मेरा कसूर क्या था? – डाॅ उर्मिला सिन्हा : Moral stories in hindi

 भैया ने कुछ शादी के कार्ड थमाते हुये कहा, “लगे हाथ इसे भी बांटते आना, छोटू तुम्हारे साथ जा रहा है… तुम्हारी मदद कर देगा। “

छोटे बड़े सामानों की सूची… पैसा भाभी ने मुझे पहले ही थमा दिया था… ड्राइवर गाड़ी में थैले रख रहा था।

आज ही मैं आई हूं। भैया की बेटी का विवाह है। घर में कोई चहल-पहल नहीं… बिल्कुल सन्नाटा पसरा हुआ है। दिल के मरीज़ भैया सुस्त पड़े हुये हैं… सदा से ही कम बोलने वाली भाभी … बिटिया विवाह में होने वाले खर्चे, रीति-रिवाज  आदर-सत्कार की चिंता में घबराई हुई हैं।

सगे के नाम पर मैं ही आज पहुंची हूं… वह भी अकेली।

” मुझे अभी छुट्टी नहीं मिलेगी …दफ्तर में काम बहुत है… तुम चली जाओ मैं विवाह के समय  आ जाऊंगा”पति ने पीछा छुडा़या…इकलौता बेटा नैनीताल हास्टल में है.. अतः उसके आने का प्रश्न ही नहीं है।

“दो दिनों के बाद विवाह… कोर्ड अभी तक नहीं बंटा” मुझे आश्चर्य हुआ।

“कार्ड बांटना झमेले का काम है… मेरा स्वास्थ्य तुम जानती ही हो… कुछ भी मनमाफिक करने का इजाजत नहीं देता… तुम्हारी भाभी शादी की खरीदारी ,बारात का स्वागत ,अतिथियों  के आवभगत की तैयारी में लगी हुई है… बिटिया  का विवाह ही है… अकेला छोटू… सुबह से शाम तक दौड़ता ही रहता है “भैया एक सांस में सारी कथा सुना गये।

“अच्छा ठीक है, मैं आ गई हूं… सब हो जायेगा “मैने भैया का हौसला बढाया।

  यही भैया मेरी शादी की तैयारी में कितना खटे थे… न तब इतनी सुविधायें थी न पैसे। रिश्तेदार भी महीना भर पहले से ही  जमघट लगाये रहते… उनका रहना… भोजन पानी का बंदोबस्त… बात-बात पर बिन मांगे सलाह… ढोलक पर थाप देकर एक से बढकर एक  विवाह गीत… मेरे हृदय का सभी क्षोभ मिट गया। वैवाहिक समारोहों से जुड़ी पुरानी रंग-बिरंगी यादें  मुझे गुदगुदा गई।

  “दीदी जल्दी …अभी हलवाई के पास भी जाना है “सच में छोटू के पास समयाभाव था।

  भाभी के दूर के रिश्तेदार का अनाथ बालक छोटू यहीं रह गया। भैया भाभी ने  अपनी संतान के समान उसका पालण-पोषण किया और अब वह कॉलेज के प्रथम वर्ष में है। वह भी  अपना फर्ज इनलोगों के लिए  सभी कार्य में सहयोग देकर करता है।

 मैं थैले से कार्ड लेकर उलट-पुलट कर उसपर लिखे नाम पते पर नजरें दौडा़ती हूं …”इसे बांटने का काम बाजार से लौटते समय किया जाये तो कैसा रहे”!

