बेमेल (भाग 10) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

दूसरी तरफ हैजा गांव में पांव पसारने लगा था और कुछ गांव वालों को अपनी चपेट में भी ले चुका था। हैजे की प्रकृति से अनभिज्ञ और अपनी जान की परवाह किए बगैर श्यामा ब्रह्मबेला में ही जागकर घर के काम निपटाती और जीविकोपार्जन के लिए निकलती तो सुरज ढलने पर ही घर का मुंह देख पाती।

अपने अभाव पूर्ण जीवन को श्यामा ने बड़ी सहजता से आत्मसात किया था और दुख की एक लकीर भी उसके चेहरे पर उभरने न पाए थे। शायद दुख भी श्यामा की इस विलक्षण प्रतिभा से दुखी था और विभिन्न माध्यमों से उसे अपनी मौजुदगी का एहसास कराता रहता।

एक दिन श्यामा जब काम से थकी- हारी घर लौटी तो पास के गांव की विमला को घर पर उसका इंतजार करते पाया। विमला उसी गांव में रहती थी जहाँ श्यामा की संझली बेटी कामना का ससुराल था।

“कैसी है विमला? अचानक मेरी याद कैसे आ गई ? मुझे न तुझसे बड़ी शिकायत है! अभिलाषा की शादी का न्योता भेजा, पर तू आयी तक नहीं! चल खुद तो नहीं आयी, अपने बेटे-बहू तक को नहीं भेजा!”- मटके से ठंडे जल निकाल विमला की तरफ बढ़ाते हुए श्यामा ने शिकायत भरे अंदाज में कहा। ठंडे जल से गले को तर कर विमला अनुत्तरित होकर कातर भाव से श्यामा को निहारती रही।

“अरे आखिर क्या हुआ….बोलेगी भी कुछ?”- श्यामा ने मुस्कुराकर पुछा। पर विमला का चेहरा देख उसे किसी अनहोनी की अनुभूति होने लगी थी।

“श्यामा, तेरी संझली बेटी कामना अपने पति का साथ छोड़ किसी पराए मर्द के साथ भाग गई है!”- कलेजे पर पत्थर रख विमला ने एक ही सांस में पूरी बात कह डाली। श्यामा को मानो काटो तो खून नहीं! उसकी आंखें ऐसे स्थूल हुई कि उनसे अश्रू तक न निकले। विमला से उसने कोई प्रश्न न किया। कोई दूसरी स्त्री होती तो जड़ की तह तक जाती। बाल के खाल निकालती कि आखिर ऐसी क्या वजह हुई जो कामना को ऐसा घोर कृत्य करने पर विवश होना पड़ा। पर कामना को श्यामा ने अपने कोख में पाला था और उसके स्वभाव से वह भली-भांति परिचित थी।

अधीर स्वभाव वाली कामना ने मनचाहे युवक से प्रेमविवाह तो कर लिया। पर विवाहोपरांत अपने दायित्वों का निर्वहण न कर सकी। पति की अनुपस्थिति में अपने मातापिता तूल्य बीमार और असहाय सास-ससूर को बोझ समझती एवं उनकी सेवा-सुश्रुषा का उसे कोई ख्याल न रहता। एक दिन जब उनके प्राणों पर बन पड़ी, तब जाकर बात खुली। पति ने उसे समझाने की कोशिश क्या की उसने इसे अपने अहं पर ले लिया और जी भरकर खरी-खोटी सुना डाला। यहाँ तक कि पंचों में शिकायत करने की धमकी तक दे डाली। कामना का पति उसके अधीर और चंचल स्वभाव से परिचित हो चुका था। उसने कुछ भी कहना ठीक न समझा और अकेला ही मातापिता की सेवा में जुटा रहा। अब वह तड़के ही उठकर अपने बीमार मातापिता के लिए भोजन तैयार करता फिर उन्हे खिलाकर और वैद्य की बतायी गोलियां देकर काम पर जाता। पर कामना को ये भी गंवारा न था। पत्नी पर प्रेम उड़ेलने के बजाय पति के द्वारा बीमार मातापिता की सेवा करते देख कामना का गुस्सा सातवें आसमान पर जा टिका। हालांकि मुख से उसने कुछ न कहा और सारा गुस्सा पीकर रह गई। अब उसका मन पति से विमुख होता गया जिसका फायदा एक मनचले पड़ोसी ने उठाया। एकदिन मौका पाकर कामना अपना ससुराल त्याग पर पुरुष के साथ किसी अज्ञात स्थल को गमन कर गयी।

