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मेरी अमृता – जयसिंह भारद्वाज

मॉर्निंग वॉक से आकर साथ लाये कनेर, गुलाब, चाँदनी, बेला, अपराजिता के फूल और कुछ तुलसीदल भगवान जी की अलमारी के पास रखी फूलों वाली टोकरी में रख कर मैं रसोई में घुस गया और प्रतिदिन की तरह काढ़ा बनाने की तैयारी करने लगा।

अमृता अभी बिस्तर ठीक कर रही हैं। फिर झाड़ू और अंत में पोछा लगाएँगी। पूरे नब्बे मिनट की प्रतिदिन की यह सुबह सुबह की व्यस्तता रहती है उनकी।

“ये रहा तेजपत्ता, दालचीनी, कालीमिर्च, लौं…. ग… ये लौंग कहाँ रख दी बे!” मैंने पुकार लगायी।

“रसोई वाले डिब्बे में कल रात समाप्त हो गयी है। यहाँ भगवान जी के पास रखे लौंग इलाइची वाले डिब्बे से ले लीजिए। और हाँ पैड में इसे भी लिख दीजिये खरीदने वाली लिस्ट में” अमृता  मच्छरदानी समेटती हुई बोली।

“अरे यार! …चलो बिना लौंग के ही बनाता हूँ” कह कर मैंने मसालदानी की तली में पड़ी चार लौंग कुचलकर भगौने के खौलते पानी मे डाल दी।

“ये रही मेथी, अजवाइन, कलौंजी, कालानमक औऱ अंत में ये रही अदरख…बे! और कुछ।” मैंने कहा।

“ये रही तुलसी की पत्तियाँ..” रसोई में घुसते हुए मुस्कुरा कर अमृता बोली और अपने हथेली मेरी तरफ कर दिया।

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काढ़े को दो मग में छान कर मैं बोला,”बे! यह तुम्हारा मग फ्रिज के ऊपर रख दूँ या वाशिंग मशीन के ऊपर।”

“वहीं बाहर वाले कमरे में लिए चलिए। मैं भी आती हूँ।” झाड़ू एक तरफ रखते हुए अमृता ने कहा।

“न्यूजपेपर अभी तक आया नहीं है इसलिए मैं तो बेड में बैठ कर इसे समाप्त करूँगा।”


“तो ठीक है, यहीं ले आईये।”

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अमृता ने सुबह उठकर बेडशीट बदल दी थी, तकिये के कवर बदल दिए थे, पैताने पड़ी सिकुड़ी सिमटी चादर को उठाकर और ठीक से तह करके अलमारी में रख दिया था।

मैं अभी भी सोच रहा हूँ कि मेरे मन की सलवटें, मेरे हृदय का गीलापन और मेरे घुटनों के नीचे उतर चुके मेरे सिकुड़े सिमटे आत्मविश्वास को कौन ठीक करेगा?

“कुछ सोच रहे हैं आप?” अमृता का स्वर सुनाई दिया तो मैं चौंक पड़ा।

काढ़े का सिप लेते हुए मैंने कहा, “बे! मस्तिष्क तनिक भ्रमित है और अस्थिर भी।”

“हाँ, दो तीन दिनों से देख रही हूँ कि न तो आप आईपीएल का पूरा मैच देख रहे हैं और ना ही वर्षों से देख रहे अपना प्रिय धारावाहिक ‘नेकेड एन्ड अफ्रेड’। जल्दी सो जाते हैं और ढाई-तीन बजे रात से बैठ कर ‘नमामीशमीशान निर्वाणरूपम विभुंव्यापकम ब्रह्म वेदस्वरूपं’ का पाठ करते रहते हैं..।”

“बे! तुम्हें याद है वर्षों पहले मैंने एक लड़की की चिट्ठी तुम्हें दिखाई थी जो मेरे ऑफिस के पते पर आयी थी।”

“हाँ, गढ़वाल की किसी मंजू का था जो आपसे बस में मिली थी जब आप लखनऊ से हल्द्वानी टूर पर गए थे। तब हमारी शादी के दो साल ही हुए थे। लेकिन वह बात तो तभी समाप्त हो गयी थी।”

“मैं भी यही सोच रहा था किंतु…”

“किन्तु क्या… क्या फिर से कोई चिट्ठी पत्री आयी है? इतने सालों बाद!”

“अब चिट्ठी का जमाना कहाँ रहा! उसने मुझे फेसबुक में खोज लिया।”

“फेसबुक में! किन्तु कैसे भला?”

“तुम आजकल मुझे प्रतिदिन टोकती रहती हो न कि मैं हर समय मोबाइल में क्यों घुसा रहता हूँ तो पिछले माह ही मैंने एक हज़ारों सदस्यों वाले ग्रुप को ज्वाइन किया है। दिन में कहानियाँ लिखता हूँ। कुछ किसी घटना पर तो कुछ अपने परिवार की और परिवार के सदस्यों की कहानियाँ होती हैं। फिर रात में इन्हें ग्रुप में डाल देता हूँ। बाद में पाठकों के रिएक्शन पर अपनी प्रतिक्रिया देता हूँ। इसलिए मोबाइल में लगा रहता हूँ।..”


“वो तो ठीक है लेकिन मन्जू का क्या..?”

“हाँ वहीं पर आ रहा हूँ बे! उसी ग्रुप में एक महिला सदस्य है जो मन्जू के नाम से नहीं बल्कि एक पुरुष के नाम से है। पहले वह मेरा फेसबुक मित्र बना और बाद में मेसेंजर में बात होने लगी। आरम्भ में तो बस ऐसे ही हाय हेलो होती रही फिर एक रात उसने मेरी कहानी “अम्मा” और “बड़े बबुआ” को पढ़ कर मुझे मेसेज किया, ‘मैं आप से मिल चुका हूँ’

‘नहीं। कभी नहीं।’

‘बात पुरानी है। 1990 के जून माह में।’

‘मुझे स्मरण नहीं’

‘कैसरबाग बसअड्डे लखनऊ से हल्द्वानी तक जाने वाली रात साढ़े आठ बजे वाली अंतिम बस में।’

‘…. म न जू..’

