…. रफीक़ के अगले कुछ दिन सुहाना की यादों के सहारे ही गुजरे। कितना भी खुद को समझाने की कोशिश करे, पर मन तो मानने को तैयार ही न था। बुझे मन से ऑफिस जाना और वापस आकर अपने कमरे में बंद हो जाना। खाना भी अब वह अपने कमरे में ही मँगा लिया करता। इसलिए घरवालों से भी ज्यादा बातचीत न हो पाती। कभी छोटी बहन ज़ीनत उससे बात करने की कोशिश करती तो उसे भी डांट कर भगा दिया करता। उसकी ऐसी हालत पर घर के लोग भी बड़े फिक्रमंद रहा करतें।
एक दिन। रफ़ीक़ अपने कमरे में हताश पड़ा हुआ था। इतवार का दिन होने के कारण ऑफिस में भी छुट्टी थी। तभी, चिंटू का हाथ पकड़े अफसाना उसके कमरे में आयी।
“रफ़ीक़ जी, आप हमपर चाहे लाख गुस्सा करें। लेकिन आज हमारी बात सुननी ही पड़ेगी। देखिए, गुमसुम होकर आपने खुद को तो कमरे में क़ैद कर लिया। पर, ये बेचारे चिंटू मियां कहाँ जाएँ। इनका तो आपके सिवा कोई दोस्त भी नहीं। आज इनको कहीं घूमने का बहुत जी कर रहा है, पर ले जाने को कोई तैयार नहीं। अब आप ही इन्हे संभालें।” – अफसाना ने रफ़ीक़ से कहा।
“चाचू, क्या हो गया आपको? पहले तो आप मुझे कितना घुमाते-फिराते थे। पर अब तो आप मुझसे प्यार ही नहीं करते। आज मुझे बाहर घूमने और आइसक्रीम खाने का बहुत मन कर रहा है। प्लीज़, मुझे कहीं ले चलो न। प्लीज़ चाचू!” –ज़िद्द करते हुए चिंटू ने रफ़ीक़ से कहा। उसकी बातों को रफ़ीक़ टाल न पाया और अफसाना से उसे तैयार करके लाने को कहा।
थोड़ी ही देर में अफसाना और चिंटू दोनों तैयार खड़े थे। जब दोनों चलने को हुएँ तो रफ़ीक़ ने अफसाना को घर पर ही रुकने को कहा और केवल चिंटू को लेकर निकल पड़ा। अपने साथ चलने देने से मना करने पर अफसाना को बूरा तो लगा, पर इस बात की खुशी भी थी कि आखिरकार रफ़ीक़ ने खुद को बंद कमरे से बाहर तो निकला।
हालांकि रफ़ीक़ केवल बंद कमरे की क़ैद से बाहर निकला था, पर सुहाना की यादों से खुद को अभी तक आज़ाद न कर पाया था।
समय बीतने के साथ घरवालों ने रफ़ीक़ को निकाह के लिए बोलना शुरू कर दिया। भाभीजान ने अफसाना से निकाह की सलाह तक दे डाली। पर, रफ़ीक़ को यह कतई मंज़ूर न था। उसने तो अपनी पूरी ज़िंदगी सुहाना के यादों के नाम कर डाली थी।
तभी एक दिन रफ़ीक़ को कचहरी का नोटिस मिला। सुहाना ने रफ़ीक़ पर निकाह का झूठा झांसा देकर उससे संबंध बनाने का मुकदमा दर्ज किया था। इस झूठे मुकदमे ने रफ़ीक़ के मन से सुहाना को पूरी तरह से धो डाला था और अब उसे सुहाना के यादों तक से नफरत हो चुका था। हालांकि, सुहाना एक भी दिन कचहरी में सुनवाई के लिए हाजिर न हुई और कोर्ट ने केस को खारिज़ कर दिया।
अब रफ़ीक़ ने अपनी बिखरती ज़िंदगी को समेटने का फैसला किया। रफ़ीक़ के खातिर उसके घरवाले भी बड़े फिक्रमंद रहा करतें। अम्मीजान ने भी बिस्तर पकड़ लिया था और उन्हे हर वक़्त केवल रफ़ीक़ की ही फिक्र लगी रहती।
एक दिन। रफ़ीक़ ने अफसाना को अपने कमरे में बुलाया और कहा – “तुम, मेरे और सुहाना के रिश्ते से बखूबी परिचित होगी। तुम्हें यह भी मालूम होगा कि अब हमदोनों के बीच कुछ भी न रहा। पता नहीं, तुम मेरे बारे में क्या सोचती हो! मैं यह भी नहीं जानता कि तुम्हें वह मुहब्बत दे पाऊँगा भी या नहीं जो मैने सुहाना के लिए महसूस किया था। यह सब जानने के बावजूद भी क्या तुम मुझसे निकाह करना पसंद करोगी?”
