अनूठी पहल – निभा राजीव “निर्वी” : Moral stories in hindi

“-तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो मीरा! गलती से भी दोबारा ऐसी बात अपनी जुबान पर मत लाना! और माँ को भी पता नहीं क्या सूझी.. कम से कम उन्हें तो सोचना चाहिए था कि…”

“बस करो विवेक! माँ को कुछ मत कहना… यह निर्णय माँ का नहीं बल्कि मेरा है…” मीरा का स्वर भी कठोर हो गया।

“अगर ऐसा है तो यही कहूंगा कि दिमाग फिर गया है तुम्हारा! तुम्हें ऐसी बातों से फर्क नहीं पड़ता हो लेकिन मुझे बहुत फर्क पड़ता है, क्योंकि वह तुम्हारी मां नहीं मेरी मां है।” क्रुद्ध होकर विवेक ने कड़वाहट उगली।

“हां …तुम्हें इसलिए फर्क पड़ता है क्योंकि तुम सारी बातें सिर्फ अपने दृष्टिकोण से देखते हो… किसी और की भावनाओं और दृष्टिकोण से तो तुम्हें कोई मतलब ही नहीं है!”मीरा ने भी उतने ही तीखेपन से जवाब दिया।

“कान खोल कर सुन लो मीरा… जैसा तुम सोच रही हो वैसा कभी नहीं हो सकता। लोक लाज भी कोई चीज होती है। यह रायता फैला कर तमाशा मत बनाओ.. अब इस विषय में इससे आगे मैं कोई बहस नहीं करना चाहता…”

दो टूक बोलकर विवेक गुस्से में बिना खाए पिए ही ऑफिस के लिए निकल गया।बेटे बहू के बीच हो रही इस तकरार की आवाज पार्वती देवी तक पहुंच रही थी। पर वह यह सोचकर उनके बीच बचाव करने नहीं पहुंची कि कहीं उनके जाने से आग में और उनकी ना पड़ जाए वह भी वर्ष सी दिवंगत पति महेश जी की तस्वीर के आगे सिर झुका कर सिसक पड़ीं।

             इधर मीरा को समझ में नहीं आ रहा था कि इतने शांत और सौम्य स्वभाव का विवेक यह बात सुनकर इतना विचलित और क्रुद्ध क्यों हो गया। विवेक के जाने के बाद वह वहीं सोफे पर बैठ गई और सारी बातों पर सिरे से विचार करने लगी।

              मीरा और विवेक के विवाह को 7 वर्ष हो चुके थे। विवाह से एक वर्ष पूर्व ही विवेक के पिता का देहांत हो गया था। इस आयु में विवेक की माँ पार्वती देवी के लिए जीवनसाथी का वियोग असह्य हो गया था। वह दुखी और अवसादित होकर जैसे अंदर ही अंदर घुलने लगी थी। फिर सभी मित्रों और संबंधियों के समझाने बुझाने पर उन्होंने शीघ्र ही विवेक का विवाह करने का निर्णय ले लिया। विवेक ने भी माँ की अवस्था देखते हुए इस विषय में बिना कोई विवाद किये अपनी सहमति दे दी। पार्वती देवी बहुत ही चुनकर और अपनी पसंद से मीरा को बहू बनकर इस घर में ले आईं। घर में जैसे नई खुशियां आ गईं।

अच्छी बात यह थी कि मीरा का ऑफिस भी विवेक के ऑफिस के पास ही था तो दोनों साथ ही आने जाने लगे। कभी सप्ताहांत पर दोनों घूमने निकल जाते। कुछ तो बचपने और कुछ नव परिणय के पुलक में विवेक और मीरा कभी माँ के एकाकीपन को भांप ही नहीं पाए। 

