माथा- पट्टी – करूणा मलिक : Moral stories in hindi

पूनम , अब मेरी दो दिन की छुट्टी है । देख, कल और परसों मेरे साथ लगकर स्टोर की सफ़ाई करवा दे। इस बार तो दीवाली पर भी स्टोर को छोड़ दिया था ।

ठीक है दीदी । कल सुबह सात बजे आ जाऊँ ? 

अरे नहीं, कल मैं भी आराम से उठूँगी । ऐसा करिए , नौ बजे आ जाना । नाश्ते के बाद ही काम में लगेंगे ।

पर दीदी, नौ बजे तो दस नंबर वाली के काम का टाइम है । टाइम पर ना पहुँची तो वो चिक-चिक करेगी ।

फिर तो , उसका काम करके ही आना । मेरे पास तो थोड़ा टाइम ज़्यादा लगेगा । ऐसा करना , रोटी मत लाना , यहीं खा लेना ।

रोटी की तो कोई ऐसी बात नहीं दीदी । तो मैं ठीक दस बजे पहुँच जाऊँगी । कल दस नंबर वाली के आठ बजे चली जाऊँगी, दो घंटे लगते उनके काम में ।

अपनी कामवाली के साथ बात करके रेणु अंदर आकर बैठी ही थी कि अचानक फिर उठ कर चल पड़ी । पास ही बैठे राजेश ने कहा-

तुम्हारे पैरों में भी स्प्रिंग लगे हैं । पूरा दिन उछलती रहती हो । कभी तो शांति से बैठ ज़ाया करो । चलो , एक – एक कप चाय बना लाओ ।

मुझे शौक़ नहीं है, पूरा दिन उछलने का । घर को ना देखूँ तो खंडहर बन जाएगा । तुम्हें क्या पता कि एक औरत को चारों तरफ़ की सोचनी पड़ती है । थोड़ी देर चैन से , अख़बार पढ़ लो। कल पूनम को सफ़ाई के लिए कहा है । सुबह तो जल्दी उठा नहीं जाएगा । अभी एक बार देख लूँ कि कोई ऐसी चीज़ तो नहीं जो उसके सामने ना दिखानी हो । कल संदूक वाले स्टोर की सफ़ाई करवाऊँगी ।

इतना कहकर रेणु अपने कमरे के अंदर बने स्टोर में चली गई। सबसे पहले उसने बड़ा संदूक खोला । इधर-उधर हाथ मारा तो बिस्तरों के अलावा कुछ नहीं दिखा । फिर उसके साथ ही दादी सास का लकड़ी का संदूक था । उसे खोला तो उसमें पुराने कपड़े की बनी दरियाँ नज़र आई । अब तीन – चार छोटे-छोटे बक्सों के खुलने की बारी थी । पहले दो बक्सों में भी लेने-देने के कपड़े भरे पड़े थे ।  एक बार तो रेणु ने तीसरे बक्से को ना खोलने का मन बना लिया पर यह सोचकर कि चलो, नज़र मार ही लेती हूँ, जैसे ही बक्सा खोला, उसकी नज़र कोने में पड़े लाल कपड़े पर पड़ी । उसने कई गाँठ खोलकर देखा तो उसमें नगों की एक माथा- पट्टी थी । बहुत से नग निकलकर कपड़े में ही पड़े थे ।

अम्मा जी के रहते तो रेणु ने कभी शायद ही स्टोर की चीजों को बारीकी से देखा हो , वैसे भी यहाँ उसकी कोई व्यक्तिगत चीज़ नहीं थी । स्टोर में दादी के लकड़ी के संदूक को छोड़कर अम्मा जी का ही सामान था । अब अम्मा जी के देहांत के बाद पहली बार रेणु सफ़ाई करवा रही थी ।

वह उसी कपड़े को लेकर बाहर आई और बोली- सुनो जी , अम्मा जी के बक्से में से ये माथा- पट्टी मिली है । ये यहाँ क्यों रखी है ?  बाक़ी पूरा ज़ेवर तो लॉकर में रखा है । देखो , ऐसा लगता है कि अम्मा की शादी की है। 

अरे ! मुझे क्यों दिखा रही हो  ? मेरी इन चीजों में कोई दिलचस्पी  नहीं है । ऐसा करो , बाबूजी से पूछ लो । क्या पता?  अम्मा ने उन्हें बता रखा हो । वैसे बाबूजी को भी क्या लेना-देना ज़ेवरों से  ? छोड़ो, टूट भी गई और काली पड़ चुकी है। पता नहीं, असली भी है या अम्मा ने यूँ ही असली समझ कर रखी है । बड़ी भोली थी , अम्मा ।

तो आप समझते हैं कि अम्मा को असली और नक़ली की पहचान नहीं थी । काली तो इसलिए पड़ी है क्योंकि न जाने कितने सालों से एक ही जगह पड़ी है, कोई चीज़ बरती जाए तो ठीक रहती है ।हाँ, अब तो बाबूजी से ही पता चलेगा ।  इतनी सँभाल कर रखी चीज़ का कुछ तो पता होगा ही शायद बाबूजी को ।अभी तो आराम कर रहे हैं । बाद में ज़रा याद दिला देना , कहीं मेरे दिमाग़ से ना निकल जाए , पर आप तो मुझसे भी ज़्यादा भुलक्कड़ हैं । 

शाम को चाय के वक्त रेणु बोली – बाबूजी, आज अम्मा जी के बक्से में कपड़े में बंधी , ये माथा- पट्टी मिली है । क्या आपको इस बारे में कुछ पता है?

ये माथा- पट्टी … । अरे बेटा , ये तुम्हारी नानी की है । जिसे तुम्हारी अम्मा अपनी बेटी को देना चाहती थी । इसीलिए इसे अपने पास ही रखती थी । उसे ऐसा लगता था कि लॉकर में रखे सामान पर बहू- बेटे का अधिकार हो जाएगा । वो तो पिछले साल से कह रही थी कि अपनी नानी की माथा – पट्टी पर केवल रेखा का ही हक़ है । मैं तो सोच रहा था कि उसने दे दी होगी । देख लो बहू!  अब तुम्हें जो करना हो , कर लो । 

क्या करेंगी दीदी इसका  ?  रेणु, अब रहने देना । दस- पंद्रह ग्राम सोना है , सारे नग निकले पड़े हैं । जीजाजी भी क्या सोचेंगे ? अच्छा  नहीं लगता ,  एक तो पुरानी  , ऊपर से किसी काम की नहीं ।  ऐसा करना……

तभी रेणु राजेश की बात काटते हुए बोली- नहीं जी । बात मामूली या क़ीमती चीज़ की नहीं है । बात अहसास और भावनाओं की है । एक बेटी और माँ का रिश्ता ही अलग होता है । मैं  एक बेटी और एक माँ के अहसास को महसूस कर सकती हूँ । सर्दियों की छुट्टियों में दीदी आएँगी तो मैं उनकी इस अमानत को उन्हें सौंप दूँगी ।

करूणा मलिक

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