सोनाझुरी और कबीगुरु (भाग 1) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

“यात्रीगण कृपया ध्यान दे! कोलकाता से आने वाली कबीगुरु एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म संख्या एक पर आ रही है।” उद्घोषणा के साथ प्लेटफॉर्म के किनारे खड़े लोग दूर हटते दिखे और चंद मिनटों बाद पटरियों पर कम्पन के साथ ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर एक पर आकर खड़ी हुई।

अभी दोपहर के एक बजे थे और यह शांतिनिकेतन के लिए प्रसिद्ध बोलपुर का रेलवे स्टेशन था।

कंधे पर बैग लटकाए सुमित कबीगुरु एक्सप्रेस के एक डब्बे से बाहर निकला। उसकी उम्र यही कोई पैतीस-छत्तीस के आसपास की रही होगी। पाँच फुट आठ इंच लंबा, रंग गोरा, सुडौल शरीर वाला सुमित कबीगुरु और रबीन्द्रसंगीत के काफी करीब था। छुट्टियों में अक्सर वह शांतिनिकेतन की इन मनोरम वादियों में समय बीताने आ जाया करता।

पर इसबार वह शांतिनिकेतन नहीं, बल्कि उससे कुछेक किलोमीटर की दूरी पर प्रकृति की गोद में बसा सोनाझुरी भ्रमण का मन बनाकर आया था। लेकिन उसे कहाँ पता था कि यह यात्रा उसके जीवन में एक मील का पत्थर साबित होगी।

बोलपुर का वह रेलवे स्टेशन मानो रबीन्द्रनाथ ठाकुर और रबीन्द्रसंगीत की गाथा बयां कर रहा था। स्टेशन की दीवारों पर उंकेरे कबीगुरु की चित्रकारी और वहीं कहीं किसी कलाप्रेमी के द्वारा छेड़े एकतारे की धून हृदय पर गहरा प्रभाव छोड़ रहे थे।

स्टेशन से बाहर निकल सुमित अपने लिए टैक्सी तलाशने लगा कि तभी एक तेज़ गति से आती हुई मोटरसाइकिल पास खड़ी महिला को टक्कर मार कर निकल गयी। अचानक हुई इस घटना से वह महिला खुद को संभाल न सकी और ठोकर खाकर गिर पड़ी। उसका ट्रॉली बैग भी छिटककर दूसरी तरफ जा गिरा। पास खड़े सुमित ने फुर्ती दिखाकर उस महिला को सम्भाला, जिससे उसका सिर पत्थर पर लगने से बाल-बाल बचा। फिर एक किनारे बिठा उसे पीने को थोड़ा पानी दिया। आसपास लगी भीड़ भी अब धीरे-धीरे छटने लगी थी। अचानक हुए इस घटनाक्रम से वह महिला बुरी तरह घबरा चुकी थी, जिसे सुमित ने हिम्मत देकर शांत किया।

हालांकि उसे ज्यादा चोट तो नहीं आयी थी पर हाथ काफी छिल चुका था जिससे खून भी रिसने लगा था। आसपास खड़े लोगों ने उसे पट्टी कराने की सलाह दी। महिला के ना-नुकुर करने के बावजूद भी सुमित उसे लेकर पास के अस्पताल गया, जहां डॉक्टर ने उसके घाव की मरहमपट्टी की और खाने को कुछ गोलियां दिये।

अस्पताल की पर्ची से उस महिला का नाम और उम्र पता चला- नमिता, उम्र बत्तीस वर्ष। उसने हाल्फ स्लीव वाले गहरे भूरे रंग की कुर्ती और क्रीम कलर का सलवार पहन रखा था, जिसपर मटमैले रंग का दूपट्टा उसके गर्दन की शोभा बढा रहे थे। बार-बार उसके चेहरे पर बिखरते घुंघराले बालों की लटें उसे परेशान कर रही थी। उसकी बडी-बडी आंखों से उसके चेहरे का तेज़ साफ झलक रहा था।

अस्पताल से बाहर आते ही नमिता ने इलाज में खर्च हुए पैसे लौटाने चाहे तो उसे लेने से साफ इंकार करते हुए सुमित ने कहा- “हर कर्ज़ चुकाए नहीं जाते! कुछ की अदायगी समय करता है।”

मुस्कुराती हुई नमिता सवालिया निगाहों से सुमित की आंखों में झांकती रही। इससे पहले कि वह कुछ बोल पाती, सुमित के सवालों ने उसे उलझा दिया। “आप यूं अकेली! क्या आपको भी कबीगुरु ने बुलाया है या प्रकृति की छटा ने आपका मन मोह लिया?”

