अपेक्षा नहीं तो कैसी उपेक्षा – शुभ्रा बैनर्जी

जीवन के बारे में बड़े-बूढ़ों का तजुर्बा कभी ग़लत नहीं होता। उम्र के आखिरी पड़ाव में चेहरे पर झुर्रियां,भूत वर्तमान और भविष्य की लहरों की तरह समय के परिवर्तन शील होने का प्रमाण देतीं हैं।आंखों की रोशनी कम तो हो जाती है,पर अनुभव का उजाला टिमटिमाते रहता है,बूढ़ी आंखों में।”बचपन”परीकथा की तरह सुखद होता है।

निर्भीक मन आसमान की ऊंचाई नाप लेना चाहता है,मासूम आंखें हिमालय से भी ऊंचे सपने देखने से नहीं हिचकतीं।यही निरंकुश बचपन समझदारी की परतों में खोने लगता है,जब यौवन दहलीज़ पर आता है।डर,चिंता,सुख, दुःख मानों खिड़की पर डेरा ही जमा लेते हैं।बेलगाम सपने अब बहुत दुःख देने लगते हैं।प्रेम पीड़ा लाता है,मिलन ,विरह। उचित-अनुचित के फेर में सामान्य होकर नहीं रह पाता मन।आखिर में वृद्धावस्था में आकर हम सभी अपनी अतृप्त आकांक्षाओं की विवेचना करने बैठ जायें हैं।हमें प्रेम और सम्मान की जगह सहानुभूति की आवश्यक्ता होने लगती है। सामंजस्य ही नहीं हो पाता वर्तमान पीढ़ी से।

“रश्मि!ओ रश्मि!” नीरू आंटी की चिरपरिचित आवाज सुनकर, रश्मि मानो नींद से जागी।ये खाली दिमाग भी किसी बरसाती गड्ढे से कम नहीं।कैसे-कैसे विचार भरते जातें हैं। रश्मि ख़ुद से बड़बड़ाते हुए दरवाजा खोलने लगी।सामने नीरू आंटी खड़ी थी।उफ्फ!फिर से अपनी बहू की कमियां गिनाने लगेंगी।पूजा ने ये किया,ये नहीं करती,चाय तक नहीं देती, वगैरह-वगैरह।जल्दी से उन्हें बैठाकर चाय ले आई वह लाल ,बिना शक्कर की।चाय की चुस्कियां लेते हुए जैसे ही नीरू आंटी कुछ बोलने को तैयार हुईं,रश्मि ने पूछा”और आंटी,कब जा रही है आपकी पूजा मातारानी के दरबार?”

“अरे कुछ मत पूछो बेटा,मेरी ऐसी हालत में कैसे जा सकती है वह इतनी दूर?मुझे कौन देखेगा?”आंटी के जवाबी हमले के लिए रश्मि भी तैयार थी।”अरे!आपको क्या हुआ?इतनी एक्टिव हैं आप।पूजा कौन सा सारा दिन आपकी सेवा करती रहती है,जो उसके जाने से फर्क पड़ने लगा आपको।”




अब नीरू आंटी थोड़ा फैलकर बैठी,खुश जो हो गईं थीं।”ये तुमने बिल्कुल सौ टके की बात की बेटा।मैंने कहा तो है जाना है अगर तो, नीलू(उनकी बेटी) को भी साथ ले जाएं,उसके बच्चे का भी मुंडन करवा आएं लगे हांथ।”

“आंटी,नीलू के बेटे के मुंडन की जिम्मेदारी उसके ससुराल वालों को ही उठाने दीजिए ना।पूजा का बड़ा मन है,उसे जाने दीजिए।पिछले साल तो आपको लेकर गई थी गोवा।”रश्मि ने याद दिलाते हुए कहा।

“अरे !कौन सा मुफ़्त में गई थी मैं,गिन-गिन कर पैसे रखे थे बेटे के हांथ में,तब गई थी।मैं किसी का अहसान नहीं लेती बेटा।घर का किराया आता है,अंकल की पेंशन है।मेरा खर्च ही कितना है?सब यही लोग तो खातें हैं।”आंटी ने धौंस दिखाने में कोई कसर न छोड़ी।अब रश्मि ने अपनी सास को बुलाना ही उचित समझा।मां!मां कहकर बुला लिया उन्हें।हाजिर जवाब थीं उसकी सास,वही संभालेंगी अब इन्हें।

“नमस्ते बहन जी,कैसी हैं आप?आंटी ने सहानुभूति जताते हुए पूछा?”

सास ने जवाब दिया”मैं तो बिल्कुल ठीक हूं,आप कैसीं हैं?”

