बेमेल (भाग 17) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

श्यामा जो अबतक बिल्कुल चुप थी, ननद की बातों ने उसके शरीर में मानो आग लगा डाला।

“क्यूं जाउंगी इस गांव से?? हाँ!! होते कौन हो तुमसब मुझे इस गांव से निकालने वाले! कहीं के जमींदार हो? जज-कलक्टर हो? हो क्या तुम!! मैं भी देखती हूँ कौन निकालता है मुझे इस गांव से! कान खोलकर सुन लो तुम सबके सब… मैं कहीं नहीं जाने वाली!!! …और जाओगे तो तुमसब! चलो निकलो मेरे घर से! भागो यहाँ से!!! आएं है बड़ा जमींदारी दिखाने! मनोहर को पागल करार कर सारी धन-सम्पत्ति पर कुंडली जमा बैठे और मुझे आए हैं सही-गलत का पाठ पढ़ाने! आजतक मैं चुप थी क्युंकि ये हमारे परिवार का मामला था! बेइज्जती और मान-प्रतिष्ठा का इतना ही ख्याल है तो जाकर पुछो जरा अपने पति से? जब मुझ अकेली को देखकर उनके भूखे अरमान जागने लगे थे और बहाने से मुझे कमरे में बुलाया था! कहाँ गई थी उस वक्त तुम सबकी जमींदारी??”- जब गला फाड़कर श्यामा ने सवाल खड़े किए तो ननद-ननदोईयों की हिम्मत न हुई कि कोई एक शब्द भी बोलता।

ननदों को भी अब जाकर समझ में आया था कि क्यूं श्यामा ने हवेली आना छोड़ दिया। हालांकि मुख से उन्होने कुछ न कहा और भीगी-बिल्ली बन अपने पतियों संग हवेली वापस लौट गई।

अपनी बेटी की गोद में श्यामा फुट-फुटकर बिलखने लगी। उससे पाप हुआ था, जिसकी कोई माफी नहीं थी। अपने-आप से भी नज़रें मिलाने लायक नहीं बची थी वह! बड़ी मुश्किल से सुलोचना ने फिर श्यामा को शांत किया। उसे भी सारी बातें समझ में आ चुकी थी। पर यह जीवन है। हुई गलतियां सुधारी नहीं जा सकती। उसपर पश्चाताप के आंसू बहाने के सिवाय मनुष्य के पास दूसरा और कोई उपाय नहीं बचता।

***

“डॉक्टर साब, मैं हैजे से पीड़ित लोगों की सेवा करना चाहता हूँ। मुझसे जो भी बन पड़ेगा, मैं करने को तैयार हूँ।” – डॉक्टर के सामने खड़े विजेंद्र ने दृढ़ होकर कहा। वह गांव के मुहाने पर लगे मेडिकल कैम्प के भीतर खड़ा था।

“पर आप हैं कौन?”- डॉक्टर ने पुछा तो विजेंद्र ने अपना परिचय दिया। मदिरा के नशे में धूत होकर उसने कुकृत्य कर तो डाला था पर होश सम्भालते ही पैरों तले जमीन खिसक गई। उसने प्रण लिया कि प्राण त्यागने तक हैजे से पिड़ित मरीजों की सेवा करता रहेगा। अपने लिए उसने यही सजा तय किया था।

लोगों की जान बचाने के लिए डॉक्टर को गांव के जवान और होशियार मर्दों की आवश्यकता तो थी ही! वे ही तो थे जो गांव में जागृति फैला सकते थे। पर विजेंद्र के साथ समस्या यह थी कि गांव में सभी उसके कुकृत्य के बारे में जान चुके थे। इसलिए उसकी बात मानना तो दूर, कोई उसके सामने खड़ा होना भी पसंद नहीं करता।

