डायरी – बिभा गुप्ता

रामदास बाबू को हमेशा अपनी डायरी में कुछ न कुछ लिखते देख मानसी कुछ समझ नहीं पाती थी कि उसके ससुर दिनभर आखिर उस डायरी में क्या लिखते रहते हैं।बहू को आते देख जब वे डायरी को अपने तकिये के नीचे छुपा लेते तो मानसी की जिज्ञासा और बढ़ जाती।उसे यकीन हो जाता कि उसके ससुर जरूर डायरी में अपनी बहू की शिकायत लिखते हैं, शायद कुछ पैसे भी रखते हों, इसीलिये तो डायरी को उससे छिपाते हैं।

            रामदास बाबू का अंतिम समय आ गया था।उन्होंने बहू को अपने पास बुलाया, तकिये के नीचे से नीली डायरी निकाली और बहू को सौंपकर चिरनिद्रा में लीन हो गए।डायरी देखने की मानसी की जिज्ञासा अब शांत हो गई।वह प्रसन्नता से डायरी पढ़ने लगी लेकिन यह क्या! डायरी में तो न कोई हिसाब लिखा है, न ही बहू की शिकायत लिखी है और न ही उसमें कोई रुपया रखा है।उसके ससुर ने तो डायरी के एक -एक पन्ने में अपने अकेलेपन के पल-पल की पीड़ा को व्यक्त किया था।अपने बेटे-बहू को संबोधित करते हुए लिखा था, “बुज़ुर्ग मात्र दो वक्त के भोजन के ही भूखे नहीं होते हैं,उन्हें प्यार,सम्मान और साथ बैठने वालों की भी ज़रूरत होती है।बेटे से दो बोल बोलने और पोते-पोतियों को गोद में उठाने,उनके साथ खेलने की भी ललक होती है।” कहीं -कहीं पर शब्द उनके आँसुओं से धुंधले भी हो गए थें।


           डायरी के अंतिम पृष्ठ में उन्होंने अपने पोते से प्रार्थना करते हुए लिखा था, ” मेरे बिट्टू , बड़े होने पर अपने मम्मी -डैडी का ख्याल बैंक में रखे अपने रुपयों से भी अधिक रखना क्योंकि वे ही तुम्हारी असल पूंजी है।ऐसा कुछ भी नहीं करना कि उन्हें मेरी तरह ही डायरी से बातें करनी पड़े।” अंतिम वाक्य पढ़ते ही मानसी के आँसुओं का बाँध टूट गया।वह फ़फक कर रोने लगी।आज उसे समझ आया कि डायरी में रुपये-पैसे का हिसाब ही नहीं, रिश्तों का भी हिसाब लिखा जाता है।रिश्तों को समझने में उसने कितनी देर कर दी थी।

            – विभा गुप्ता

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