बेमेल (भाग 9) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

बगीचे से भांति-भांति के पुष्प लेकर सुलोचना पूजनकक्ष में आयी तो देखा कि ईश्वर के आगे नतमस्तक होकर सासू मां ध्यान मग्न होकर बैठी थी। थोड़े से पुष्प इश्वर के चरणों में अर्पित कर बाकी सास की तरफ बढ़ाया तो आज उसे बड़ी हैरत हुई। आंखे तरेरने के बजाय आज सास ने बड़ी सहजता से पुष्प स्वीकर कर लिए और वहीं रख देने को कहा। फिर इशारे से सुलोचना को बाहर जाने को कहा ताकि पूजन में ध्यान लगा सके। सुलोचना पूजनकक्ष से बाहर आ गई और घर के आंगन में बने तुलसी पिंड के समक्ष खड़ी हो उसकी अराधना करने लगी। कुछ देर बाद जब सासू मां पूजा समाप्त कर अपने कमरे में चली गई तो वह पूजनकक्ष में आयी और ईश्वर की अराधना में लीन हो गई। ईश्वर के चरणों में अर्पित करने के लिए सामने रखा पुष्प का पात्र खाली पड़ा था जिसे सुलोचना को देखकर तसल्ली हुई। पर यह खुशी अल्प साबित हुई जब ईश्वर के चरणों में कोई पुष्प न दिखे। समझते देर न लगी कि सास ने पुष्प भगवान को चढ़ाने के बजाए कहीं फेंक दिए। अशांत मन से फिर वह ईश्वर का ध्यान लगाने की कोशिश करने लगी। पूजा खत्म कर जब बाहर निकली तो सारे पुष्प एक कोने में फेंके मिले। देखकर उसका ह्र्दय विकल हो उठा। पर यह तो अब रोज की आदत बन चुकी थी| अक्सर वह चुपचाप सास की तरह-तरह की यातनाएं झेलती और पति को जरा-सी भनक भी न लगने देती जिससे उसके व्यवसाय में कोई व्यवधान न उत्पन्न हो।

वहीं दूसरी तरफ सुलोचना की मंझली बहन अभिलाषा अपने प्रेमी संग जीवन की नई शुरुआत करने के सपने संजो रही थी। उसने तय किया कि वह विजेंद्र को मां से मिलाएगी।

एक दिन।

शाम का समय था और श्यामा काम से थकी-मांदी घर लौटी। उसे पीने के लिए अभिलाषा ने ठंडा पानी दिया और वहीं बैठ उसके पांव दबाने लगी। आंखे मूंदे श्यामा बिस्तर पर पड़ी रही। थोड़ा ताज्जूब भी हुआ क्यूंकि यह पहली बार था जब अभिलाषा उसके पैर दबा रही थी नहीं तो वह दर्द से कराहती थी और उसकी दोनों बेटियाँ ऐसे बर्ताव करती जैसे वे वहाँ है ही नहीं।

“आज ये सूरज भला शाम में कैसे निकल गया? मुझे याद नहीं कि सुलोचना के जाने के बाद तुमदोनों बहनों में से किसी ने भी कभी मेरे पैरों को स्पर्श भी किया हो! फिर आज क्या बात आन पड़ी जो माँ की इतनी सेवा की जा रही है! मुझसे कुछ काम निकलवाना है?”- आंखें मूंदे हुए श्यामा ने पुछा।

“माँ, ऐसा कैसे समझ लिया कि केवल सुलोचना दीदी को ही आपकी सेवा कर सकती है। आपकी पीड़ा देख मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। इसिलिए आपकी सेवा करने आ गई।”- अभिलाषा ने कहा और माँ के पांव दबाती रही। अभिलाषा के हाथ लगने से श्यामा को बड़ा आराम मिला और उसकी आंखे लग गई। माँ को मनाने के लिए अभिलाषा ने आज सारी युक्तियां आजमाने का सोच रखा था। वह रसोई की तरफ बढ़ी और मां की पसंद के पकवान बनाने में जुट गई।