विजेंद्र ने इसका उपाय निकाला और चेहरे को ढंक अपने दोस्तों के पास पहुंचा। दोस्तों को भी विजेंद्र के बारे में सब पता चल चुका था। पहले तो उन्होने उससे बात करने से भी इंकार कर दिया और जमकर लताड़ा। पर जब घूटने टेककर विजेंद्र उन सबके आगे नतमस्तक हो गया और अपनी सारी गलती कबूली तो उनका हृदय पिघला। पर हैजे के लिए मदद करने के वे सब कतई खिलाफ थे। काफी मान-मनौवल के बाद कुछ दोस्त माने, वो भी केवल इस शर्त पर कि वे गांववालों को हैजे से बचाव के लिए जागृत करेंगे पर मरीजों के पास कभी न जाएंगे। विजेंद्र ने उनकी बातें मान ली और दोस्तों सग हैजे की रोकथाम में जी-जान से जुट गया। अब अपने चेहरे को ढंककर वह सारा दिन अपने दोस्तों संग गांववालों को जागरुक करता। उन्हे दुषित जल पीने से मना करता। गांववालों को साफ-सफाई बरतने, हैंड पम्प का पानी पीने, दस्त होने पर नमक-चीनी के घोल पीने आदि के उपाय सुझाता। फिर शाम होने पर मेडिकल कैम्प में हैजे के मरीजों की सेवा करता।

कुछ समय लगे और गांववाले अब जान चुके थे कि कैसे हैजे से बचाव किया जाए। गिनती इक्का-दुक्का से ही शुरू हुई और एक-एक करके अधिकांश गांववालो ने जमे हुए तालाब का गंदा पानी बंद कर दिया और साफ-सफाई का पूरा ख्याल रखने लगे। असर यह हुआ कि हैजे के मामलो में कुछ कमी आयी। हालांकि यह सुधार बहुत मामूली था और अब गांववालों के सामने एक समस्या आन खड़ी हुई थी, वह थी अन्न की कमी। घर के पुरुषो के हैजे की चपेट में आने की वजह से उनका खेत पर जाना बिल्कुल बंद हो चुका था, जिससे अन्न-धान्य का अभाव होने लगा।

विजेंद्र मेडिकल कैम्प में दिनरात बीमारों की सेवा-सुशुश्रा में जुटा रहता। उसकी निष्ठा देख दोस्तो का भी मन बदला जिससे कई और दोस्त कैम्प में अपनी सेवा देने आगे आए।

वहीं दूसरी तरफ श्यामा अब सारा दिन अपने घर में ही बंद रहती। बेटी सुलोचना के लाख कहने के बावजूद भी वह उसके साथ उसके ससुराल नहीं गई। कहाँ तो बेटी के ससुराल का पानी पीना भी उसे गंवारा न था और यहाँ तो बात रहने की थी, सो इसके लिए वह बिल्कुल तैयार न हुई। गांववालो ने उससे बातचीत और मेलजोल बिल्कुल बंद कर दिया। सभी उससे ऐसे व्यवहार करते जैसे वह कोई अछूत हो। उसका लगा-लगाया काम भी बदनामी की वजह से जाता रहा। भला अपने घर में कोई ऐसी चरित्रहीन स्त्री को कैसे जगह देता! और भी न जाने क्या-क्या तमगे से गांववाले ने उसे नवाज़ा । बड़ी मुश्किल से अब उसका गुजारा चलता था। विनयधर ने पास के ही गांव के एक पहचानवाले की फैक्टरी में उसे काम दिलवा दिया ताकि उसका गुजर-बसर चल सके। मशीनी अंदाज में अब वह अपना दिन गुजारती, न किसी से कोई लेना देना और न कोई बातचीत।

पर श्यामा को दो जून की रोटी मिले, किस्मत को यह भी गंवारा न था। कुछ ही दिनों में उसके शरीर में बदलाव उभरने लगे। वह गर्भ से थी। एकदिन जब सुलोचना मायके आयी तो श्यामा ने उसे सारी बातें बतायी।

“अब आगे तुमने क्या सोचा है, मां?” – सुलोचना ने पुछा।

“मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी।” – श्यामा ने कहा और अपने गर्भ पर हाथ फेरा।

“पर…समाज क्या इस बच्चे को स्वीकार करेगा?”- अपनी शंका जाहिर करते हुए सुलोचना बोली।

“दुनिया-समाज क्या सोचता है, क्या कहता है अगर मैं इसकी परवाह करने लगूं तो अबतक मुझे मर जाना चाहिए था। मुझे पता है कि मुझसे गलती हुई है। पर अपना गर्भ गिराकर दूबारा गलती करुं ऐसा मैं हरगिज नहीं करने वाली। मैंने इस बच्चे को जन्म देने का निर्णय लिया है।” – गर्भ पर नज़रे टिकाए श्यामा ने दृढ़ता से कहा और सुलोचना एकटक होकर अपनी मां को निहारती रही।…

क्रमशः….

अगला भाग

बेमेल (भाग 18) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

All Rights Reserved

© Shwet Kumar Sinha

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!