“अरे बहन जी,हमारी किस्मत आपके जैसी कहां,जो इतनी अच्छी बहू मिले। ख़ुद ही ख़ुद का ध्यान रखना पड़ता है।आपकी बहू का तो जवाब नहीं।”आंटी अपनी  चिरपरिचित अंदाज में बोलीं।

“आजकल की बहुएं तो सास का जीना हराम करके रखतीं हैं।पतियों को ऐसे वश करतीं हैं कि फिर मां दिखती ही नहीं उन्हें”।आप कैसे घर में रह पातीं हैं?बेटियों के घर भी नहीं जातीं आप।दम नहीं घुटता आपका?”बस इतना सुनते ही रश्मि की सास बोलने लगीं”दम क्यों घुटेगा भला?अपनी बेटी के साथ अपने घर में ही तो यह रहीं हूं मैं।इसे छोड़कर नहीं जाती मैं कहीं।बहन जी बहू को अगर बेटी समझिए तो देखिएगा उसमें बेटी ही नज़र आएंगी आपको”।




नीरू आंटी का मुंह बन गया”हां वो तो ठीक है।आपको पेंशन तो मिलती होगी ना, भाईसाहब की?”अगला वार बड़ा जबरदस्त था उनका।

“नहीं-नहीं मुझे पेंशन नहीं मिलती पर मेरी बहू हर महीने मेरे हांथ में रुपए रख‌ देती है। अच्छा ही है।यह पैसा ही सभी फ़साद की जड़ है।ना हांथ में ज्यादा पैसे रखने चाहिए इस उम्र में और ना ही अपने बच्चों से अनावश्यक अपेक्षाएं।यदि “अपेक्षा “ही नहीं रहेगी तो “उपेक्षित” होने का डर अपने आप ही चला जाएगा।पैसों की धौंस से हर रिश्ता टूट जाता है।पराए घर से आई लड़की को अगर बेटी मान लें हर सास तो सास भी मां बन ही जाएगी।

“सास की गूढ़ बातें सुनकर थोड़ा सकपकाईं नीरू आंटी।उन्हें संभलने का मौका भी नहीं मिला”बहनजी, बुढ़ापे में हमारी सबसे बड़ी दुश्मन होती है हमारी जुबान।यदि शांति से जीना है तो इस पर लगाम कसकर लगाना पड़ेगा।तभी हमारा हाजमा भी ठीक रहेगा और संबंध भी।बच्चों पर जरूरत से ज्यादा अधिकार जताने से वो ख़ुद ही दूर हो जातें हैं।मन की सारी इच्छाएं पूरी कहां होने पातीं हैं सभी की।

अपनी मरी हुई इच्छाओं को जितना हम हवा देंगे,उतना ही कलह की आग जलती रहेगी परिवार में।हमारे बुढ़ापे को झेलने के लिए हमने औलाद की शादी नहीं की।हमें अपनी औलाद पर विश्वास होना ही चाहिए।जितना हम रिश्तों की डोर कसते जाएंगे,वो एक ना एक दिन टूट ही जाएंगे।”अच्छा आप बैठकर बातें करिए मेरी बहू से,मैं चलती हूं।”रश्मि अवाक होकर अपनी सास की बात सुन रही थी।ये तो जीवन का अमोघ अस्त्र दे दिया मां ने।

मैं भी तो बूढ़ी हो जाऊंगी एक दिन।अभी भी छोटी-छोटी बातों पर झल्ला जाती हूं बेटे पर।शादी के बाद तो उसकी ज़िंदगी नरक बन जाएगी। नहीं-नहीं उसे अपना बुढ़ापा सहानुभूति लेकर नहीं बल्कि सम्मान लेकर गुजारना है।अपनी सास की तरह खुश रहने का बहाना ख़ुद को ही तलाशना होगा।बेटे पर इतनी ज्यादा जिम्मेदारी डालना ठीक‌ नहीं।बच्चों से पूछकर तो उन्हें हम इस दुनिया में नहीं लाते ना।

तो उनके कंधों पर बेताल की तरह क्यों सवार रहें हम?।हमारी परवरिश यदि अच्छी है,हमने ख़ुद संस्कार निभाएं हैं तो बुढ़ापे का सहारा स्वयं ही बनेंगे हमारे बच्चे।जितनी भी इच्छाएं पूर्ण नहीं हो पाईं वे सारी पूर्व नियोजित होंगी,उन्हें बच्चों के ऊपर क्यों थोपें हम?आज रश्मि को भी उपेक्षित होने के डर से मुक्ति मिल गई।

“आंटी,आप इतने अच्छे दहीवड़े बना लेतीं हैं अभी भी,कभी खिलाइये ना मुझे भी।”रश्मि ने बातों का क्रम बदलना चाहा।”




“अच्छा!पूजा ने बताया होगा ना तुम्हें।”

“हां आंटी,वो तो इतनी तारीफ करती है आपके खाने की कि पूछिए मत।कभी आपकी बुराई नहीं की उसने।(झूठ बोला रश्मि ने)”

“सच्ची!!!!!मुझे तो भरोसा ही नहीं हो रहा।पूजा और मेरी तारीफ।”आंटी सकते में आ गईं।

अगले दिन रास्ते में पूजा से मुलाकात हुई तो उसे भी थोड़ा सा झूठ बोल ही दिया रश्मि ने”पूजा ,आंटी जी तो इतनी तारीफ कर रहीं थीं तुम्हारी कि पूछो मत।”

ये दोनों झूठ लगा काम कर गए थे।अब नीरू आंटी के मुंह से ना तो पूजा के खिलाफ कुछ सुनने को मिला और ना पूजा के मुंह से अपनी सास के बारे में।रश्मि को बहुत खुशी हुई। अपेक्षाएं कम हों रहीं थीं शायद दोनों की एक दूसरे के प्रति और उपेक्षित भी नहीं हो रहीं थीं दोनों।कुछ दिनों के बाद ही पूजा जा रही थी वैष्णोदेवी।नीलू को आंटी ने बुलवाया था देखभाल के लिए।

शुभ्रा बैनर्जी

#जन्मोत्सव

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