“कोई हर्ज नहीं दीदी “छोटू मेरा साथ पा आश्वस्त हो चला था.. एक से भले दो।

 अचानक कार्ड पर लिखित नाम पता देख मैं चौंकी, “डाॅ राज कुमार  ,नया टोली। ” जैसे हजार बिच्छुओं ने एक साथ डंक मारा हो। दिसंबर की कंपकंपाती ठंढ  में भी मेरे ललाट पर पसीने की बूंदे छलछला अभाव। चेहरा फक पड़ गया।

भैया ने यह क्या किया??? उन्हें कुछ भी याद नहीं या मुझे जलील करवाने के लिए कार्ड लेकर भेज दिया।

“नहीं नहीं बड़े भैया मुझे  क्यों किसी फजीहत में डालेंगे… मेरे लिये इस शख्स पर कितना बरसे थे… फिर उसी को विवाह में निमंत्रण देना… “!

“कोई दुसरा डाॅ राजकुमार… तो नहीं “!मन में सवाल उठा… मेरा कार्ड बांटने का संपूर्ण उत्साह ठंढा पडने लगा।

“छोटू, यह डाॅ राजकुमार कौन है “?मुझमें जरा सा भी धैर्य नहीं था। छोटू ने पलट कर अपनी बडी़-बडी़ आंखों से मुझे जिसतरह देखा, मैं भीतर तक कांप गई। कभी ऐसे ही गहरी नजरों से देख… भैया ने मेरा कंधा झिंझोड़ पूछा था, “बता तू उसे कबसे जानती है! “

“क्या बात है दीदी, ये होने वाले समधियाने के रिश्तेदार हैं कोई …आप उन्हें जानती हैं “छोटू ने सहजता से कहा।

क्या आज का भविष्य बीते हुये दुखद प्रसंग से परिचित है …जिस अतीत की स्याही को मैं अपने वर्तमान की सफेदी से ढंक चुकी थी …वह इस प्रकार प्रश्नों का धब्बा बनकर उभरेगा… यह तो मैनै कभी सोचा ही नहीं था…प्रश्न एक था “डाॅ राजकुमार को जानती हैं”जबकि उत्तर अनेक थे… मुँह बोले न बोले… शरीर का रोयां रोयां उस समय जुबां का कार्य कर रहे थे, “हां, हां… क्यों नहीं अच्छी तरह! “

मेरी कठोर मुखमुद्रा देख छोटू सहम गया, “कुछ दिक्कत है दीदी। “

“नहीं तो “मैंने उडते बालों को हटाने के बहाने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढंक लिया… आंखे भर आई। वह अपमान, तृष्णा, लालसा, विश्वास खंडित होने की वेदना जिसे मैं बरसों पहले दफना आई थी पुनः पुरानी बिमारी की तरह उभर आई थी।

मन पाखी  अतीत की ओर… वे कालेज के दिन… सह-शिक्षा थी। लड़के लड़कियां अपने भविष्य के लिए अध्ययन में एक दुसरे का सहयोग लेते थे।

हंसी ठहाका उत्साह उमंग का पारावार न था। रंग-बिरंगे परिधानों में सुसज्जित युवा वर्ग किसी फूलों के बाग का भ्रम पैदा करते थे।

वहीं मेरा परिचय राजकुमार से हुआ। मैं कला की छात्रा और वह मेडिकल का विद्यार्थी। साथ-साथ घुमना फिरना… फिर भविष्य की कसमें। मेरा ग्रेजुएशन हो गया… राजकुमार भी मेडिकल की कठिन पढाई में मशगूल हो गया। उन दिनों न मोबाइल था न इंटरनेट।

इधर मेरी शादी की बात चलने लगी। मैं परेशान… कच्ची उम्र की भावुकता।  रोते रोते भाभी को सब बात बताई।

“वह तुमसे विवाह करेगा, ननद रानी… अब वह डाॅक्टर बन गया है। “

“कहता तो था… हमारा साथ सात जनमों का है… एकबार बात चलाने में क्या हर्ज है। “

भाभी के  आग्रह पर मेरे पापा और भैया बडी़ उत्साह से डाॅ राजकुमार के घर पहुंचे। मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव सुनते ही राजकुमार के पिता भड़क उठे, “मेरा बेटा डाॅक्टर है किसी डाॅक्टर लड़की से मैं उसका रिश्ता करुंगा…। “

