एक नई शुरुआत-कमलेश आहूजा : Moral Stories in Hindi

“माँ आपसे कितनी बार कहा है,कि बात बात पर पूजा से बहस ना किया करो।लेकिन आप मानती नहीं रोज क्लेश करती रहती हो।”सोमिल गुस्सा होते हुए रमा से बोला।

“तू तो हर बार मुझे ही गलत समझता है और बहु को कुछ नहीं कहता।मैंने इसे मायके वालों को फोन करते सुना था,कि मेरी सास कोई काम नहीं करती दिनभर मैं ही खटती रहती हूँ..बस यही सुनकर मुझे बुरा लगा और मैंने इसको बोल दिया।”कहकर रमा रोने लगी।

रमा बहुत हँसमुख थी पति के अचानक चले जाने से घर परिवार और बेटे की जिम्मेवारी ने उसे तोड़कर रख दिया था।उस पर परिवार का साथ ना मिलने से वह बहुत दुःखी रहती थी।सोचती थी,बेटे की शादी के बाद शायद उसकी ज़िंदगी मे खुशियाँ फिर से लौट आएगीं किन्तु ऐसा नहीं हुआ।रोज उसे ऐसे तानों से दो चार होना पड़ता था।समय के साथ साथ सहनशक्ति भी कमजोर हो रही थी इसलिए इतना दुःख सहने वाली रमा अब छोटी छोटी बातों पर आहत हो जाती और अपनी प्रतिक्रिया दे देती थी।

पूजा ने रमा से बात करना बंद कर दिया।सोमिल ने उसे बहुत समझाया-“बड़ी हैं,दुःखी हैं बोल दिया तो क्या हुआ?फिर गल्ती तो तुम्हारी ही है क्यों तुमने अपने घरवालों से झूठ बोला कि माँ कुछ काम नहीं करतीं।दिन भर तुम्हारे साथ काम में हाथ बंटाती हैं इससे ज्यादा और क्या कर सकतीं हैं इस उम्र में?”सोमिल की बातें तीर की भाँति चुभ गईं पूजा को।तुनककर बोली-” तुम तो अपनी माँ का ही पक्ष लोगे,मैं ही बुरी हूँ चली जाती हूँ इस घर से।करवाते रहना अपनी माँ से सेवा।” 

“वो..मैं तो बस बात संभालने की कोशिश कर रहा था,मेरा ऐसा मतलब बिल्कुल नहीं था।मैंने माँ को भी तो बोला है ना।”बात बिगड़ते देख सोमिल बोला।अब पूजा ने पति से भी बात करना बंद कर दिया कुछ कहना या पूछना होता तो बेटे से कहलवा देती।

रमा को पूजा के व्यवहार से बहुत दुःख हुआ।वह अपने को कुसूरवार समझने लगी।उसे लगा,शायद उसकी वजह से ही बेटे के दाम्पत्य जीवन में कड़वाहट आ रही है अतः उसने अपने घर वापिस जाने का मन बना लिया।सोमिल ने भी सोचा कुछ दिन माँ दूर रहेंगी तो पूजा का गुस्सा भी शांत हो जाएगा।दो दिन की छुट्टी लेकर उन्हें घर छोड़ आया।

घर आकर दो तीन दिन रमा साफ सफाई में व्यस्त रही तो उसे समय का पता ही नहीं चला पर उसके बाद उसे घर खाने को दौड़ने लगा।अब तो दिनरात उसे यही चिंता सताने लगी,कैसे पहाड़ सी जिंदगी गुजारेगी? बहु को उसका साथ पसंद नहीं बेटे को वो दुखी देख नहीं सकती क्या होगा उसका भविष्य में?किसके सहारे जिएगी? ऐसे तमाम प्रश्न उसके जहन में हर पल चलते रहते थे..!

किसी से मिलने का मन नहीं करता था उसका।अपने आप को घर में कैद करके रख लिया था बहुत जरूरी होता तभी बाहर निकलती।बेटे को भी फोन नहीं करती थी,वो ही हर रोज उसकी कुशलक्षेम पूछ लेता था व पोते से उसकी बात करवा देता था।

इसने ये कहा..उसने वो किया…बस सारा दिन रमा के दिमाग में यही चलता रहता था।नकारात्मक सोच का प्रभाव उसकी सेहत पर भी दिखने लगा था।रात को नींद नहीं आती ब्लड प्रेशर भी हाई रहने लगा।डॉक्टर को दिखाया तो उसने दवाइयों का अंबार लगा दिया और दस हिदायतें भी दे दी थीं।रमा को अपनी ज़िंदगी बोझ लगने लगी,जहाँ तक की अब वो अपनी मृत्यु की कामना भी करने लगी थी।

एक दिन चाय का प्याला हाथ में थामे रमा किचन से निकली ही थी,कि डोर बैल बजी।दरवाजा खोला,तो देखा सामने 14-15 साल की लड़की खड़ी थी।नमस्ते करते हुए बोली-“आंटी जी आज शाम पांच बजे हमारे घर सत्संग है आप जरूर आना।हम ग्याहरवें माले पर रहतें हैं।”

“बेटा मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।”रमा आश्चर्य से बोली.।

“हाँ आंटी जी हम बस चार पाँच महीने पहले ही यहाँ शिफ्ट हुएं हैं।” इतना कहकर लड़की चली गई।

रमा शाम को तैयार होकर सत्संग में पहुँच गई।काफी लोग थे उसमें पुराने परिचित भी थे सबसे मिलकर उसे अच्छा लगा।अब वो बिना नागा किए रोज सत्संग जाने लगी।इस बहाने वो घर से भी निकलने लगी और सभी सत्संगियों से मिलकर उसके जीवन से अकेलापन भी दूर होने लगा।प्रति दिन मिलने वाले ज्ञान से उसके मन की नकारात्मकता दिन प्रति दिन दूर हो रही थी फलस्वरूप उसका बैचेन मन शांत होने लगा।उसे जीने की वजह मिल गई।धीरे धीरे अपनों के साथ की चाह भी कम होने लगी बस उठते बैठते ईश्वर का शुकराना और सिमरन करती रहती थी।इस तरह रमा ने अपने जीवन की एक नई शुरुआत की और अपना बुढ़ापा संवार लिया।

 

स्वरचित मौलिक

कमलेश आहूजा

मुम्बई (महाराष्ट्र)

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