             2 साल के बाद पुत्र आर्यन का जन्म हुआ। नन्हे कदमों के साथ वह पूरे घर के लिए नई उमंगें लेकर आया था। मातृत्व अवकाश समाप्त होने के बाद मीरा ने पुनः ऑफिस जाना प्रारंभ कर दिया। पार्वती देवी बड़े प्यार से आर्यन की देखभाल करने लगीं। मगर जब विवेक और मीरा ऑफिस से आते तो वे आर्यन के साथ व्यस्त हो जाते और आपस में कार्य क्षेत्र को लेकर भी चर्चाएं प्रारंभ हो जाती थी। ऐसे में पार्वती देवी अलग-थलग हो जाती थी। ढेर सारा एकाकीपन उनकी आंखों में उतर जाता था। वे चुपचाप घर के कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखने का प्रयास करने लगती थीं।

         मगर अभी 10 दिन पहले की बात है, आर्यन को बुखार हो आया और वह मीरा से अलग ही नहीं होना चाहता था। ऐसे में मीरा ने दो-तीन दिन की छुट्टी ले ली। पार्वती देवी बड़े मनोयोग से पोते की सेवा करती, सारे घर के कार्य निपटाती… मगर उसके बाद फिर उन्हें वही एकाकीपन का अवसाद सताने लगता था और वह महेश बाबू की तस्वीर के आगे सिर झुकाए बैठी घंटों न जाने क्या सोचती रहती थी।

             तब मीरा ने इस बात पर ध्यान दिया और पार्वती देवी की पीड़ा देखकर उसका मन द्रवित हो गया। उसे स्वयं के ऊपर भी क्रोध हो आया कि वह कैसे अपनी ही दुनिया में इतनी व्यस्त हो गई कि माँ जैसी सास के दुख का भान ही नहीं हो पाया। नहीं अब और नहीं… वह माँ के लिए अवश्य कुछ ना कुछ करेगी.. मन ही मन उसने उसने निश्चय कर लिया। 

             दो-तीन दिन के बाद जब आर्यन स्वस्थ हो गया, फिर भी मीरा ने अपनी छुट्टियां यह कहकर 10 दिन और बढ़वा लीं कि वह आर्यन के साथ थोड़ा समय व्यतीत करना चाहती है। मगर अंदर अपने हृदय में वह पार्वती देवी के अवसाद को दूर करने का प्रयास करना चाहती थी। उसने सोचा कि वह परिवार के साथ थोड़ा समय व्यतीत करेगी, उन्हें थोड़ा घुमाने फिराने ले जाएगी तो शायद उनकी मानसिक अवस्था में कुछ सुधार आए।

                दूसरे दिन शाम हुई तो वह पार्वती देवी के पास पहुंची और उनसे कहा,

“-चलिए माँ हम पास वाले पार्क में चलते हैं। आर्यन भी वहां थोड़ा खेल लेगा।”

पार्वती देवी पहले तो मना करती रही मगर मीरा और आर्यन के हठ के आगे उनकी एक न चली और हार कर वह उन दोनों के साथ चल पड़ी। 

         पार्क में पहुंच कर मीरा ने कहा,

“-मां, बस एक बार इसे झूला झुला कर ले आती हूँ।”

 मीरा आर्यन को लेकर झूले की तरफ बढ़ गई और पार्वती देवी वहीं हल्के हल्के टहलने लगीं। लेकिन आदत ना होने के कारण उन्हें थोड़ी थकान होने लगी तो वह वही बेंच पर बैठ गई। कुछ ही देर के बाद एक बुजुर्ग सज्जन जो वहीं टहल रहे थे वह भी आकर बेंच की दूसरी ओर बैठ गए। शायद उन्हें भी थकान हो रही थी। उनके पास थरमस में चाय थी। उन्होंने थरमस खोला तो चाय की खुशबू फैल गई। पार्वती देवी ने कनखियों से उस ओर देखा, तभी अचानक उन सज्जन की दृष्टि भी पार्वती देवी पर पड़ी। उन्हें चाय की तरफ देखती पाकर उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई। उन्होंने थैले से डिस्पोजेबल कप निकाला और थोड़ी सी चाय डालकर पार्वती देवी की तरफ बढ़ा दी। पार्वती देवी बिल्कुल अचकचा गईं,

“- अरे नहीं नहीं…आप पीजिए।”