“सच कहा है किसी ने कि बिटिया के संस्कार घर में दिखे तो माँ-बाप के भाग खुल जाते हैं और ससुराल में उभर कर आये तो उन्हे तीरथ बराबर फल मिलता है। देखो जरा इसके हाथ लगते ही पहले तो मुझे पलभर में नींद आ गई और अब इसके हाथो ने भोजन पर क्या खूब कमाल दिखाया है! आज कितना स्वादिष्ट भोजन बनाया है इसने!”- मुंह में कोर लेते हुए श्यामा ने कहा। मनोहर भी पास बैठा बड़े चाव से जलपान कर रहा था।

“अच्छा बना है तो एक रोटी और लो न माँ! कितना कम खाती हो!”- अभिलाषा ने कहा और एक रोटी मां की थाली में डाल दी। सबको भोजन से संतृप्त करके फिर उसने खुद भोजन किया और मां से आग्रह किया कि वह आज उसके पास ही सो जाये।

श्यामा की पारखी निगाहों ने अंदाजा लगा लिया था कि बेटी को किसी से आसक्ति है और उसे पाने के लिए मां की इतनी सेवा की जा रही है।

“मां? सो गई क्या?” – बिस्तर पर श्यामा के बगल में लेटी अभिलाषा ने पुछा।

“नहीं री, संध्याबेला में सोयी थी। इतनी जल्दी नींद नहीं आएगी।”

“मेरे हाथो का बना भोजन कैसा लगा तुझे?”

“अच्छा था! बहुत अच्छा! मानो तृप्ति के देवता स्वयं आज उसपर विराजमान थे!”- श्यामा ने कहा फिर आंखे खोलकर पास लेटे बेटी की तरफ देखी जिसकी नज़रें छत पर टिकी किसी उधेड़बून में थी।

“कुछ कहना चाहती है मुझसे?” – श्यामा ने पुछा और अभिलाषा के मन की व्याकुलता तेज हो गई। अपने अधीर मन को शांत करते हुए उसने कहा – “तुझसे मेरे मन की कोई बात छिपी है भला! कहना तो है पर कैसे कहूं कुछ समझ में नहीं आ रहा!”

“सारी शंका निकाल फेंक और मन में जो कुछ भी है बिना झिझक बोल डाल!”

“मां…वो, दरअसल बात ये है कि….मन ही मन मैने किसी को अपना जीवनसाथी स्वीकार कर लिया है। उसके नयनों के तेज ने मेरे हृदय को अपने बस में कर लिया है। उसके चेहरे की आभा मेरे मुखमंडल पर विराजमान हो गई है। अपने चरित्र से उसने मुझे चरित्रवान बना डाला है, मां। उसके प्रति यह मेरी अनुरक्ति ही  है जिसने बिना कुछ बताए आपको मेरे प्रेम का एहसास करा डाला।” – अभिलाषा की शुरुआत तो झिझकते हुए हुई, पर जब अपने जीवनसंगी का बखान करना शुरु किया तो बोलती ही रही। कमरे में अंधेरा था और बिना रोकटोक बाहर सड़क का प्रकाश खुली खिड़की के रास्ते दीवारों पर दस्तक दे चुका था। मद्धम प्रकाश में आंखें मूंद श्यामा सोने का प्रयास करती रही, पर असफल ही रही। अभिलाषा के प्रेम की आसक्ति को वह महसूस कर सकती थी।

“कल मैं काम पर देर से जाऊंगी! हो सके तो उसे बुला लेना! अब काफी रात हो गई! सो जा।”- कहकर श्यामा ने करवट बदल लिया और सोने का प्रयास करने लगी।

अगली सुबह।

तड़के ही गली के एक लड़के के बोलकर अभिलाषा ने विजेंद्र को अपने घर आने का न्योता भिजवा डाला। अच्छे पकवान बनाकर फिर खुद भी सजने-सँवरने लगी।

भोर बेला में ही श्यामा एक-दो घरों में चुल्हा-चौंका कर आयी और बाकी घरों में आज छुट्टी ले लिया। घर लौटकर आयी फिर नहाधोकर तैयार होने लगी। जीवन के मध्यकाल में आकर भी उम्र की पतझड़ उसके यौवन की छटा को अस्त न कर पायी थी। पूरानी सुती साड़ी, माथे पर सिंदूर, हाथो में बदरंग होती चुड़ियों के बावजूद भी श्यामा के शरीर की आभा मंद नहीं पड़ी थी। पति को जलपान करा वह उसके कभी खत्म न होने वाले वार्तालाप में व्यस्त थी। तभी घर में किसी मेहमान की दस्तक हुई।