रफ़ीक़ और अफसाना दोनों साथ-साथ ही पले-बढ़े थे और एक-दूसरे की पसंद-नापसंद से बखूबी वाकिफ़ थे। फिर, दिल ही दिल में अफसाना भी रफ़ीक़ को पसंद करती थी। इसीलिए रफ़ीक़ से निकाह के लिए उसने भी अपनी हामी भर दी।
जल्द ही, दोनों परिवारवालों की मौजूदगी में रफ़ीक़ और अफसाना का निकाह करा दिया गया। अब धीरे-धीरे रफ़ीक़ की ज़िंदगी पटरी पर आने लगी थी। सुहाना की यादों से निकल अपनी सामान्य ज़िंदगी की ओर वह लौट चुका था। निकाह के उपरांत रफीक ने एक शौहर होने की अपनी सभी जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन किया।
निकाह के करीब एक साल होने को आएं। सुहाना की यादों को भी अब समय की चादर ने ढंक लिया था। अफसाना गर्भ से थी और जल्द ही एक नन्हें-मुन्हे मेहमान की किलकारी से पूरा घर चहकने वाला था।
ईद का त्योहार भी नजदीक था। अफसाना जिद्द कर बैठी कि त्योहार के लिए खरीददारी करने बाज़ार जाना है। रफीक ने समझाने-बुझाने का बहुत प्रयास किया कि इस हालत में बाहर घूमना-फिरना ठीक नहीं। पर, अफसाना ने उसकी बातों पर जरा भी गौर न फरमाया। रफ़ीक़ ने भाभीजान के साथ चले जाने को कहा, पर उसे तो रफीक के साथ ही जाना था। अंततः, रफ़ीक़ को अफसाना के साथ ईद की खरीददारी कराने जाना ही पड़ा। कभी इस दुकान तो कभी उस दुकान – अफसाना ने जी भरकर खरीददारी की। पर रफ़ीक़ का ध्यान केवल इस तरफ था कि इस भीड़भाड़ में अफसाना को कोई नुकसान न पहुंचे।
भरे बाज़ार में उनदोनो का सामना सुहाना की अम्मीजान से हुआ। वह भी कुछ खरीददारी करने बाजार आयीं थीं। पहले-पहल तो रफीक को देखकर उन्होंने अपना मुंह फेरने की कोशिश की। पर उन्हे देखते ही अफसाना बोल पड़ी, जिससे सुहाना की अम्मी चाहकर भी वहां से खिसक न पायीं।
“आदाब चचिजान! कैसी हैं आप? पहचाना मुझे?”– अफसाना बोली।
“आदाब, बेटा! सब अल्लाह की मर्जी। आपसब कैसे हो? – सुहाना की अम्मी बोली।
“तुम कैसे हो रफ़ीक़ बेटा?”– रफ़ीक़ की नज़रों में झांककर उसके अंदरूनी हालात आँकने का प्रयास करती हुई सुहाना की अम्मी बोली।
“बहुत अच्छा….बहुत खुश हूँ, चचिजान।” – अपने आपको खुश दिखाने की कोशिश करते हुए रफ़ीक़ ने बताया।
तभी रफ़ीक़ ने पूछा – “सुहाना कैसी है, चचिजान? उसने तो अब तक निकाह कर ही लिया होगा। अब तो वह बड़ी खुश होगी !”