“-जी कोई बात नहीं… आप संकोच मत कीजिए, थोड़ी सी चाय ले लीजिए। वैसे अगर आपको मुझ पर विश्वास ना हो रहा हो तो कोई बात नहीं है।” उन सज्जन ने सौम्यता से कहा।

इस पर पार्वती देवी झेंप गईं और कप थाम लिया। चाय पीते पीते हुए सज्जन अपने विषय में बताने लगे,

“-मेरा नाम अरुण है। मैं पास की ही सोसाइटी में रहता हूं। मेरा अपना घर है। कुछ वर्षों पूर्व पत्नी का देहांत हो गया।बच्चे भी अब बड़े हो गए हैं तो सब अपने जीवन में व्यस्त हो गए हैं। दो बेटे हैं, दोनों बाहर विदेश में नौकरी करते हैं और यहां मेरे लिए एक कुक और केयरटेकर लगा रखा है। शाम को बैठे-बैठे मन उकता जाता है तो कुछ देर यहां मन बहलाने आ जाता हूं। यहां बैठकर चाय पीना और छोटे-छोटे बच्चों को खेलते देखना… लोगों को घूमते बातें करते देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है और साथ में कुछ डिस्पोजेबल कप भी रखता हूं ताकि अगर कोई बातें करने वाला मिल जाए तो चाय के बहाने बातें भी कर लूंगा..” कहकर वह निश्चल सी हंसी हंस दिए।

पार्वती देवी ने भी अपने विषय में कुछ बातें विस्तार में तो नहीं पर संक्षेप में उन्हें बताईं।

मीरा जो आर्यन को झूला झुलाकर आ ही रही थी अचानक उन दोनों को बातें करते देख रुक गई और दूर से ही उनकी बातें सुन रही थी। किसी हम उम्र व्यक्ति से मिलने और एक ही जैसा दर्द बांटने की संतुष्टि पार्वती देवी के चेहरे पर झलक रही थी। पहली बार उसे पार्वती देवी के चेहरे पर ऐसा सुकून सा दिखा था। वह मुस्कुरा कर आगे बढ़ी और पार्वती देवी के पास आकर बोली,

“- मां, अब घर चलें।”

पार्वती देवी ने कहा,

“- हां हां अब घर चलो। विवेक के भी आने का समय होता जा रहा है।”… और वह उठ खड़ी हुई। अरुण जी को नमस्ते कर वे दोनों घर आ गए। उस दिन के बाद पार्क जाना रोज का ही नियम हो गया। जब तक मीरा आर्यन को झूला झुलाती तब तक अरुण जी और पार्वती देवी थोड़ा टहलते फिर बैठकर चाय पीते पीते बातें करते फिर मीरा उन्हें लेकर घर आ जाती। 

                इस क्रम को अब पूरा एक हफ्ता हो गया था। मीरा ने मन ही मन जैसे कुछ निश्चय कर लिया था फिर उसने अपने स्तर पर पहले अरुण जी के विषय में सारी जानकारियां एकत्रित कीं। पूरी तरह से संतुष्ट होने के बाद वह एक दिन आर्यन को पार्वती देवी के पास छोड़कर दोपहर में अरुण जी के घर पहुंच गई। अरुण जी पहले तो उसे देखकर अचकचा गए, फिर अंदर बुलाकर बिठाया और कुक को चाय बनाने का आदेश दिया। थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद मीरा ने एकदम से अचानक पूछ लिया,

“-अच्छा अंकल, क्या यहां रहते रहते आपको अकेलापन सालता नहीं हैं??”

उसके इस प्रश्न पर अरुण जी की आंखों में जैसे दर्द का सागर लहरा गया।उन्होंने भीगे स्वर में कहा,

“-पत्नी निर्मला के जाने के बाद तो अब यही अकेलापन मेरा साथी है।”

“-अंकल, आपका यह अकेलापन दूर हो सकता है, अगर आप दूसरे विवाह के विषय में विचार करें.. मेरी सासू मां पार्वती देवी के साथ!”

