पापा के बारे में बात हो रही थी। ये कहते हुए राधा की आँखें गिली हो गईं। 

“चलें क्या आरुणि के पास”…तृप्ति भारी हो गए हृदय से पूछती है।

“नहीं.. उसके दिल में बहुत गुबार भरा है। दादी के आँचल में निकल जाने दो। हम तो फिर भी आरुणि के सामने अपना गुबार निकाल देती हैं। बहादुर है हमारी आरुणि.. संभाल लेगी खुद को।” योगिता संजीदगी से दरवाजे के बाहर देखती हुई कहती है।

उधर आरुणि की रुलाई नहीं रुक रही थी। लग रहा था इतने दिनों से खुद को हल्का करने के लिए दादी का ही इंतजार कर रही थी।

उधर आरुणि की रोने की बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। उसे लग रहा था कि वह इतने दिनों से खुद को संभालने का प्रयास जरूर कर रही थी, पर वह स्वयं को संभाल नहीं पाई थी। समय भी दादी का ही इंतजार कर रहा था, जो की यह जानता था कि दादी के आशीर्वाद से ही उसे आशा और साहस मिलेगा और सच ही अब आरुणि का दिल दादी के साथ बातचीत करते हुए अपने दुखों को साझा करता हुआ हल्का महसूस कर रहा था। उसके आँसू अब दुख की निशानी न होकर एक साथी की तरह हो गए थे। उसकी आवाज में भी साहस और उम्मीद की रौशनी जगमगाने लगी थी, लेकिन उसके आवाज़ की हिचकी अभी रुकी नहीं थी तो रोहित चुपचाप उठ कर वही रखे हुए पानी के जग से दो गिलास में पानी ढ़ाल कर दादी और आरुणि को देता है। दोनों पानी पीकर थोड़ी संयत होती है।

“बेटा, यही जीवन है। कभी खुशियाँ, कभी दुःख और हमें इसे स्वीकार करके आगे बढ़ना होता है,” दादी आरुणि को अपने आँचल में हल्के हाथों से समेटती हुई कहती हैं। मानो सच में ही आरुणि कोई पुष्प हो, जो झटके से टूट जाएगी और आरुणि भी उसी कोमलता से दादी के आँचल में खुद को समा देती है।

“उसके बाद क्या हुआ”.. दादी ने पूछती हैं।

आरुणि उसी तरह दादी के देह से लगी-लगी ही बोलती है, “मैं तो बिल्कुल अकेली पड़ गई थ। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करुँ.. क्या नहीं करूँ। जो भी रिश्तेदार आए थे, उन सब को मुझसे ज्यादा पापा की सम्पति से लगाव था। वो तो पापा के दोस्त वकील अंकल ने “सब कुछ आरुणि के नाम पर है” कहकर बात को वही खत्म कर दिए। मुंबई की प्रॉपर्टी अंकल ही देखते हैं और उससे होने वाली इंकम मेरे अकाउंट में डलवा देते हैं। लेकिन फिर भी मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी।

एक दिन मैं खुद को खत्म करने के इरादे से पहाड़ी पर चली गई। मैं वहाँ जाकर थोड़ी देर ठहर गई थी… कूदने का सोच पैर बढ़ाया ही था कि किसी बच्ची की रोने की आवाज सुनकर मेरे पैर उधर ही मुड़ गए। हल्का हल्का अँधेरा घिरने लगा था.. फिर भी इतनी रौशनी थी कि सामने की चीजों को देखा जा सके।

मैंने देखा पेड़ के पीछे बैठी एक बच्ची रो रही थी। यही कोई चार पाँच साल की बच्ची थी। मैंने उसे गोद में लेकर इधर उधर देखा, कोई हो उसके साथ.. कोई मिला नहीं.. वो बच्ची भी अपने बार में कुछ नहीं बता रही थी.. नाम भी नहीं बता रही थी.. सिर्फ रोये जा रही थी। कुछ देर के लिए मेरी समझ में नहीं आया कि अब क्या करुँ। फिर कुछ देर सोचने के बाद लगा..बच्ची को लेकर पास वाले पुलिस स्टेशन जाती हूँ। शायद कुछ पता चले और संयोग देखिए दादी मैं उसे लेकर पुलिस स्टेशन पहुँची ही थी कि उसके मम्मी पापा भी रिपोर्ट दर्ज कराने वही पहुँचे। मैं बता नहीं सकती हूँ कि उस बच्ची को उसकी मम्मी की गोद में देकर और देखकर मुझे कितना सुकून मिला।

अगला भाग

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आरती झा आद्या

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