बेमेल (भाग 19) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

जी मां जी, बस ले आयी! क्या री रमा, कैसी है तू? बहुत दिनों के बाद इधर आना हुआ तेरा! घर पर सब कैसे हैं?”- रमा की तरफ शर्बत बढ़ाते हुए सुलोचना ने उसका हालचाल पुछा।

“तेरी मां कैसी है, सुलोचना? सुना है वो पेट से है! पर उसका बच्चा…??” – रमा ने कहा तो उसकी बातों को बीच में काटते हुए सुलोचना असहज होती हुई बोली – “अ अरे…रमा! बातें तो होती रहेंगी… पहले शर्बत तो पी ले! इतने दिनों बाद आयी है!”

पर सुलोचना की सास आभा ने रमा की बातें सुन ली थी और वह भला कैसे चुप रहती। भौवें तानते हुए वह बोली –“हैं…!!! अरी सुलोचना, ये मैं क्या सुन रही हूँ!! सारी बेटियों को ब्याहकर अब तेरी मां फिर से बच्चा जनने चली है! छी…छी…छी!”

उसकी बातों का सुलोचना ने कोई जवाब न दिया और काम का बहाना बना रसोई की तरफ चली गई।

“अरी काकी…तू तो बड़ी भोली है! तुझे तो खबर ही नहीं रहती कि बाहर क्या-क्या हो रहा है! कुछ पता भी है सुलोचना की मां के पेट में जो बच्चा पल रहा है वो…..” – रमा अभी अपनी बात खत्म भी नहीं कर पायी थी कि विनयधर का घर में प्रवेश हुआ।

“अरी रमा….!! इतने दिनों बाद! और बता, कैसी है तू!”– कांधे से कपड़ों का गट्ठर उतारते हुए विनयधर ने पुछा।

“अच्छी हूँ, भैया! क्या करुं, ससुराल के कामकाज से फुरसत ही नहीं मिलती! कई दिनों से आने की सोच रही थी! बड़ी मुश्किल से मौका निकालकर इधर का रुख किया है।’’

“अकेली आयी है? जमाई बाबू नहीं आएं?”

“हाँ, आए हैं न! घर पर हैं अभी! आओ कभी घर पे! अपने जमाई जी से भी मिल लेना!” – रमा ने कहा और शर्बत का गिलास उठाकर अपने मुंह से लगा लिया। विनयधर भी अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

“ठीक है काकी! अभी मैं चलती हूँ! बाद में आउंगी।” – रमा ने कहा और अपने घर को लौट गई।

“विनयधर, जरा इधर आना!” – अपने बेटे को आवाज लगाते हुए आभा ने कहा।

तौलिए से अपना मुंह पोछते हुए विनयधर कमरे से बाहर निकला और मां के पास ही आकर बैठ गया।

“हाँ मां! बोल?”

“ये मैं क्या सुन रही हूँ तेरे ससुरालवालों के बारे में? रमा बता रही थी कुछ…कि तेरी सास पेट से है! कुछ लाज-शरम बची है कि सब घोर के पी गई!!” – आभा ने कहा तो विनयधर असहज हो गया।

“तू भी न…मां! कहाँ सुनी-सुनाई बातों में आ जाती है! अच्छा, अभी मैं अपने कमरे में जाता हूँ! बहुत थका हुआ हूँ!” – विनयधर बोला और उठकर अपने कमरे की तरफ बढ़ने लगा। रसोई के दरवाजे पर खड़ी सुलोचना ने अपनी सास की सारी बातें सुन ली थी। विनयधर ने पलकें झपकाकर उसे अपना मन शांत बनाए रखने को कहा फिर इशारे से ही एक गिलास ठंडा जल लेकर आने को बोला।

“मां की बातों से अपना मन भारी मत करना! उसकी तो आदत ही है उलजलूल बातें करने की!!”- कमरे में प्रवेश करती सुलोचना से विनयधर ने कहा। पर सुलोचना ने उसकी बातों का कोई जवाब न दिया और पानी का गिलास आगे कर दिया।

हाथ आगे बढ़ाकर विनयधर ने गिलास थामा और एक ही सांस में पूरा पानी कंठ में उड़ेल डाला। फिर बड़े प्यार से सुलोचना का हाथ पकड़ अपने पास बिठाया और बोला – “अब जो हो गया, सो हो गया! तू अपना मन भारी मत कर! लगता है रमा ने मां के कान भरे हैं। इसलिए वो ऐसी बातें कर रही है!” पति की बातों पर सुलोचना ने अपना सिर हिलाया जैसे अपनी सहमति दर्शा रही हो फिर उसके हाथ से गिलास अपने हाथ में ले लिया।

