मां की इज्जत – शुभ्रा बैनर्जी

निर्मला आज पूरे कॉलोनी में लड्डू लेकर अपने कैंटीन के उद्घाटन का न्योता दे रही थी।समय के साथ जैसे हर दिन एक नई निर्मला अवतरित होती जा रही थी।वही जोश,वही उमंग,वही हंसी।बहुत कुछ बदला था उसकी ज़िंदगी में,पर नहीं बदली तो उसकी हिम्मत।पिछले बीस सालों से जानती थी मैं उसे।

हमारी सोसायटी के बाहर एक छोटे से निजी घर में पति और बच्चे के साथ रहती थी।पति गार्ड थे किसी निजी कंपनी में।अपने बेटे को विदेश में भेजकर पढ़ाने का सपना पालने वाली निर्मला मेरी प्रेरणा थी।पति की कम तनख्वाह के चलते उसने घर में इडली-सांभर बनाकर बेचना शुरू किया था।खूब चलती थी उसकी दुकान।मैंने भी होस्टल में रहने वाले छात्रों को उसका नियमित ग्राहक बना दिया था।

पिछले कई सालों से उसका बेटा”गणेश”विदेश पढ़ने गया था,फिर लौटकर नहीं आया अभी तक।अपनी मां के इडली-सांभर बेचने से उसे बहुत आपत्ति थी।अपने स्कूल भी लेकर नहीं जाता था,सजी संवरी मां को।कहता था तुम मेरी बेइज्जती करवा देती हो अम्मा।ना पढ़ी लिखी हो तुम और ना ही सजने संवरने का सलीका आता है तुम्हें।

निर्मला ने अपने आप को समझा लि या था।दिन-रात मेहनत करती थी,बेटे को विदेश भेजने के लिए। बारहवीं में बहुत अच्छे नंबरों से पास हुआ था गणेश। विदेश जाने के लिए बहुत सारे रुपए लगेंगे। गणेश दवाब बनाने लगा था घर गिरवी रखने का। निर्मला ने किसी तरह पति को मना लिया था यह कहकर कि हमारा बेटा जब खूब कमाने लगेगा,तो छुड़वा लेगा।

गणेश पढ़ाई पूरी कर वहीं नौकरी करने लगा था।बड़ी मुश्किल से दिन में एक बार बात करता था।महीने में कुछ डॉलर भेज दिया करता था,जो भारत में पांच हजार होते थे। निर्मला के पति की तबीयत खराब रहने लगी।एक दिन नौकरी  पर जाते हुए ही दिल का दौरा पड़ा।संभलने का वक्त ही नहीं मिला। गणेश ने साफ-साफ कह दिया था कि अभी उसे छुट्टी नहीं मिलेगी। निर्मला ने एक बूंद आंसू बहाए बिना अपने पति को मुखाग्नि दी।




निर्मला के दृढ़ व्यक्तित्व के सामने मैं खुद को बौना समझती थी।कुछ महीनों से निर्मला दिखाई नहीं दे रही थी।अचानक एक दिन ऑटो से उतरते समय मुझे देखकर हांथ हिलाया उसने।जोर से लगभग चीखकर बोली “दीदी मैं एक संस्था में पढ़ाई करने जाती हूं।आपने बोला था न,बहुत ज़रूरी है औरतों का पढ़ना।

“ओह !मैं चकित होकर निर्मला को निहारती रही।कुछ दिनों के बाद निर्मला फिर दिखाई दी अपने बेटे के साथ।बैंक जाते हुए मुझे नमस्ते की उसने।मैं बहुत खुश हुई कि अब बेटा ले जाएगा अपने साथ।सारी तकलीफें ख़त्म हो जाएंगी।एक सप्ताह के बाद ही निर्मला आई अपने पासबुक के साथ।निराश होकर बोली”दीदी,क्या इसी दिन के लिए मां-बाप औलाद मांगते हैं

