दुर्गा का दसवां अवतार – डॉ. पारुल अग्रवाल  : Moral stories in hindi

पूरी सोसायटी में उसके गाए हुए भजनों की धूम रहती थी। नवरात्रि हो या गणेश पूजन सबको एकजुट करना और पूरे वातावरण को एक अलग ही सकारात्मक आभा से ओत प्रोत कर देना उसकी खूबी थी। नाम तो उसका अवनि था पर किसी के लिए वो भाभी थी तो किसी के लिए दीदी। बच्चों के लिएं तो वो आंटी ना होकर स्नेही और उनको तरह तरह की कहानियां सुनाकर संस्कार से परिपूर्ण करती गुरु मां थी। 

ऐसा कोई तीज त्यौहार नहीं था जो अवनि सोसायटी के लोगों के साथ मानती ना हो। ये सब तो वो करती ही थी पर साथ साथ खाना भी इतना अच्छा बनाती थी कि लोग उसको अन्नपूर्णा की उपाधि देते। जब खुद के बच्चे बड़े हो गए और परिवार को भी थोड़ा वित्तीय समस्या आ रही थी तब उसने अपने बनाए खाने को आस पास के घरों में, कई पीजी में भेजना शुरू किया।

खाना सबको पसंद आ रहा था। धीरे धीरे कई कम्पनी के बड़े टिफिन ऑर्डर भी अवनि को मिलने लगे। अकेले अपने बलबूते पर इस क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई। लोगों को इसके हाथ का जायका पसंद आ रहा था। अब दूर दूर से उसको खाने के ऑर्डर मिलने लगे थे। समय पंख लगाकर उड़ रहा था।

अवनि पूरा दिन सबके खाने के ऑर्डर पूरे करती,जब त्यौहार आते तो सबको एकत्रित करके सारे हर्षोल्लास से उनको निभाती। इन सबके पीछे अवनि के प्रेरणास्रोत उसके पति आदित्य भी थे। अगर अवनि खाना बनाती तो वो उसको चखने वाले और उस पर अपनी निष्पक्ष टिप्पणी देने वाले पहले इंसान होते। समय कभी समान नहीं रहता। उनके प्रेरणास्रोत उनके पति आदित्य अब थोड़ा बीमार रहने लगे थे। कई बार काफ़ी गंभीर रूप से बीमार भी हुए पर फिर ये अवनि का प्यार और देखभाल कह लो,वो अपने सभी कष्टों से लड़ते हुए सकुशल वापिस आ जाते। 

गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चल ही रही थी। दोनों बच्चे भी अपना कैरियर बनाने में व्यस्त थे। एक दिन अचानक अवनि के पति आदित्य के सीने में बहुत तेज़ दर्द उठा और हॉस्पिटल ले जाने से पहले ही रास्ते में उन्होंने अवनि की गोद में दम तोड़ दिया। अवनि अचानक से मिले इस आघात को समझ ही नहीं पाई।

दोनों की दिनचर्या एक साथ शुरू होती थी। दोनों एक दूसरे के हर पल के साथी थे। जब से आदित्य ने घर से ही कंसल्टेंसी का काम शुरु किया था तब से कोई दिन ऐसा नहीं गया था जब दोनों ने एक दुसरे के बिना चाय पी हो। अवनि तो जैसे भावशून्य ही हो गई थी।समझ नहीं पा रही थी कि अब वो कैसे आगे बढ़ेगी।

कैसे अपना जीवन बिताएगी क्योंकि कुछ साथ ऐसे होते हैं जिनके आगे सब रुपए-पैसे व्यर्थ होते हैं। वैसे भी अवनि के माथे पर दमकती बिंदी, सिंदूर से सजी मांग उसका श्रृंगार थी। करवाचौथ के दिन अपने इस रूप में वो सबसे अलग दमकती थी।अगर उसके गले के मां दुर्गा के भजनों का जादू सबको अपनी मंत्रमुग्ध करता था तो वहीं उसका बड़ी लाल बिंदी और सिंदूर का श्रृंगार उसके चेहरे की आभा बढ़ाता था।

पर कुछ बातें हमारे हाथ में नहीं होती। विधाता ने हमारे लिए कुछ अलग ही सोच रखा होता है। कब आदित्य के शरीर को अग्नि दी गई,कब उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हुआ,कब बाकी के सारे काम निपटे अवनि को नहीं पता क्योंकि वो तो बेसुध ही हो गई थी। ऐसे में पूरी कालोनी उसके साथ खड़ी थी। सबने उसको संभालने की पूरी कोशिश की थी। समय तो वैसे भी पंख लगाकर उड़ता है। 

आदित्य को गए एक महीना होने जा रहा था। अवनि अभी भी सामान्य नहीं हो पाई थी। अब नवरात्रि भी आने वाले थे। सोसायटी के लोगों को लग रहा था कि इस बार कोई आयोजन नहीं होगा क्योंकि हमेशा तो अवनि ही बढ़ चढ़कर सारे आयोजन करवाती थी। पूरे नौ दिन सोसायटीमें कीर्तन होता था पर इस बार परिस्थितियां ही अलग थी।

उधर अवनि के घर पर बेटी सिया भी समझ नहीं पा रही थी कि कैसे अपनी मां को फिर से पुराने रूप में वापिस लाए। तभी उसे याद आया कि उसके पापा के जाने से कुछ दिन पहले ही उसकी और अवनिकी शादी की सालगिरह थी। उसमें आदित्य ने अवनि के लिए मैं रहूं ना रहूं..तुम ऐसे ही रहना गाना गाया था और जब सबने उनसे अवनि के लिए कुछ बोलने के लिए कहा था तो मैं चाहता हूं कि अवनि के माथे की बिंदी हमेशा चमकती रहे क्योंकि मैंने अवनि को इसी रूप में पाया है।

