बेमेल (भाग 11) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

विजेंद्र के सुडौल व गठीले बदन तथा उसके गौरवर्ण पर स्त्रियां मोहित हो जाया करती थी। फिर वह उसके घर के इर्द-गिर्द तबतक चक्कर लगाता जबतक उसकी कामवासना की पूर्ति न हो जाती। विवाहपूर्व एकबार गांव के चौराहे पर अपने आवारा दोस्तों संग बैठा विजेंद्र जब चौपड़ खेल रहा था तब उसकी बलिष्ठ काया ने कुछ क्षण के लिए गली से गुजरती श्यामा का ध्यान भी अपनी तरफ खींच लिया था। पर नज़रों की चंचलता कभी श्यामा की मर्यादा को भेद नहीं पाए। हालांकि चंठ विजेंद्र की नज़रों ने उसके मन की बात को भांप लिया था। बस फिर क्या था उसने उस गली में डेरा ही डाल दिया। हर रोज उस वक्त वह गली में मौजुद होता जब श्यामा गली से गुजरती। उसके देहयष्टि की आसक्ति श्यामा के नेत्रों पर उभरकर संस्कारों की अभेद दूर्ग से टकराती और वही चकनाचूर हो जाती।

विजेंद्र की कोई युक्ति काम न आयी। पर उसी गली में एक घर के मुंडेर से झांकती स्त्री उसकी काया से आकर्षित होकर उसके प्रेम प्रपंच में आ फंसी। विधि का विधान तो देखिए यह स्त्री कोई और नहीं बल्कि श्यामा की मंझली बेटी अभिलाषा ही थी।

***

“तू कितना काम करेगी मां? देख, मैं आ गई हूँ! चल हट और जाकर आराम कर! अब जबतक मैं वापस न चली जाऊं, तुझे चुल्हे-चौंके और घर का किसी काम के लिए चिंता करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं!”- मायके पहुंची अभिलाषा ने अपनी मां से लाड़ लगाते हुए कहा जो रसोई में चुल्हे-चौंके में व्यस्त थी। चेहरे पर मुस्कान लिए अभिलाषा और विजेंद्र रसोई के दरवाजे पर खड़े श्यामा को निहारते रहे। साड़ी के पल्लू से अपने गीले हाथ पोछती हुई श्यामा रसोई से बाहर आयी।

“तुमलोग, अचानक? सब ठीक तो है न!”- अचानक से बेटी- दामाद को घर पर पाकर श्यामा ने उनसे पुछा।

“क्यूं?? बिना बताए मायके में आने की बेटियों को मनाही है क्या!! ऐसा कुछ है तो फिर मैं चली जाती हूँ!”- शिकायत भरे अंदाज में अभिलाषा ने कहा और मुस्कुराकर अपनी मां के गले लग गई।

“ओह, इनका कहने का वो मतलब नहीं था! तुम तो हमेशा बातों का गलत मतलब निकाल लेती हो!”- श्यामा का पक्ष लेते हुए विजेंद्र ने कहा और आगे बढ़कर उसके चरणस्पर्श किए।

विजेंद्र की चोर निगाहें श्यामा की काया को निहारती रही जो अस्त होने के बजाय दिन ब दिन निखरते ही जा रहे थे। पर उसे कहाँ पता था कि उसकी कुदृष्टि को श्यामा की नज़रों ने भांप लिया है। वैसे भी स्त्रियों को ईश्वर ने एक छटी इंद्री दे रखी है जो कुदृष्टि को सहज ही भांप लेती हैं।

“जमाई बाबू,आप बैठिए! मैं अभी आपलोगों के लिए जल लेकर आयी!”- अपनी उभरी काया को वस्त्रो से ढंकने का प्रयास करती हुई श्यामा ने कहा। हालांकि उसने खुद बड़ी मुश्किल से अपने नज़रों को विजेंद्र के बलिष्ठ शरीर से परे कर रखा था।

बिना रुके वह पलटी और रसोई में पहुंच खुद को कामों में उलझाने का प्रयत्न करती रही। पर अभिलाषा ने उसे घर के किसी काम को हाथ न लगाने दिया।