भगवान से?”मैं कुछ समझी नहीं तब उसने आगे कहा”गणेश ने मेरे पति की आखिरी जमा पूंजी भी अपने खाते में ट्रांसफर कर ली दीदी।अब मेरे पास घर के अलावा कुछ भी नहीं बचा।”मैं निरुत्तर थी। सांत्वना के शब्द मिले ही नहीं मुझे।गणेश अब वहीं शादी भी कर चुका था।घर खरीदने के लिए अपनी मां को ये घर बेचने के लिए दवाब डालने लगा।

निर्मला ने फोन पर साफ-साफ कह दिया,कि इस घर की तरफ आंख उठाकर भी ना देखे।ये उसके दादा-दादी की निशानी है।उसके मृत पति की इज्जत है यह घर।गणेश ने हंसकर मजाक उड़ाते हुए कहा था”अम्मा,तुम रही ना अनपढ़ की अनपढ़।तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और मैं घर बेच दूंगा।

तुम्हारे रहने का कुछ ना कुछ इंतज़ाम सोसायटी वाले कर ही देंगें।यह बात बताने आई थी उस दिन शाम को निर्मला और मुझे स्तब्ध करते हुए कहा उसने”दीदी,मैं एक औरत हूं मां होने के पहले।अपनी इज्जत अपने बेटे को उतारने नहीं दूंगी।बहुत जल्दी ही आपको “शरप्रआइज” दूंगी।




और आज़ निर्मला अपने घर को एक बड़े बिल्डर को बेचकर,अपने लिए दो कमरों का घर लेकर,उसमें अपना कैंटीन खोल रही थी।मुझे ताज्जुब बिल्कुल भी नहीं हुआ, गर्व हुआ बल्कि उस पर।तय समय पर समारोह में पहुंच कर देखा बड़ी अच्छी व्यवस्था की थी उसने।एक छोटा सा पंडाल ,नाश्ता,मंच।

मैंने उसे कांजीवरम की साड़ी और गजरा उपहार में दिया।बिना देर किए वह पहन भी आई।मंच पर मां गौरी,शिव और गणेशजी की फ़ोटो पर फूल चढ़ाने के बाद उसने कुछ अजनबी लोगों से बातचीत की और माइक लेकर बड़े आत्मविश्वास से मेरा नाम पुकारा।मैं कुछ समझ पाती तब तक उन अजनबी लोगों ने एक प्रमाणपत्र दिया मुझे निर्मला को देने के लिए।यह उसकी प्राइवेट उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में पास होने का सर्टिफिकेट था।

मेरे हांथों लिया उसने।सभी अपनी -अपनी कुर्सियों पर बैठ गए। निर्मला आज किसी मंजे हुए वक्ता की तरह बस बोल रही थी ,और सब उसे मूक होकर सुन रहे थे।अपने मन की वेदना को उसने बेटे के तिरस्कार में आहुति दे दी।अपनी बेइज्जती का बदला लिया था उसने।एक मां की इज्जत बचाने की जिम्मेदारी मां की ही होती है।

उसने कहा “मैंने अपने बेटे का नाम गणेश रखा था यह सोचकर कि माता पिता ही उसके लिए उसकी दुनिया होंगें।मेरी भूल थी यह ,मां जगदम्बा जब अपने स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए नौ रूप धर कर जगत का कल्याण कर सकती हैं तो हम मांएं भी अपने बेटे के द्वारा की गई बेइज्जती क्यों स्वीकार करें?

आज से यह कैंटीन खुला,सिर्फ पांच रुपए में भरपेट इडली-सांभर खा सकतें हैं मेरे सभी बच्चे।हां बड़ों के लिए पचास रुपए प्लेट रहेगी”।और भी बहुत कुछ कहा उसने।मैं आज नवरात्र में आदिशक्ति मां का दसवां रूप देख रही थी।अनपढ़,गंवार मां ने अपने बेटे को विदेश भेजने के लिए जो काम मजबूरी में शुरू किया था,उसे अब वह इज्जत की कमाई का जरिया बना चुकी थी।ना जाने कितने गणेश उसके कैंटीन में खाकर पढ़ाई करते हैं अब।

शुभ्रा बैनर्जी

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