‘अरे वाह! आपको मेरा नाम आजतक याद है..’

‘लेकिन आप तो मेल मेम्बर हैं’

‘यह मेरी फेक आईडी है सोशल मीडिया के लिए। लड़कियों के नाम पर कुछ लोग इतना परेशान कर देते हैं कि मत पूछिए.. यह आइडिया मेरे पति का था।’

‘आपने मुझे पहचाना कैसे? उस समय तो फेसबुक तो था ही नहीं। मैंने फेसबुक को ज्वाइन ही 2011 में किया है।’

‘मैं एक सरकारी अफसर हूँ देहरादून में। पिछले 20-25 सालों में कितने लोगों से मिली होऊँगी कि … उफ्फ! कह नहीं सकती। लेकिन आपके साथ हुई 8 घण्टों की वह मुलाकात और मुलाकात में आपसे परिचय, आपका स्वभाव, आपके बोलने का ढंग, आपका शब्द चयन.. अविस्मरणीय है मेरे लिए। यहाँ ग्रुप में आपकी दो कहानियाँ पढ़ी तो मेरे दिमाग में जमा जमाया आपका स्वभाव और आदतें बिल्कुल सामने आ के खड़ी हो गयी और मेरे दिल ने कहा कि यह आप ही हो सकते हैं। आपके जैसा व्यक्ति ही ऐसी कहानियों का रचनाकार हो सकता है। मेरे अनुरोध पर बरेली में बस के रुकने पर 20 मिनट में आपने मेरे लिए जो गीत लिखा था वह मुझे शब्द शब्द याद है।’

‘बड़े अचरज की बात है। मुझे गीत का एक भी शब्द याद नहीं किन्त मेरी डायरी में अवश्य लिखा होगा’

‘आपके विजिटिंग कार्ड के पते पर मैंने आपको एक पत्र लिखा था पर आपने उत्तर नहीं दिया। क्यों?’

‘उत्तर दिया था, पहुँच नहीं पाया होगा क्योंकि तुमने उसमें सिर्फ अपने गाँव का नाम लिखा था। पोस्ट ऑफिस नहीं लिखा था।’


‘अरे! पोस्ट ऑफिस भी वही है। खैर, आपको एक बात और बता दूँ। आपसे एक बार मिलने वाला व्यक्ति जीवन भर आपको याद रखेगा।’

‘अरे! यह बात तो मेरे बहुत से मित्र कहते हैं।’

‘देखा! मैं कह रही थी न..

‘ओके! शुभ रजनी’

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“तो इसमें परेशानी वाली बात क्या हुई! सब कुछ तो सामान्य सा है।”

“बे! तुम समझ नहीं रही हो। मुझे घबराहट होने लगी है।”

“घबराहट क्यों? आपने गलत क्या किया जो डर लग रहा है।”

“दो दिन पहले वह देहरादून में या कानपुर में मिलने को कह रही थी। तब से आज तक मैं उसके सन्देश ही नहीं चेक कर रहा हूँ।”

“अरे यार भारद्वाज जी! अभी भी वही 25-26 साल के लड़कों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। अरे! इतना बड़ा तो आपका बेटा हो गया है। आप भी न…”  कह कर अमृता उठीं और मेरे हाथ से मग लेकर नीचे रखा। फिर अपनी दोनों बाहें फैलाईं और मेरी गर्दन के पीछे से लपेट कर मेरे चेहरे को अपने पेट से सटा लिया। पीठ में हौले हौले सहलाते हुए कहा, “लोग आप को धर्मराज युधिष्ठिर ऐसे ही नहीं कहते हैं। अपने भाइयों के लिए आप भगवान हैं। आप से कोई गलती हो ही नहीं सकती और यदि विवशता में कोई अपराध भी कर के आ जाएं और आप स्वयं कहें तब भी कोई मानने को तैयार नहीं होगा। आप मेरी तरफ से एकदम निश्चिंत रहिये। मेरा आप पर अंधा विश्वास है। और सुनिए! जैसा कि आप कहते हैं कि इंटरनेट की दुनिया एक नकली और अविश्वसनीय दुनिया है लेकिन इसी नकली दुनिया ने आपको देश विदेश के कुछ बेहतरीन मित्र दिए हैं जिनसे आप पिछले 8-9 सालों से साल में एक बार मिलते भी रहते हैं किसी न किसी शहर में जाकर। मैं स्वयं जयपुर ट्रिप के दौरान वहाँ के आपके तीन इंटरनेट मित्रों से आपके साथ भेंट की है। मन्जू भी तो अबतक 53-54 वर्ष की होगी ही, बाल बच्चेदार होगी। उसके मन मे पाप तो होगा नहीं हालांकि चिट्ठी में तो घनघोर वाला प्यार जताया था किंतु तब वह उसके कुवांरेपन के भाव थे। आप बेफिक्र हो कर जाइये और मिलकर आइए। आज रात में मैं  बेटे से कहकर  देहरादून की टिकट बुक कराती हूँ आपकी…”

“नहीं… हम दोनों की” मैंने कहा औऱ अपनी बाजुएं उनकी कमर में लपेट दीं और बुदबुदा पड़ा, ‘बे! तुम हो तो ‘जय’ है।’

मौलिक रचना: जयसिंह भारद्वाज, कानपुर।

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