 मीरा ने बिना किसी भूमिका और बिना लाग लपेट के सीधे बात उनके समक्ष रख दी।

अरुण जी हड़बड़ा कर उठ खड़े हुए। उनके माथे पर पसीने की बूंदे चुहचुहा आईँ।

“- कैसी बातें कर रही हो बेटा! इस उम्र में क्या यह सब बातें शोभा देती हैं। और पार्वती जी का तो मेरे हृदय से बहुत सम्मान करता हूं।”

रीमा ने मंद मुस्कान के साथ अपनी बात जारी रखते हुए कहा,

“-अंकल, आप दोनों अपने अपने जीवन साथी को खोकर अकेले रह गए हैं और अनवरत इस वियोग का दंश झेल रहे हैं तो ऐसे में अगर एक दूसरे का साथ मिल जाए तो क्या बुरा है। आप दोनों सदैव के लिए एक दूसरे का सहारा हो जाएंगे। आपने तो मेरी सासू मां को देखा है। वह कितनी सरल, सहृदय, कर्मठ और निश्छल महिला हैं…रही आपत्ति की बात… तो आप बस “हाँ” करें.. आगे की जिम्मेदारी मेरी… मैं आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करती हूं।”

          मीरा ने विभिन्न तर्कपूर्ण दलीलों से उन्हें समझाया तो अंत में उन्होंने अपनी सहमति दे दी, मगर साथ ही यह भी कहा कि इस विषय में पार्वती देवी का निर्णय ही अंतिम होगा।

         मीरा हर्षातिरेक में उनके चरणों पर झुक गई और कहा,

“-आप बस आशीष दीजिए..आगे का सब कुछ मैं देख लूंगी…”

अरुण जी ने स्नेहसिक्त हाथ उसके सिर पर रख दिया। मीरा ने अरुण जी से उनके पुत्रों का नंबर लेकर वहीं से उनके पुत्रों से भी इस विषय में बात की। पहले तो वह बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे थे मगर बाद में उन्हें भी लगा कि शायद ऐसा हो जाए तो वह भी अपने पिता की ओर से थोड़ा निश्चित हो जाएंगे और उनकी परेशानी कुछ कम हो जाएगी तो उन्होंने भी सहमति दे दी। मीरा के लिए आधा किला फतह हो चुका था।

जब मीरा घर पहुंची तो आर्यन सो चुका था और पार्वती देवी उसे कंबल उढ़ा रही थी। उन्हें देखकर मीरा मुस्कुरा पड़ी। फिर उनका हाथ पकड़ कर ड्रेसिंग टेबल के समक्ष बिठा दिया और एक बिंदिया निकाल कर उनके सूने ललाट के सामने आईने पर चिपका दिया। तिलमिलाकर पार्वती देवी खड़ी हो गईं, और तड़प कर मीरा से कहा,

“- यह क्या कर रही हो मीरा.. यह क्या बेहूदा मजाक है।”

“-यह मजाक नहीं है मां। आपके जीवन में खुशियां लौटाने का मेरा एक छोटा सा प्रयास है। आपका पुनर्विवाह कराना चाहती हूं मैं!” मीरा ने पार्वती देवी के क्रोध की परवाह किए बगैर एक सांस में अपनी बात कह दी।

“- क्या बक रही हो तुम! इस उम्र में मेरी दुर्गति मत करवाओ… हाथ जोड़ती हूं मैं… तुम्हारे दिवंगत ससुर की यादें काफी हैं मेरे लिए। बहुत खुश हूं मैं उनकी यादों के साथ! अब यह कलंक मत लगाओ मुझे।..”