विजेंद्र भी भीतर के कमरे में मौजुद अपने ससुर मनोहर के पास चला गया जहाँ वे दोनो घंटों तक बतियाते रहे। उनके लिए गुड़ का शरबत लेकर अभिलाषा भी वहीं आकर बैठ गई और मां को भी अपने बीच ही बुला लिया। न चाहते हुए भी श्यामा अपनी बेटी की बातों को टाल न सकी। हालांकि वहां मौजुद विजेंद्र ने सास श्यामा की उलझन को ताड़ लिया था। बड़ी चपलता से उसने फिर पूरे माहौल को सम्भाला जिसमे श्यामा भी खुद को सहज महसूस करने लगी थी।

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“सुलोचना, जरा यहाँ आना?”- सास के पांव दबाती सुलोचना को आवाज लगाकर विनयधर ने बुलाया। दिनभर का थका मांदा वह अभी-अभी घर लौटा था। बेटे द्वारा बहु को लगाई आवाज बुढ़ी मां आभा के कानों में पड़ते ही उसकी भौवें तन गई।

“जमाना कितना बदल गया है आजकल! एक हमारा वक़्त था! मजाल था कि मां-बाप के सामने अपनी पत्नी को यूं बेशर्मों की तरह आवाज देकर बुला लें!”- वितृष्णा भाव से सुलोचना की तरफ देखते हुए आभा ने कहा।

“नहीं मां, ऐसी बात नहीं है! दरअसल अभी-अभी काम से लौटकर आए हैं न! कुछ काम होगा! इसिलिए आवाज देकर बुला लिया!”- अपने पति की वकालत करते हुए सुलोचना ने कहा।

“हाँ…हाँ! ठीक है, ठीक है! सब पता है मुझे तुमदोनों के चोचले! ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत कर!!” – अपने पैरों को सुलोचना से परे करते हुए बुढ़ी आभा ने कहा।

“मां, मैं….. जाऊं!”- झिझक के साथ सुलोचना ने धीरे से पुछा।

“जैसे मैं नहीं बोलुंगी तो नहीं जाएगी! जा अब…मर जाकर! देख क्या बोलता है??” – सास ने कहा और मुंह फेरकर अपनी आंखें बंद कर ली। सुलोचना ने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया और कमरे से बाहर चली आयी।

“मैने तुम्हारे लिए एक साड़ी पसंद की है! जरा देखकर बताओ कैसा है?”- कमरे में प्रवेश करते ही विनयधर ने सुलोचना से कहा और साड़ियों के गट्ठर में से एक खुबसुरत साड़ी निकालकर सामने बिस्तर पर रख दिया।

“सच में, बड़ी सुंदर साड़ी है! पर…महंगी मालूम पड़ती है? इसे ग्राहको के लिए रखने के बजाय मुझे देकर आप अपना नुकसान नहीं कर रहे?” – साड़ी पर किए उम्दा कारीगरी पर हाथ फिराते हुए सुलोचना ने कहा।

“तू वो सब मत सोच! तुझे पसंद है तो रख ले! मेरे पास दो थे। एक बिक गए और दूजा मैने तेरे लिए बचाकर रखा है! जरा पहनकर दिखा कैसा लगता है तुझपर!”- विनयधर ने सुलोचना से कहा।

“अच्छा ठीक है, पहन लूंगी! आप थके-मांदे आए हो, पहले कुछ खा लो। मैं खाने को कुछ लेकर आती हूँ!”- सुलोचना ने कहा और कमरे से बाहर जाने लगी। इससे पहले कि वह कमरे से बाहर जाती, उसकी बांह पकड़कर विनयधर ने उसे अपनी तरफ खींच लिया।

“ओह, क्या कर रहे हैं आप! मां जी देख लेंगी तो क्या कहेंगी!”- खुद को विनयधर की बाहों से दूर करने का असफल प्रयास करते हुए सुलोचना ने कहा।

“कोई नहीं देखेगा! मां अपने कमरे में लेटी है! और अपनी बीवी के साथ प्रेम करना कोई गुनाह है क्या??”- सुलोचना के चेहरे को दोनों हाथो से थामे विनयधर मुस्कुराते हुए बोला। 

“चलिए हटिए, मुझे शर्म आती है! ये क्या हो गया है आज आपको!” पति के आलींगन में सुलोचना शर्म से पानी-पानी हुए जा रही थी।…

क्रमशः…

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बेमेल (भाग 12) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

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Writer: Shwet Kumar Sinha

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