मैं ‘रोहिणी’ लगातार सैंतीस बर्ष तक एक प्रधानअध्यापिका के रूप में सफलतापूर्वक कार्य करती हुई सेवानिवृत्त हुई हूँ । घर में बच्चे , बेटे और बहुऐं सभी बहुत खुश थे।
अब मम्मी को आराम मिलेगा। बड़े से संयुक्त परिवार में मुझे एक साथ घर और बाहर की जिम्मेदारी संभालते हुए देखते हुए ही वे बड़े हुए थे।
मैं भी पूर्ण संतुष्ट थी।
स्कूल संचालन करते हुए मैं विशेष रूप से सुख का अनुभव करती थी। रिटायर होने के कुछदिनों बाद तक तो मुझे बहुत अच्छा लगा लेकिन फिर तुरंत ही एक सी दिनचर्या मुझे ऊब सी लगने लगी। गृहस्थी तो पहले से ही बहुओं की कृपा से सुचारू रूप में चल रही थी। लिहाजा उसमें ज्यादा हस्तक्षेप करना मुझको सही नहीं लगा।
लेकिन फिर बैठे-बैठे मुझे बोरियत सी महसूस होने लगी और लगने लगा कि समय इधर-उधर जाया करने से अच्छा मुझे कुछ करते रहना चाहिए। तनमन पर एक अजीब सी थकान हावी होने लगी थी।
जिसे दूर करना बेहद आवश्यक था।
मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था।
ऐसे में हमेशा की तरह इसबार भी पतिदेव ही रक्षक के रूप में सहारा बन कर सामने आए।
उन्होंने प्यार से मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे समझाया ,
“अपनी जिंदादिली बरकरार रखने के लिए तुम्हें कुछ ना कूछ तो करना होगा श्रीमती जी ” वे मेरे इस हालात से अच्छी तरह वाकिफ थे ,
” ऐसा करो तुम बच्चों को पढ़ाना शुरु कर दो यह तुम्हारा प्रिय शौक है “
तो बस मैंने ट्यूशन पढ़ाना शुरु कर दिया।
मैंने मन ही मन यह निर्णय ले लिया कि ऐसे बच्चों को पढ़ाऊंगी जो ट्यूशन फीस नहीं जमा कर सकते।
यों तो सरकारी स्कूल में यह व्यवस्था थी फिर भी मुहल्ले के बहुत से छोटे बच्चे दूरी के चलते इसका लाभ नहीं उठा पाते। तो शुरुआत पहले उन बच्चों से ही हुई।
धीरे-धीरे कोई आठ दस बच्चों की जमात जुट गई। मैं पूरे मनोयोग से उनका भविष्य सुधारने में जुट गयी थी।
तभी एक दिन मेरे घर के स्वीपर ने डरते हुए पूछा ,
” मैम मेरे भी दो बिटवा हैं उन्हें भी पढ़ा देगीं ?”
मैं खुशी से बोली,
” हाँ- हाँ क्यों नहीं ? ” बस यहीं पर मात खा गयी मैं।
अगले दिन से उसके बच्चे भी आने लगे।
लेकिन हमारा समाज भी ना ? हम चाहे कितनी भी उन्नति की बाते कर लें अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है।
मेरी बहुओं ,परिवार वालो को यह बात नहीं हजम हुई।
यद्यपि कि सभी बच्चों के साथ ही वे बच्चे भी पढ़ते।
लेकिन घरवालों के अनुसार,
” मैं धर्मभ्रष्ट हो चुकी थी मेरा दिमाग खराब हो चुका था “
उन्हें मेरा स्वीपर के बच्चों को पढ़ाना जरा सा भी रास नहीं आ रहा था उनके कथनानुसार ,
” मैं समय का दुरुपयोग करती हुई परिवार की अवहेलना कर रही हूँ “।
लेकिन मैं उनकी बातों में जरा सा भी नहीं आई और अडिग बनी रही।
सबसे हैरत की बात यह रही कि इस बार पतिदेव ने भी चुप्पी साध ली थी।
लेकिन कुछ परवाह ना करके मैं पूरे लगन से उन्हें पढ़ाती रही और मन ही मन यह प्रण ले लिया कि जब तक शरीर में ताकत रहेगी यह नेककार्य अवश्य करती रहूंगी।
मैंने कितने सालों तक उन्हें पढ़ाया भी। वे बड़े हो कर यथायोग्य जहाँ लगना था लग गये। उनके माता-पिता मुझे इसके लिए आजतक दिल से मेरा कहा मानते हुए कहते हैं ,
“मैडम जी अगर आपने उस समय इनका साथ न दिया होता तो ये इतना आगे नहीं पढ़ पाते और ना ही आगे बढ़ पाते “
वे मेरे जितने एहसान मंद हैं मैं भी उनकी उतनी ही एहसान मंद हूँ ।
क्योंकि तब उन बच्चों में ही मुझे जिन्दगी का असली सबब मिला था,
” अपने लिए जिए तो क्या जिए ? तू जी ऐ दिल जमाने के लिए “
सीमा वर्मा /स्वलिखित