“कुछ खाने को है तो ला! बड़ी जोरो की भूख लगी है! भरी दुपहरी में फेरी लगाते-लगाते आज हालत पस्त हो गई!” विनयधर ने कहा तो सुलोचना उठकर कमरे से बाहर रसोई की तरफ बढ़ गई।

***

फाटक पर किसी की दस्तक सुन हवेली के भीतर मौजुद कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे थे।

“कौन हो तुम? कहो, क्या काम है? किससे मिलना है?”- हवेली के बाहर खड़े दो मुस्टंडों ने श्यामा को भीतर जाने से रोकते हुए उससे पुछा फिर उसके निकले हुए पेट पर निगाह डाली।

“भीतर जाकर कहो कि श्यामा आयी है! और ये क्या तुम मेरा रास्ता रोककर खड़े हो! ये मेरा ससुराल है! हटो, जाने दो मुझे!”- श्यामा ने मुस्टंडो से कहा और भीतर जाने का प्रयास करने लगी।

“नहीं, मालिक का हुक़्म है कि बिना उनकी अनुमति के भीतर किसी को प्रवेश न करने दिया जाय! तुम यहीं रुको, मैं पुछकर आता हूँ!”- एक द्वारपाल ने कहा और श्यामा के आने की खबर लेकर हवेली के भीतर गया।

भीतर से कुत्तो के भौंकने की आवाज आनी बंद हो चुकी थी। पर श्यामा ने सुना कि छोटा ननदोई चिल्लाकर कह रहा था कि “इतने दिनों में उस कुल्टा को इस ससुराल याद नहीं आयी तो अब यहाँ क्या करने आयी है?? लात मारकर निकाल-बाहर करो उसे! ऐसी बेशरम और बद्चलन औरत से हमें कोई वास्ता नहीं रखना जो रिश्तों की कद्र नहीं जानती!”

उनकी बातें सुन श्यामा से रहा नहीं गया और हटधर्मिता पर उतर गई। मुख्य दरवाजे पर खड़े मुस्टंडे से वह भीतर जाने देने की ज़िद्द करने लगी जिसमें अंततः उसे सफलता मिल ही गई। गर्भवती होने के कारण मुस्टडे द्वारपाल ज्यादा देर तक उसका विरोध नहीं कर पाए फिर श्यामा खुद को उस घर की बहू भी तो बता रही थी।

“जमाई बाबू, मैं कुछ लेने नहीं आयी हूँ जो आप इतना डर रहे हो मुझसे!” – फाटक के भीतर प्रवेश कर श्यामा ने आंगन में प्रवेश करते हुए कहा।

“लगता है मैं गोयठा में घी सुखा रहा हूँ! द्वार पर दो-दो मुस्टंडे पाल रखे हैं फिर भी यह निर्लज्ज औरत भीतर कैसे प्रवेश कर गयी! कहाँ मर गए सब के सब??” – छोटे ननदोई ने गरजते हुए कहा।

“जमाई बाबू, किसी औरत को गाली देने से पहले एकबार जरा खुद के गिरेबां में झांककर देख लेना! अपनी गलती किसी को नहीं दिखती! जो खुद परायी स्त्री पर नज़र रखता है वो चला है आज अच्छाई की पाठ पढ़ाने!” – श्यामा ने छोटे ननदोई से कहा जिसने कभी खुद ही श्यामा को अपनी भोग-विलास का माध्यम बनाना चाहा था और श्यामा की दृढ़ता के आगे उसकी एक न चली थी।

“ये औरत यहाँ क्या करने आयी है?? पाप की गठरी अपने पेट में लादकर हवेली के भीतर कदम रखते तुझे शरम नहीं आयी, श्यामा! पूरे कूल की मान-प्रतिष्ठा तूने मिट्टी मे मिला दी! मां-बाबूजी की आत्मा को कितनी तकलीफ पहुंची होगी जब तूने ऐसा कूकर्म किया होगा! छी…!!!”- बड़ी ननद नंदा ने वितृष्णा भाव से कहा। शोरगुल सुनकर वह भी कमरे से बाहर निकल आ गई थी।…

क्रमशः….

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Written by Shwet Kumar Sinha

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