कहते कहते पार्वती देवी का स्वर आर्त्त और कंठ अवरुद्ध हो गया।

“-मुझे मालूम है माँ! उनकी यादें हमेशा आपकी थीं और आपकी ही रहेंगी। किंतु अपने जीवन में नई खुशियां लाने का अधिकार सबको होता है। इसमें कलंक की बात कहां से आ गई। मैंने एकाकीपन के दर्द के सागर को आपकी आंखों में लहराते हुए देखा है। और आपके जीवन के मरुस्थल के ताप को भी अनुभव किया है।

एक जीवनसाथी का सुखद सान्निध्य ही इस को मिटा कर शीतलता प्रदान कर सकता है।….इसीलिए मैं आपसे प्रार्थना कर रही हूं… मैंने अरुण जी से बात कर ली है और उन्होंने अपनी सहमति दे दी है और उन्हें तो आप भी अब भली भांति जानती हैं कि वह कितने सज्जन व्यक्ति हैं।” मीरा ने स्नेहिल स्वर में समझाते हुए कहा।

“-बस करो मीरा! मैं इस विषय में मैं और बातें नहीं करना चाहती..”

और पार्वती देवी अपने कमरे में चली गई।

        मगर मीरा तो जैसे सब कुछ ठान चुकी थी। उसने अपनी योजना की सारी रुपरेखा जैसे बना ली थी।

दूसरे दिन सुबह विवेक का मूड अच्छा देखकर उसने उससे कहा,

“-विवेक! आज मैं आपसे एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर बातचीत करना चाहती हूं।”

विवेक ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा…मीरा ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा,

“-मैं मां का पुनर्विवाह करना चाहती हूं। उनके एकाकीपन के दर्द को मैं हमेशा उनकी आंखों से छलकते हुए देखा है।”

इतना सुनते ही विवेक आपे से बाहर हो गया। 

और बस इस बात पर आज उन दोनों के मध्य यह तकरार हो गई। 

                 पार्वती देवी भी किसी भी तरह यह बात मानने को तैयार नहीं थी और अपने कमरे से बाहर भी नहीं आ रही थी। मीरा खाना बना कर उनके कमरे में ले गई और खाने का बहुत आग्रह किया मगर उन्होंने खाने की तरफ देखा भी नहीं।…हार कर मीरा खाने को वहां मेज पर रखकर कमरे से चली आई। 

                शाम को जब विवेक घर आया तो देखा आर्यन ने पाउडर का डब्बा पूरा खोलकर गिरा रखा है और उसके चेहरे और कपड़ों पर भी पाउडर लगा हुआ है। एक तो वह पहले से ही गुस्से में था, उस पर से आर्यन की यह हालत देखकर उसके क्रोध का पारावार न रहा। उसने जोर से आवाज लगाई,

“-मीरा! मीरा! कहां हो तुम!”

 लेकिन मीरा की तरफ से कोई उत्तर न पाकर फिर चीखा,

“- मीरा! क्या सुन नहीं रही हो! कहां हो तुम!”

उसकी तेज आवाज सुनकर पार्वती देवी भी हड़बड़ा कर कमरे से निकल कर आ गईं। उन्होंने आर्यन को गोद में उठा लिया और पाउडर का डब्बा बंद करके रख दिया।फिर आंचल से आर्यन का मुंह पोंछने लगीं। अब विवेक चारों ओर मीरा को ढूंढने लगा मगर मीरा कहीं दिखाई नहीं दी! उसने पार्वती देवी को पूछा, मगर उन्होंने भी अनभिज्ञता दिखाई और दोनों ही चिंतित हो गए। घर से बाहर निकल कर विवेक ने तुरंत गाड़ी निकाली और पूरी कॉलोनी में इधर-उधर छान मारा मगर मीरा कहीं भी नहीं मिली। उसका फोन भी स्विच्ड ऑफ आ रहा था। विवेक ने शहर में रहने वाले सभी रिश्तेदारों और दोस्तों को भी फोन करके पूछा मगर मीरा कहीं भी नहीं थी। पागलों की तरह विवेक उसे चारों ओर ढूंढ रहा था मगर उसका कोई अता-पता नहीं था। थक हारकर वह घर वापस आया और सुमित्रा देवी की गोद में सिर रखकर फूट-फूट कर रो पड़ा,

“-माँ..कहां चली गई मेरी मीरा! मैंने गुस्से में उसे जरा बोल क्या दिया वह तो मुझसे रूठ कर चली ही गई और पता नहीं वह कहां होगी और किस हाल में होगी! अगर उसे कुछ हो गया ना तो मैं अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा… उसके बिना जी नहीं पाऊंगा मैं। मैं उसके बिना एक पल नहीं रह सकता मां….”