“मुझे सोनाझुरी जाना है।”– बड़े ही सरल भाव से नमिता ने उत्तर दिया।

“अब समझा! शायद ईश्वर ने इतना स्वांग इसीलिए रचा कि मैं आपको बचाने के लिए यहाँ आ सकूँ!”- सुमित ने प्रसन्न भाव से कहा। पर उसकी लच्छेदार बातें नमिता की समझ से बाहर थी और वह सवालिया निगाहों से उसे घूरती रही।

“आपकी बातें रबीन्द्रनाथ ठाकुर की पंक्तियों के समान बड़ी गहरी प्रतीत होती हैं। जितना समझूँ, उतने अर्थ निकलकर आते हैं! ऐसा क्यूँ?

सुमित मुस्कुराता हुआ उसकी बातें सुनता रहा। फिर बोला- “मैं भी सोनझुरी ही जा रहा हूँ।”

नमिता ने बताया कि वह हूगली जिले से आयी है और वहीं एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका है। स्कूल में छुट्टियां थी और बडे दिनों से सोनाझुरी घूमने का मन था। इसलिए मौका पाते ही अपने दबे अरमान पूरा करने निकल पड़ी। उसकी सहेलियाँ भी साथ थी, जो पहले ही सोनझुरी पहुँच चुकी थी।

“मैं भी सोनाझुरी ही जा रहा हूँ। बहुत सुन रखा है सोनाझुरी पेड़ों से घिरी उन मनोरम प्राकृतिक वादियों के बारे में। शांतिनिकेतन तो अक्सर आता रहता हूँ। पर सोनाझुरी जाने का कभी मौका नहीं मिला। इसबार समय मिला तो खुद को यहाँ आने से रोक न पाया।” – सुमित ने अपने मन की बात नमिता के सामने रखी। फिर एक टैक्सी बूक किया और बातचीत करते हुए दोनों थोड़ी ही देर में सोनाझुरी पहुँच गए।

“दादा, तुम कौन सा होटल जाएगा?”- टैक्सी ड्राइवर के पुछने पर पता चला कि दोनों की बूकिंग भी एक ही रिसोर्ट में है। 

टैक्सी का किराया अदा कर दोनों रिसोर्ट के भीतर पहुंचे, जहां नमिता की सहेलियाँ उसके लिए परेशान हो रहीं थी। नमिता ने सुमित का परिचय सहेलियों से कराया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गई। उसे समय पर दवा लेने को बोल सुमित भी अपने कमरे की तरफ बढ़ चला।

“बाबा…!! की भॉद्र मॉनुस! कोथाये पेलो तुमि?”(कितना सुशील यूवक! कहाँ मिला ये तुझे?)- सुमित को नमिता का इतना ख्याल रखते देख सहेलियाँ उसे छेड़ती हुई अपने कमरे की तरफ बढ़ने लगी।

नमिता की सहेलियों ने निचले तल्ले पर दो कमरे बूक किए थे। जबकि सुमित का कमरा पहले तल्ले पर था, जहां से दूर तक लाल मिट्टी में फैले सोनाझुरी जंगल की निराली छटा देखते ही बनती थी।

दिनभर के थकान के बाद कमरे में आते ही सुमित सीधे बिस्तर के हवाले हो गया।

***

शाम के पाँच बजने को आए थे। सूरज की किरणें आहिस्ता-आहिस्ता अब मद्धम हो चली थी। हल्की मीठी हवाएं सोनाझुरी के गगनचुम्बी दरख्तों से टकराकर समूचे वातावरण को खुशगवार बना रही थी। वहीं रिसॉर्ट के बाहर एक सोनाझुरी पेड के नीचे बैठा कोई स्थानीय गायक इकतारे की धून पर रबींद्रसंगीत की तान छेडे हुए था, जिससे मोहित होकर रिसॉर्ट में ठहरे लोग चुम्बक की भांति उसकी तरफ खींचे चले आए थे।