ये सब सिया ने रिकॉर्ड कर लिया था। अब सिया को ये याद आते ही वो अवनि के कमरे में गई जहां अवनि करवट लिए अंधेरे में लेटी थीं। सिया चुपचाप रिकॉर्डिंग को ऑन करके अवनि के कमरे में रख आई। जैसे ही आदित्य की आवाज़ में गाना बजना शुरू हुआ वैसे ही अवनि चौंककर बैठ गई। आदित्य का गाना और वो बातें सुनकर अवनि फूट फूटकर रोने लगी।

सिया कमरे की बाहर ही थी। जैसे ही रिकॉर्ड बजना बंद हुआ तो सिया भी अवनि के पास आ गई और बोली मां जितना रोना है रो लीजिए।हम सबको आपकी जरूरत है। आप ही तो हमेशा हमें समझाती थी कि अगर कोई कभी हमसे दूर चला जाता है तो केवल शरीर से ही दूर जाता है। उसकी हमारे लिए भावनाएं और एहसास तो वैसे ही रहते हैं।

पापा भी बस आज शारीरिक रूप से हमारे साथ नहीं हैं। उनकी बातें और उनके एहसास आज भी ज्यों के त्यों हैं। वैसे भी पापा अपने आखिरी क्षण तक आपको बिंदी और लाल रंग के कपड़ों में देखना चाहते थे। ऐसे करके आप कहीं ना कहीं पापा को ही दुख दे रही हैं। सिया ने ये भी कहा आप और पापा एक दूसरे से अलग नहीं हैं। अब आपको ही पापा का प्रतिरूप बन कर हम लोगों को संभालना है। कल से नवरात्रि शुरू हैं। सोसायटी के बाकी लोग भी आपका इंतज़ार कर रहे हैं।ये कहकर सिया वहां से चली गई। 

अब अवनि को थोड़ा सुध आई। उसे आदित्य की एक एक बात याद आने लगी। फिर उसे लगा कि वास्तव में अपनी सुध बुध खोकर वो आदित्य को भी कहीं ना कहीं दुखी कर रही है। आदित्य भी कभी उसको ऐसे नहीं देखना चाहेंगे। अगले दिन से नवरात्रि शुरू हो रहे थे। सोसायटी के जिस स्थान पर सभी लोग देवी के भजन कीर्तन के लिए एकत्रित होते थे

वो वहां पर जाती है और ढोलक की थाप और अपनी मंत्रमुग्ध करने वाली आवाज़ में भजन गाना शुरू करती है। माइक पर भजन की आवाज़ जब गूंजती है तब सभी अपने घरों से निकलकर वहां पहुंचते हैं। सब देखते हैं अवनि अपने पुराने रूप बड़ी बिंदी और लाल रंग के कपड़ों में माता के भजन गा रही है। सब लोग उसको देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। जहां अधिकतर लोग खुश थे वहीं कुछ उसके विधवा होने पर बिंदी और लाल रंग के कपड़े पहने होने पर खुसर फुसर करने लगते हैं। 

अवनि सब समझ रही थी वो कहती है कि सब कुछ वैसे ही होगा जैसे पहले होता था। मैं इसी तरह बिंदी लगाऊंगी और लाल रंग के कपड़े भी पहनूंगी क्योंकि मैं कल भी आदित्य की ब्याहता थी,आज भी हूं और कल भी रहूंगी। जब उसका और मेरा साथ हमेशा का है तो मैं सफेद आवरण का चयन क्यों करूं?

वैसे भी मां दुर्गा के नौ रूप नारी के सभी अवस्था का वर्णन करते हैं तो अब दुर्गा का दसवां रूप हमें खुद से बनना होगा। जीवन साथी का जाना एक बहुत बड़ा दुख है पर उसके जाने पर सभी श्रृंगार से परे होकर क्या हम खुद को उससे दूर नहीं कर लेते जबकि उसके साथ तो हमारा जन्म जन्मांतर का बंधन है।

मैंने भी आज प्रथम नवरात्रि के दिन निश्चय किया है कि मैं वो सब श्रृंगार करूंगी जो आदित्य के सामने होने पर करती थी और साथ साथ करवाचौथ का व्रत भी करूंगी जिससे मेरा आदित्य जहां भी हो खुश रहे। मेरे लिए दुर्गा का दसवां अवतार में खुद बनूंगी। मैं मानती हूं कि कई लोगों को मेरी इस बात से आपत्ति हो सकती है पर अब अपने अंदर मां के नौ रूपों को समाहित कर दसवां रूप सृजित करने का समय आ गया है। 

वहां उपस्थित सभी लोग अब अवनि की बातों से सहमत थे। माता के जयकारों के साथ सोसायटीमें मां दुर्गा की पूजा अर्चना की शुरुआत हुई। सिया भी इस बार मां के हर कदम पर उसका साथ दे रही थी।

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी? मां दुर्गा के नौ रूप तो हम सब देखते सुनते आएं हैं पर दुर्गा का दसवां रूप हमारे अंदर वास करता है। वैसे भी बदलाव प्रकृति का नियम है। कोई भी रिश्ता किसी के चले जाने से समाप्त नहीं होता। अगर रिश्ता नहीं समाप्त होता तो हम लोग उससे जुड़े सारे कार्य और श्रृंगार क्यों समाप्त कर देते हैं ये सोचने वाली बात है।

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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