रफ़ीक़ के सवाल पर सुहाना की अम्मी से कुछ बोलते न बन पड़ा और उनकी आंखें डबडबा गई। रफ़ीक़ के बार–बार पूछने पर वह बिलख पड़ी तो अफसाना ने उन्हें संभाला। अपने आंसू पोछते हुए उन्होंने बताया–“दो महीने पहले सुहाना का इंतकाल हो गया।”
सुहाना के इंतक़ाल की खबर सुन मानो आकाश फट पड़ा, धरती डोलने लगी और ऐसा लग रहा था कि रफ़ीक़ के प्राण पखेरू अब निकले, तब निकले। खुद को वह संभाल न पा रहा था।
“रफ़ीक़ बेटा, खुद को संभालो। इसे संभालो अफसाना। सुहाना भली-भांति जानती थी कि उसकी मौत की खबर सुनकर तुम बर्दाश्त न कर पाओगे।”– सुहाना की अम्मी ने बताया।
“क्या मतलब है आपका, चचिजान?”- रफ़ीक़ बोला।
“सुहाना को ब्रेन कैंसर था। जब उसका सिरदर्द बर्दाश्त से बाहर हो गया तो हमने दूसरे शहर ले जाकर एक डॉक्टर से दिखाया। वहाँ ही हमसब को उसके ब्रेन कैंसर का पता चला और वो भी अपने लास्ट स्टेज में। इसीलिए हमलोग कुछ महीनें शहर से बाहर थे, क्योंकि उसका कैंसर का इलाज चल रहा था। सुहाना जानती थी कि अब वह ज्यादा दिनों तक बच न पाएगी। पर उसे केवल इसी बात की फिक़्र खाए जा रही थी कि उसके बाद तुम्हारा क्या होगा? उसे मालूम था कि तुम उससे बेपनाह मुहब्बत करते हो और उसके बिना एक पल भी नहीं जी सकते। इसीलिए, घर लौट कर आने के बाद उसने तुम्हे खुद से अलग करने का जी-जान से प्रयास किया। न चाहते हुए भी उसने हर वो काम किया, जिससे तुम्हारी मोहब्बत नफरत में तब्दील हो जाए। तुम्हे दु:ख पहुँचाकर वह अकेले में कितना रोती थी। और देखो, आखिरकार वह सफल भी हो गई। रफीक बेटा, सुहाना तुमसे बेइंतहा मोहब्बत करती थी। उसे धोखेबाज न समझना। वह बस इतना ही चाहती थी कि तुम ताउम्र सुखी और खैरियत से रहो। इसीलिए उसने तुम्हारे साथ इतना कुछ किया। जब उसे मालूम चला कि उससे अलग होकर भी तुम उसे अपनी यादों में बसाए खुद को घर में क़ैद कर रखे हो तो उसने तुम पर झूठा मुकदमा दर्ज किया ताकि तुम उसके नाम और यादों से भी नफरत करने लगो। आज तुम्हे और अफसाना को एक साथ देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। और पता है रफीक, तुम दोनो को एक साथ देखकर सुहाना की रूह को भी आज बड़ा सुकून मिला होगा।” – सुहाना की अम्मी ने अपने रुंध गले से बताया।
आगे बताते हुए वह बोलीं – “अपने अंतिम समय में सुहाना की बस एक ही आखिरी इच्छा थी कि जब उसे दफनाया जाए तो उसकी बाहों में रफीक़ की तस्वीर साथ हो।” उसने तुम्हारे लिए एक डायरी रख छोड़ी है, जो इस दुनिया से रुख़्सत होने के कुछ ही दिनों पहले अमानत के तौर पर मुझे सौंपते हुए कहा था कि उसकी मौत के बाद वह डायरी तुम्हारे हवाले कर दे। पर, तुम्हारा सामना करने की मेरी हिम्मत न हुई और वह डायरी अब भी तुम्हारी अमानत के तौर पर मेरे पास पड़ी है।”