              “-विवेक..” तभी मीरा की आवाज कमरे में गूंजी! दोनों ने आवाज की दिशा में देखा तो देखा दरवाजे पर मीरा खड़ी थी। वह दौड़ कर आगे बढ़ा और खींच कर मीरा को सीने से लगा लिया

“-कहां चली गई थी मीरा मुझे छोड़कर.. तुम्हें मालूम है… कितना परेशान हो गया था मैं तुम्हारे बिना…”

“-मैं कहीं नहीं गई थी विवेक! यहीं और इसी शहर में थी। यहां मेरी एक सहेली रहती है जिसका हाल में ही दूसरे शहर से यहां स्थानांतरण हुआ है। मैं उसके घर ही गई थी। तुमसे दूर होकर बस मैं तुम्हें यह एहसास दिलाना चाहती थी कि जीवनसाथी से दूर होने का दर्द कितना हृदय विदारक होता है। अरे मेरे और तुम्हारे विवाह को तो मात्र 7 साल हुए हैं और तब तुम मेरे लिए इतना तड़प रहे थे…अब तुम माँ के विषय में सोचो…इन्होंने पूरी जिंदगी पापा के साथ गुजारी और इस उम्र में आकर उन्हें यह एकाकीपन का दर्द झेलना पड़ रहा है। हम दोनों तो अपने-अपने काम पर चले जाते हैं, आर्यन भी स्कूल चला जाता है, जरा सोच कर देखो कि मां को ये अकेलापन कितना सालता होगा….आज तुम्हें खुद दर्द हुआ तो मां की गोद में लेट कर अपना दर्द उनसे बांटने लगे, पर कभी उनके दर्द को बांटने के विषय में सोचा है…जब वह हमारे जीवन में खुशियां भर सकती हैं तो क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम भी उनके जीवन में खुशियां लौटाने के विषय में सोचें???… अरे दुनिया का क्या है और दुनिया की परवाह हम करें भी क्यों…. आज जब मां अकेली होती हैं तो बताओ यह दर्द बांटने कौन आता है। तो हम भला क्यों किसी की परवाह करें।”

विवेक विस्फारित नेत्रों से मीरा की ओर देखता रह गया और उसकी बातों को सुनता रह गया… अचानक उसके मुंह से निकला,

“-शायद तुम सही कह रही हो मीरा! मैं अपनी ही दुनिया में मगन हो गया था और जाने अनजाने में बहुत स्वार्थी हो गया था… मगर आज तुम्हारे इस अनूठे निर्णय और निरर्थक रूढ़ियों को तोड़ने की तुम्हारे इस हिम्मत और साहस में मैं तुम्हारे साथ हूं मीरा..”

अचानक पार्वती देवी चीख उठी, 

“-दिमाग खराब हो गया है तुम दोनों का!!!”

विवेक ने भावुक हो कर उनके कांपते हाथ थाम लिए,

“-दिमाग तो अब ठीक हुआ है माँ और हम दोनों मिलकर तुम्हारे जीवन में खुशियां लौटा कर रहेंगे।”

“-पागल मत बनो ऐसा कभी नहीं हो सकता!!!” पार्वती देवी का स्वर ऊंचा हो गया।

“-अगर आप जिद्दी हो तो मैं भी आपका बेटा ही हूं माँ…आप भी कान खोल कर सुन लो अगर ऐसा नहीं हुआ तो मैं आज से खाने को हाथ भी नहीं लगाऊंगा जब तक आप “हाँ” नहीं करोगी।

                  15 दिनों के बाद सभी बच्चों की उपस्थिति में अरुण जी और पार्वती देवी का शुभ विवाह अदालत में संपन्न हो गया और और अब पूरा परिवार मंदिर की ओर रवाना हो गया इस प्यारे से नए संबंध पर ईश्वर का आशीष लेने।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी, धनबाद, झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

#तकरार

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