“मां…ओ… मां! जरा बाहर आकर देखना, कौन आया है! विजेंद्र आ गया, मां!”- अभिलाषा ने आवाज देकर उसे बुलाया। पति को कमरे में ही बैठने को बोल वह बाहर आयी और उसके पैर दरवाजे पर ही जड़ हो गये।

यह वही युवक था जिसे आते-जाते अक्सर वह गलियों में यार-दोस्तों संग हंसी-ठिठोली करते देखा करती। यह वही युवक था जिसका गौरवर्ण वाला सौम्य, सजीला और गठीला बदन नाहक ही उसकी नज़रें अपनी तरफ खींच लिया करता था। पर नयनों को अपनी मर्यादा का एहसास दिला वह आगे बढ़ जाती।

आज अचानक अपने सम्मुख उसे अपनी पुत्री के प्रेमी के रूप में खड़ा देख बड़ी आत्मग्लानि महसूस हुई। पैर तो मानो जड़ हो गए! इतनी भी हिम्मत न हुई कि उसे भली-भांति देखे-सुने,जांचे-पारखे और तय कर सके कि वह उसकी पुत्री के योग्य वर बनने के लायक है भी अथवा नहीं!

“माँ? इतनी चिंतित क्यूँ हो? क्या विजेंद्र तुम्हें पसंद नहीं आया? स्मरण रहे कि तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध जाकर मैं कभी कोई अनुचित कार्य नहीं करूंगी। स्वच्छंद होकर तुम इस रिश्ते की स्वीकृति-अस्वीकृति का निर्णय ले सकती हो। संस्कार की दहलीज लांघकर मैं कभी भी पथभ्रष्ट नहीं होऊँगी, मां।”- अभिलाषा ने दृढ़ता से कहा। मां के मुख पर गम्भीरता के भाव देख उसका हृदय अधीर हुए जा रहा था। वहीं पास ही लकड़ी की एक पुरानी कुर्सी पर बैठा विजेंद्र अपना सिर झुंकाए माँ-बेटी की बातें सुनता रहा।

अभिलाषा की बातें सुन श्यामा का मन गदगद हो गया। बेटियाँ जन्मजात ही अक़्लमंद और जिम्मेदार होती हैं। होश संभालते ही घर के हरेक सुख-दुख को आत्मसात करने वाली और ससुराल में मायके की मान-प्रतिष्ठा को सदा बरकरार रखने वाली होती हैं। अभिलाषा की बातों में श्यामा ने इसकी झलक पा ली थी। पुलकित हृदय से उसने अभिलाषा को सीने से लगा लिया जो उसकी रजामंदी का संकेत था। पर उन माँ-बेटी को कहाँ मालूम था कि ज़िंदगी निश्छल हृदय रखने वालो की कठोर परीक्षा लेता है और विजेंद्र उसका माध्यममात्र बनकर प्रकट हुआ था।

मनोहर को साथ लेकर श्यामा फिर बाहर आयी और विजेंद्र से उसका परिचय कराया। विजेंद्र ने अपने कुल-खानदान के बारे में सब बताया और जल्द ही घरवालों को लेकर आने को बोल चला गया।

जल्द ही दोनों परिवार दुबारा मिले और ब्राहमण के निकाले शुभ मुहुर्त पर उनका विवाह तय कर दिया। विवाहपूर्व घर में बिताए अपने अंतिम कुछ दिनों में अभिलाषा ने माता-पिता की सेवा में कोई कोर-कसर न छोड़ा। उसके ब्याहकर ससुराल जाने के पश्चात अब श्यामा बिल्कुल अकेली पड़ गई। घर-बाहर सबकुछ अब उसे अकेले ही सम्भालना पड़ता था।…

क्रमश:…

अगला भाग

बेमेल (भाग 10) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

©All Rights Reserved

Written by Shwet Kumar Sinha

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!