संस्कार – मंजुला 

“शाम के साढे पाँच बज रहे थे। मैं न्यू मार्केट के बस स्टाॅप शेड में खड़ी बस का इंतज़ार कर रही थी। सामने से आती सूरज की चमकीली किरणें शेड से टकराती हुई मेरे चेहरे को जला रही थीं। शरीर पहले ही पसीने से तर-बतर हो रहा था। मैं दो कदम पीछे हट गयी। तभी एक बस आई और देखते देखते भीड़ का एक जत्था उसमें सवार हो गया। पर भीड़ से लथपथ उस बस में घुसने की मेरी इच्छा नहीं हुई। इसलिए मैंने निकल जाने दिया उस बस को भी और उस जैसी दो तीन और बसों को भी।”

“वैसे भी मुझे घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। घर में था ही कौन, जो मेरा इंतज़ार करता। मुझसे देर हो जाने का कारण पूछता। सोचते हुए मेरे माथे पर तनाव की महीन लकीरें खिंच आई और होंट वितृष्णा में भिंच गये।” 

“तभी मेरी निगाहें दूर से आती एक बस पर जा टिकी। बस लगभग आधी खाली या यूँ कहूँ कि आधी भरी हुई थी। इस बार मेरे हाथों ने आगे बढ़कर बस का हैंडल/पाइप थाम लिया। शुक्र था कि मुझे बैठने के लिए सीट मिल गयी थी। हिचकोले खाती बस धीरे धीरे रफ्तार पकड़ने लगी।” 

“मैं अनमनी सी खिड़की से बाहर देखने लगी। खिड़की से आती हवा में अब भी वही दोपहर वाली रूखाई थी। झक नीले आसमान में तैरती हुई बादलों की दो सुफ़ेद टुकड़ियाँ हंसो के जोड़े जैसी मालूम हो रहीं थीं। छोटी सुस्त उड़ान भरते हुए पंक्षियों की एक टोली अपने नीड़ की तरफ लौटने की तैयारी में लग रहीं थीं। मेरी नज़रों के सामने दौड़ता भागता ये नज़ारा अचानक गाड़ी में ब्रेक लगने के साथ थम गया था। मैंने उचटती निगाह से देखा। बस में से कुछ एक लोग उतरे थे और कुछ चढ़ने की तैयारी में बाहर खड़े थे। मैंने अपनी निगाहें एक बार फिर खिड़की के बाहर टिका दी।”

“मेरे बगल वाली खाली सीट पर अचानक किसी के धम्म् से बैठने की आवाज पर मैंने नज़रें घुमाकार देखा- कौतुक और खुशी से मेरे खुश्क होंट मुस्कान में जरा जरा फैल गये।”

“शेखर! तुम..? यहाँ..?”

“शेखर की नज़रों में हैरानी से ज्यादा खुशी झलक रही थी। उसकी आँखें अभी तक मेरे चेहरें पर जमी थी।”

“टिकट! कंडेक्टर की आवाज़ पर उसका ध्यान टूटा।”

“दस नं स्टाप कहते हुए शेखर ने पचास का नोट उसके दायें हाथ पर धर दिया।”

“नैना! कैसी हो तुम? शेखर ने पूछा।”

“मैंने कहा, “मैं ठीक हूँ! तुम कैसे हो? 




“मैं भी अच्छा हूँ! उसने मुस्कुराते हुए कहा।”

“आज पाँच बरस बाद शेखर मेरे करीब बैठा था। मैंने देखा करीब बैठे हुए हमारे कांधे एकदूसरे से सट रहे थे। मेरे कानों में एकबार फिर ताऊ जी की ऊँची आवाज का स्मरण हो आया। बेशर्म बेहया! मैंने घबराहट में आँखें मीचीं तो आँखों की कोर गीली हो आयी।”

“शेखर की नज़रें भी उस वक्त हमारे सटे हुए काँधों पर थीं। ये करीब बैठना शायद उसे भी अतीत की संकरी गलियों की तरफ खींच ले गया था। उसके माथे की नसें थोड़ी उभर आयीं थीं।” 

“मेरी नज़रें एक बार फिर पलट कर अतीत की गलियों में गुम हो गई।”

“उस रात संस्कार की महीन चादर तले हम दोनों एक दूसरे के काँधे पर सिर टिकाए भौर तलक निर्वाक बैठे अपने सुख दुःख सांझा करते रहे थे। न जाने कब हमारी आँखें लग गई जो ताऊ जी की ऊँची कड़क आवाज के साथ खुलीं। बेशर्म बेहया! इसके साथ बैठी रंगरलियाँ मना रही है…तेरी माँ ने यही संस्कार दिये तुझे..और फिर तीखी आवाज़ के साथ अंगार उगलते उनके अपशब्द! कानों में ज़हर बनकर उतरे थे। दुःख और अपमान से मेरा सर्वांग जल उठा था। शेखर ने समझाने की बहुत कोशिश की थी। मगर ताऊ जी ने उसे अपमानित करके घर से धक्के देकर निकाल दिया था।”

“सवा छः वाले!! कहते हुए कंडक्टर ने बस पर जोर की थाप दी।”

