बेमेल (भाग 18) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

कुछ महीने और बीते। अब श्यामा का उभरा हुआ पेट दिखने लगा तो इसने जैसे आग में घी का काम किया। गांववालों को फिर से तरह-तरह की बाते बनाने का मौका जो मिल गया था। पर इसका चुनाव तो श्यामा ने खुद किया था। वह चाहती तो गर्भ में ही बच्चे को मार सकती थी। पर एक पाप करने के पश्चात महापाप करना उसे गंवारा न था। दिल पर पत्थर रख वह दिन काटती रही। किसी की बातों से अब उसे कोई फर्क न पड़ता।

वहीं दूसरी तरफ गांव में हैजे से हाहाकार फैलता ही जा रहा था। लोग मर रहे थे। अनाज की कमी गांव में इस क़दर बढ़ चुकी थी कि अपने बच्चों का पेट भरने के खातिर लोग एक-दूसरे के मुंह का निवाला छीनने को भी तैयार रहते। हवेली का नौकर बंशी जो श्यामा को अपनी बेटी समान मानता था, उसने इस बात की जानकारी श्यामा को दी। साथ ही यह भी बताया कि हवेली में अनाज की कहीं कोई कमी नहीं। सारे अनाज जिसे गांववालों ने खून-पसीने से उगाया था, ननदोईयों ने हवेली के भीतर गोदाम में छिपा रखे हैं ताकि उसे मर रहे गांववाले से सोने के दाम पर बेचकर अपनी तिजोरी भर सके। उसने श्यामा से गुहार लगायी कि वह गांववाले के लिए कुछ करे।

“पर मैं कर भी क्या सकती हूँ काका? इस पेट को लेकर कहाँ जाऊं? हवेलीवाले आजतक मेरी बात नहीं माने तो क्या आज मानेंगे?”

“जिस अनाज पर हवेलीवालो ने अपना कब्जा जमा रखा है, वो गांववालो के खून-पसीने की कमाई है श्यामा बिटिया! न जाने कितनों का हक़ मारकर उन्होने अनाज की कोठरियां भरी है। ऐसे अनाज का क्या फायदा, जब वो भूख से मर रहे गांववालों को जीवनदान न दे सके! हाथ जोड़कर मैं तुमसे विनती करता हूँ, अब इन लाचार गांववालों के लिए तुम ही कुछ करो!” – हाथ जोड़कर आग्रह करता हुआ बंशी बोला और वापस लौट गया।

बंशी तो चला गया पर श्यामा के मन पर बोझ डाल गया। वह दिनरात यही सोचती रहती कि कैसे गांववालो को इस मुसीबत से उबारा जाए? कैसे वह ननद-ननदोईयों को समझाए जिससे वे अनाज के गोदाम का दरवाजा गांववालों के लिए खोल दे!

बहुत सोचविचार कर उसने कदम घर से बाहर निकाले और एक घर के बाहर आकर खड़ी हो गई। यह गांव के मुखिया भगीरथ का घर था। उसने घर का दरवाजा खटखटाया तो उसकी पत्नी बाहर आयी।

“कहो? क्या काम है? यहाँ क्या लेने आयी हो?”- मुखिया की पत्नी ने पुछा। बड़े ही वितृष्णा भाव से उसने एक निगाह श्यामा के उभरे पेट पर डाली फिर साड़ी के पल्लू से अपना मुंह ढंक लिया जैसे श्यामा किसी छूत की बीमारी से ग्रस्त हो।

“ये कुल्टा यहाँ क्या करने आयी है!! निकाल-बाहर करो इसको! हमने इसे इस गांव में रहने दिया, इसका मतलब ये नहीं कि जहाँ मन करे मुंह उठाकर चली आएगी! कैसी कलयूगी मां है!! अपनी बेटी का हक़ अपने पेट में लिए फिर रही है! धक्के मारकर निकालो इसे यहाँ से और जाने के पश्चात गंगाजल से घर पवित्र करना न भुलना!!” – घर के भीतर से आकर मुखिया ने चिल्लाते हुए कहा।

“पर मुखिया जी, एकबार आप मेरी बात तो सुन लो! मैं कुछ मांगने नहीं, बल्कि गांववालों की मदद करने आयी हूँ!”- श्यामा ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

“हाँ…जी…, कितनी सही बात कही तुमने!!! अब तुम जैसी पापिन से ही गांववालो को मदद की उम्मीद बाकी बची है! हम तो जैसे मर गए हैं न! चल, भाग यहाँ से!! छिनार कहाँ की!!” – मुखिया ने कहा और अपना पांव उठाकर श्यामा के पेट की तरफ बढ़ाया। पर ऐसा करके उसने एक मां को ललकारा था।