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गाँव में हैजा बड़ी तेजी से अपनी विभीषिका फैला चुका था। शहर से आए डॉक्टर के दल ने गांव में ही कैम्प लगाकर ग्रामीणो का इलाज करना शुरु कर दिया। साथ ही गांववालों को वे जागरुक करने का प्रयास भी करते रहे। पर बीमारी इतनी तेजी से पांव पसारने लगी थी कि इसे महामारी का शक्ल अख्तियार करते ज्यादा समय न लगा। अधिकांश ग्रामीण अशिक्षित थे। लाख समझाने के बावजूद भी उनका खुले में सौच जाना,नदी-नाले का दूषित जल पीना न रुका जिससे बीमारी को अपना दानवीय रुप धारण करते वक्त न लगा। डॉक्टर ने गांव के सभी नवयुवकों से आग्रह किया वे आगे आकर बीमारी की रोकथाम में उनकी मदद करें एवम ग्रामीणों में जागरुकता फैलाएं। पर घरवालों के दबाव में कोई आगे न आया।

धीरे-धीरे हालत बद से बद्तर होने लगी और बीमारी ने गांव के आधे घरों को अपने चपेट में ले लिया। कई घरों में गृहस्वामी के बीमार पड़ने अथवा उनके असामयिक काल के ग्रास बन जाने से खाने तक के लाले पड़ने लगे। परिस्थिति इतनी विकट होने लगी कि गांववाले त्राहिमाम कर उठे। दिवंगत जमींदार राजवीर सिंह अगर इस समय जीवित होते तो संकट की इस घड़ी में समूचे गांववालों को अपने बच्चों की भांति गले से लगा लेते एवम् अन्न-धान्य का दरवाजा खोल देते। पर उनके बाद ग्रामीणों के सिर से जैसे पिता का साया ही उठ गया। अब हवेली से मदद मिलना तो दूर उसके भीतर जाना भी सम्भव न था। दो शहरी मुस्टंडे दिनरात हवेली के दरवाजे पर पहरेदारी दिया करते और रह-रहकर भीतर से विलायती कुत्तों के भौंकने की आवाज आती। आते-जाते गांव के छोटे बच्चे भौंकने की आवाज निकालते तो भीतर से कुत्तों की गर्जना सुन ठठाकर हंस पड़ते। कह सकते हैं कि हवेली के भीतर और बाहर अब इतना ही सम्पर्क बना था।

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अभिलाषा के ब्याह के महीने भर बीत चुके थे। पति-पत्नि की एक-दूसरे की प्रति आसक्ति उनके प्रेम विवाह के सफल होने का प्रमाण थी। पर विजेंद्र को अपनी जिम्मेदारी का कोई अहसास न था। वह कोई कामधाम न करता। गली-मोहल्ले में यार-दोस्तों संग बैठ दिनभर चौपड़ खेलना, हंसी-ठिठोली करना अभी भी बंद न हुआ था। बाप-दादा की अथाह सम्पत्ति ने उसे जिम्मेदार न बनने दिया। एक दिन अर्धांगिनी के आंखों में अपने मातापिता के वियोग में आंसू बहते दिखे तो उसे जैसे बहाना ही मिल गया। अगले ही दिन पत्नी को संग लेकर ससुराल जा पहुंचा।

पति की अनुरक्ति देख अभिलाषा फुली न समा रही थी। पर प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुंची वह स्त्री कहाँ जानती थी कि जिस पति के प्रेम में लोलुप होकर वह परिणयसूत्र में बंधी है, उसके लिए प्रेम का तात्पर्य कामक्रीड़ा से इतर कुछ भी न था और अपनी तृष्णा हेतू परस्त्रीगमन से भी उसे तनिक परहेज न था।….

क्रमश:…

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बेमेल (भाग 11) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

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Writer: Shwet Kumar Sinha

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