जोदि तोर डाक सुने केउ ना आसे

तोबे एकला चलो रे

एकला चलो, एकला चलो,

एकला चलो रे

बाहर छिडे इकतारे और रबीन्द्रसंगीत की जुगलबंदी ने सुमित को ज्यादा देर तक बंद कमरे में टिकने नहीं दिया और अंततः उसे बाहर आना ही पड़ा। काफी देर तक वहीं बालकोनी में बैठ बाहर चले रहे गीत-संगीत का आनंद उठाता रहा। फिर थोड़ी चाय की तलब लगी तो उठकर नीचे की तरफ बढ़ा।

रिसोर्ट के बाहर लटके हुए लालटेन से आती मद्धम रोशनी में वह संथाली गायक इकतारे की धुन पर कबीगुरु की पंक्तियां गुनगुना रहा था। चाय का प्याला हाथ में लिए सुमित उस गायक को सुन रहे लोगों के बीच आकर बैठ गया और रबीन्द्रसंगीत को समर्पित उस माहौल में गोते खाने लगा।

जोदि केउ कोथा ना कोये

ओ रे…ओ ओभागा

केउ कोथा ना कोये

जोदि सोबाये थाके मुख फिराये

सोबाये कोरे भोये

तोबे पोरान खुले

ओ तुई मुख फूटे तोर मोनेर कोथा

एकला बोलो रे

जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसे

तोबे एकला चलो रे

रबीन्द्रसंगीत की मीठी धून सुन नमिता और उसकी सहेलियाँ भी खुद को रोक न सकी और बाहर लगी उस सुरीली बैठक की तरफ बढ़ने लगी। सुमित ने दूर से ही उन सबको आते देख लिया था। नमिता और सुमित की नज़रें एक-दूसरे पर पड़ते ही दोनों के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान उभर आयी। फिर अपनी सहेलियों के संग नमिता सबके बीच बैठ गीत-संगीत में खोने लगी। वहां बैठे सारे लोग उस गायक की धून पर मदमस्त होते दिखे। कई स्त्रियाँ तो अपने कदम ऐसे थिरका रही थीं कि अभी नाच पड़ेंगी।

जोदि सोबाई फिरे जाये

ओ रे ओ ओभागा

सोबाई फिरे जाये

जोदि गोहान पोथे जाबार काले केउ

फिरे ना चाये

तोबे पोथेर काँटा

ओ तुई रोक्तो माखा चोरोनतोले

एकला दोलो रे

जोदि तोर डाक सुने केउ ना आसे

तोबे एकला चलो रे

जोदि तोर डाक सुने केउ ना आसे

तोबे एकला चलो रे

तभी हाथो में चाय के दो प्याले पकडे नमिता सुमित के पास आयी और एक प्याला उसकी तरफ बढ़ाकर खुद भी उसके पास ही बैठ गई। नमिता के हाथ में बंधी पट्टी की तरफ इशारा कर जब सुमित ने उसका हाल पूछा तो पलकें झपकाकर नमिता ने अपना सिर हिला दिया, जैसे कह रही हो कि सबकुछ नियंत्रण में है। लेकिन कानों में पड रहे कबीगुरु के पंक्तिबद्ध किए हुए शब्दों ने जैसे सबों के मन को अनियंत्रित कर रखा था तभी तो हाथों में हाथ डाल कुछ स्त्रियां घेरा बनाकर अपने क़दम थिरकाने लगी थी।

जोदि आलो ना धोरे, ओ रे..

ओ ओभागा

आलो ना धोरे

जोदि झोर-बादोले आंधार राते

दुयार देये घोरे

तोबे बज्रानोले..

आपोन बुकेर पाजोर जालिये निये

एकला जोलो रे

जोदि तोर डाक सुने केउ ना आसे

तोबे एकला चलो रे

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सोनाझुरी और कबीगुरु (भाग2) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

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