“लेकिन वे एक-दूसरे से प्यार करते हैं… शादी का वादा किया है “भैया के इतना कहते ही लड़के के पिता घायल शेर की तरह उछल पड़े, बेटे को बुलाकर मेरा फोटो दिखलाई, “इसे पहचानते हो “पिता का क्रोध और स्थिति की गंभीरता देख डाॅक्टर राजकुमार ने साफ इंकार कर दिया, “होगी कोई, पागल लड़की “! बाप बेटे ने मेरे पापा और भाई को खरी खोटी सुना दी… दोनों अपमानित घर लौट आये।

मैं भी कितना रोती और किसके लिये… जिसने मेरी फोटो ही पहचानने से इंकार कर दिया था… पापा भैया के सामने मैं मुंह दिखाने लायक न रही। मेरा कसूर क्या था… सिर्फ यही न कि एक लड़के के साथ जीवन-मरण की शपथ खाई थी।

मैंने घरवालों की मर्जी से शादी कर ली। बहुत प्यार करनेवाला सुदर्शन पति, परिवार पा मैं अतीत भूल चुकी थी।

और आज… छोटू ने डाॅ राजकुमार के घर की घंटी बजाई।

डाॅ राजकुमार सामने खड़े थे।

  मुझे देख हर्षमिश्रित हो उछल पड़े, “प्रिया, तुम… आओ आओ “मैने आहत नजरों से देखा,” जिसने मेरी तस्वीर पहचानने से इंकार कर …पागल लड़की का खिताब दे दिया था… आज पंद्रह वर्ष बाद भी उसे मेरा नाम याद है …भई वाह” मैं जल उठी।

 सामने ह्वील चेयर पर उनकी मां, मेरा आँचल पकड़ आत्मीयता दिखाते बोली, “चाय पीकर जाना”!

जैसे मैंने सुना ही नहीं, “भैया ने विवाह का निमंत्रण भेजी है…उनकी बिटिया की शादी है  …आपलोग आइयेगा जरुर “

…   और बिना कुछ कहे सुने धधकते तन-मन के साथ गाड़ी में बैठ गयी।

  डाॅ राजकुमार उम्र के साथ थुलथुले हो गये हैं, रंग कम हो गया है… कनपटी के बाल सफेद हो रहा है… कभी इसी शख्स के लिए मैं कितना रोई थी… वह किशोरावस्था की भावुकता… मैंने सिर झटक दिया।

किसी ने बताया, “डाॅ राजकुमार की शादी डाॅ लड़की से  बड़ी धूम-धाम से हुई… लेकिन आपसी तालमेल के अभाव में दोनों अलग हो गये… पिताजी अपनी किसी गलती को दिल से लगा बैठे और उनका स्वर्गवास हो गया। मां व्हीलचेयर पर भूत की तरह इधर-उधर डोलती रहती हैं… डाॅ राजकुमार भी अपनी किसी अक्षम्य भूल जो उन्होंने किसी के पावन प्रेम को ठुकरा कर किया था… भुला नहीं पाते… अंदर ही अंदर घुलते रहते हैं। “

  सुनकर मैं सकते में आ गई, “यह कैसी परीक्षा प्रभु… मैं सब भूल-भालकर अपनी घर-गृहस्थी में मगन हूं… अपने पति की प्राणप्रिया और बेटे की जान हूं… और जिसने अहंकार दिखाये वे अपनी  ही बिछाये जाल में उलझकर रह गये …यह तेरी कैसी महिमा… उन्हें माफ कर दो विधाता । “

  मेरा हृदय का एक कोना जो कभी टीसता था आज  शीतलता का अनुभूति कर रहा है ।

  मैं खुशी खुशी सखियों संग ढोलक के थाप पर विवाह का गीत गा रही हूं।

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना- डाॅ उर्मिला सिन्हा©®

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