“खबरदार्र….मुखिया!!! एक मां के सामने उसके बच्चे पर प्रहार करने की जुर्रत न करना! कहे दे रही हूँ! हाँ!! अगली बार ये टांग काटकर तेरे शरीर से अलग करते मुझे देर न लगेगी! तूझे क्या लगा…मैं तेरे सामने हाथ फैलाने आयी हूँ! अरे जा….रे!! तेरी क्या औकात जो मुझे कुछ देगा! गांववालों की तकलीफ सुनकर मुझसे रहा नहीं गया तब मैं तेरे दरवाजे पर आकर खड़ी हुई ताकि तूझे बता सकूं कि इस गांव में अन्न-धान्य होते हुए भी सब भूखे क्यूं मर रहे हैं?”- श्यामा ने दृढ़ता से कहा जो साक्षात मां चंडी का अवतार बन चुकी थी। फिर अपना पेट पकड़कर वहीं किनारे एक ओट पर जा बैठी। उसके पेट में जोरो का दर्द उठने लगा था। मुखिया की हिम्मत न हुई कि वह कुछ बोलता और बुत बना श्यामा को एकटक निहारता रहा।

“हुह….जा यहाँ से! चल भाग!! पहले अपना पेट सम्भाल! गांव की बाद में सोचना!”- मुखियाइन ने कहा और अपने पति को पीछे कर धड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया। कराहती हुई श्यामा फिर अपने घर की तरफ लौट गई। सारे रास्ते गांववालो की निगाहें उसके पेट पर टिकी रही जिसमें विजेंद्र का बच्चा पल ले रहा था।

“गांव में अन्न-धान्य की कमी नहीं।” – श्यामा की कही बातें मुखिया के दिमाग में बारम्बार गूंज रही थी। लेकिन वह भलिभांति जानता था कि जिस अन्न-धान्य की बात श्यामा कर रही थी उसका रास्ता हवेली के बंद दरवाजे से होकर गुजरता है और जिसे खुलवाने की कुंजी उसके पास नहीं थी। वह खुद चाहे कितनी भी मिन्नते कर लेता, पर हवेलीवाले गांव की मदद के लिए कभी तैयार न होते! फिर श्यामा भी तो उन हवेलीवालों के बीच की ही थी। पर वह तो गांववालो की मदद के लिए आगे आयी थी। परंतू मुखिया को कैसे गंवारा होता कि वह श्यामा जैसी बदनाम और कलंकिनी औरत का सहारा ले।

वहीं अपने प्रति गांववाले के बुरे बर्ताव को नज़रअंदाज कर श्यामा ने उनके प्राणों की रक्षा का बीड़ा उठाया था। पिछली सारी बातें भूलकर आज कितने वर्षों बाद उसने हवेली में कदम रखने का निर्णय लिया।

***

“काकी राम राम!” – पड़ोस की रमा ने विनयधर की मां आभा का अभिवादन करते हुए घर में प्रवेश किया।

“राम राम बिटिया, आओ बैठो! बहुत दिन बाद आना हुआ! कहो, कैसी हो?” – बुढ़ी आभा ने कहा फिर अपनी बहू सुलोचना को आवाज लगाते हुए उसे गुड़ का ठंडा मीठा शर्बत लाने को बोली।

“अरे काकी, ये मैने क्या सुना है तुम्हारे बहू के मायकेवालों के बारे में?” – रसोई में काम करती सुलोचना की तरफ इशारा कर रमा ने भौवें मटकाते हुए कहा।

“बहुत बुरा हुआ इसके मायकेवालों के साथ! इतनी कम उमर में इसकी छोटी बहन दुनिया से चली गई और उसे बचाने की खातिर बाप भी अपनी जान से हाथ धो बैठा। …और एक ये है, न जाने कबतक मेरी छाती पर मूंग दलेगी! सच बताऊं तो अब मुझे यकीन होने लगा है इन सबमें इस सुलोचना का ही कसुर है! ये है ही मनहूस, जिससे भी इसका सम्बंध रहेगा उसका जीवन भला खुशहाल कैसे रह सकता है! अरे… ओ कलमुंही, कहाँ मर गई! शर्बत आ भी जाएगा या फिर मेहमान अगली बार आएंगे तब लेकर आएगी!” – जहरबुझे स्वर में बुढ़ी आभा ने सुलोचना को आवाज लगाया।….

क्रमशः….

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Written by Shwet Kumar Sinha

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