सुहाना का इंतक़ाल और उससे जुड़ी सारी बातें जानने के बाद रफ़ीक़ को तो मानों काटो तो खून नहीं। उसकी आंखें लाल और चेहरा बिल्कुल सुर्ख पड़ चुका था। अफसाना की आंखें भी आंसुओं से भरी थी।
“मुझे वह डायरी चाहिए, चचिजान।” – रफ़ीक़ बोला।
घर आकर सुहाना की अम्मी ने रफ़ीक़ को सुहाना की लिखी डायरी सौंप दी। बिना एक भी पल गंवाए रफ़ीक़ अफसाना के साथ वापस घर लौटा और खुद को कमरे में बंद कर डायरी पढ़ना शुरू किया।
डायरी के पन्नों में :
“आज मैंने रफ़ीक़ की दी हुई अंगूठी पहनने से इंकार कर दिया – जी तो चाह रहा था कि रफ़ीक़ से कहूँ कि वह खुद से ही पहना दे। पर मुझे माफ कर देना रफीक, चाहकर भी ऐसा न कर पाई।”
“आज मैंने रफीक के मुहब्बत पर अंगुली उठायी – मुझे माफ कर देना, रफीक। तुम्हारे मोहब्बत पर सवाल तो मैं अल्लाह मियां को भी न उठाने दूं। पर, मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा? मैं जानती हूँ कि मुझे खोकर तुम खुद को संभाल न पाओगे। इसीलिए, तुम्हे मेरे बिना जीने की आदत डालनी होगी और नफरत इसके लिए सबसे अच्छा रास्ता है। मुझे माफ कर देना।
“आज मैंने रफीक के परिवारवालों को बुरा-भला कहा – हो सके तो मुझे माफ कर देना। मुझे मालूम है कि तुम मुझसे और अपने परिवार से बहुत प्यार करते हो। पर, तुम्हारे मन में खुद के प्रति नफरत पैदा करने के लिए ये जरूरी था। नहीं तो मेरे प्यारे चिंटू मियाँ, इतना प्यार करने वाले भाईजान-भाभीजान और आदरणीय अम्मीजान – सभी मुझे मेरे प्राणों से भी प्रिय हैं। जब तुम यह डायरी पढ़ना तो मेरे तरफ से उनसब से ज़रूर माफी मांग लेना। ख़ुशनूदा भाभीजान की तो मैं गुनाहगार हूँ – मैंने उनसे बदतमीजी से बात की थी। उनसे खासतौर से मेरे तरफ से माफी मांगना।
“सबसे आखिरी में तुमसे एक वादा चाहूंगी कि तुम हमेशा खुश रहना। तभी मेरी रूह को ज़न्नत नसीब होगी।”
इससे आगे रफीक से पढ़ा न गया और उसकी आंखे भर आईं।
घरवालों को भी सारी बातों से अवगत कराया। सुहाना के इंतक़ाल और सारी सच्चाई को जानकर सबों के आँखों में आँसू आ गए।
कुछ ही दिनों में अफसाना ने एक चांद-सी बिटिया को जन्म दिया। सबों ने रफीक़ और अफसाना को मुबारकबाद दिया। सबों से मुस्कुराकर मुबारक़बाद क़बूल करते हुए रफ़ीक़ के मन के भीतर छिपे अभाव को केवल अफसाना पढ़ सकती थी।
जब बच्ची के नाम रखने का वक़्त आया तो सबने अपने-अपने पसंद का नाम सुझाया। जब मौलवी साहब ने बच्ची के अब्बू रफ़ीक़ को कोई अच्छा-सा नाम सुझाने को कहा तो वह कुछ न बोल पाया और उठकर चुपचाप वहाँ से जाने लगा। तब अफसना बोली – मौलवी साहब, रफीक के लख़्त-ए-ज़िगर का नाम होगा –”सुहाना”।
। । समाप्त । ।
मूल कृति : श्वेत कुमार सिन्हा