“मैं अपने ख्यालों से बाहर निकली। मेरा स्टाप आ चुका था। मुझे शेखर से बहुत सारी बातें करनी थी इसलिए मैं अपनी सीट से उठते हुए बोली, “चलो शेखर! घर चलो मेरे एक बार कहने पर शेखर भी उठ खड़ा हुआ। उसे भी शायद मुझसे बातें करनी थी। उस सुबह उसके जाने के बाद क्या हुआ ये जानना था।”

“बस से उतर एकदूसरे के कदमों से ताल मिलाते मैं और शेखर हौले हौले घर की तरफ बढ़ रहे थे। घर पहुँचकर मैंने गेट खोला तो दो बूढ़ी आँखों ने ऊचक कर एक पल को खिड़की की ओट झाँका और फिर दूसरे ही पल खिड़की पर परदा खिंच गया। शेखर ने प्रश्नभरी नजरों से मुझे देखा। मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा, “ताऊ जी।”

“बहुत संस्कारों की बातें करते थे। निकाल दिया उनके संस्कारी बेटे बहूँ ने उन्हें घर से। जैसा भी सही पर दस साल की उम्र से पाला था उन्होंने मुझे। बस इसी कर्ज को उतारने के लिये ले आयी मैं उन्हें अपने साथ..नहीं छोड़ सकी उन्हें बेसहारा।”

“शेखर ने निर्विकार भाव से उस तरफ देखा और फिर चुपचाप मेरे पीछे पीछे चला आया।”

“पीली धूप का एक कतरा कमरे की देहरी पर अभी तक बिछा हुआ था। मैंने अपने कमरे का ताला खोला और फैन ऑन कर कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा, “बैठो शेखर! 




“शेखर बैठ गया। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वो बोला, “तुम्हारी शादी..??”

“हाँ हुई थी, मैंने निश्वास लेते हुए कहा।”

‘फिर? शेखर ने पूछा?”

“टूट गयी! छः महीने होते होते..,मैंने खुश्क स्वर में कहा।”

“ताऊ जी ने तुम्हारे जाने के हफ्ते भर बाद ही मेरी शादी कर दी थी- अपनी बिरादरी में कहते हुए मेरा स्वर कुछ तल्ख़ हो आया था।”

“लेकिन टूट क्यूँ गई? शेखर ने पूछा।”

“आजिज़ आ चुकी थी मैं रोज रोज के झगड़ों, मारपीट और गाली गलौच से। इसलिए डिवोर्स ले लिया मैंने।”

“और तुमने..तुम्हारी शादी..? मैंने क्षीण स्वर में पूछा। पूछते हुए मेरी आवाज़ में थोड़ा कंपन था, डर था। शेखर को एक बार फिर से खो देने का डर।”

“नहीं!! तुम्हारे ताऊ जी ने मुझे बदनाम करने में कहाँ कसर छोड़ी थी। फिर इस बदनाम आदमी से कौन शादी करता कहते हुए उसके चेहरे पर गहरी वेदना झलक उठी…।”




“एकबार फिर हमारे बीच सन्नाटा पसर गया।”

“मैं कुर्सी से उठी और चाय बनाने किचन की तरफ चल दी। शेखर भी किचन तक पीछे पीछे चला आया।”

“शेखर को अपलक अपनी तरफ देखता पाकर मैंने मुस्कुराते हुए पूछा, “क्या देख रहे हो शेखर? उसके मुँह से बेसाख्ता निकला- ज़िंदगी!”

“तुम भी ना शेखर..!! कहते हुए मेरे होंठो पर गुलाबी मुस्कान तिर आई।”

“चाय के बाद बहुत देर तक हम दोनों बातें करते रहे। फिर करीब नौ बजे शेखर चला गया। अगले चार पाँच दिन तक शेखर ऐसे ही मिलने आता रहा। 

“मन की ऊसर जमीं पर नेह धूप तिरने से प्रेम स्रोते फिर फूट पड़े थे। मन मन को सुनने लगा था।”

“शनिवार की शाम जब शेखर जाने के लिए उठा तो मैंने कुछ नहीं कहा। मैं खिड़की के पास खामोश खड़ी एकटक गहराती साँझ को देखने लगी। ना चाँद ना तारे ना हवा। इस वक्त कैसा उमस भरा उदास मौसम था। मेरी आँखों में सदियों से ठहरी नदी बह चली थी।” 

“शेखर ने मेरी आँखों में झाँकते हुए पूछा, “क्या हुआ नैना? कहते हुए उसने मुझे अपने सीने से सटा लिया।

“शेखर ने मेरी आँखों के उस पार बैठी उस नदी का मन पढ़ लिया था। जो खामोशी से उतर जाना चाहती थी समंदर की गहरी नीली आँखों में- हमेशा के लिए। शेखर ने हौले से मेरी हथेली पर जहाँ अपने होंट धरे थे वहाँ औचक ही गुलमोहर उग आया था। फिर रात भर मेरी देह पर न जाने कितनी गुलमोहर गाछें उगीं मुझे याद नहीं।”

“सन्नाटे में रह रह कर गूँजती झिंगुरों की तीखी ध्वनि मधुर नाद जैसी प्रतीत हो रही थी। बिछोह की गहरी लंबी काली रात एक कोने में निढ़ाल पड़ी थी।”

“मेरा मन सिंदूरी हो उठा। बिल्कुल भौर के सूरज की तरह- कुछ लाल कुछ नारंगी सा। बाहर हेमपुष्प मंद बयार में खुशी से झूमते मालूम दे रहे थे। कदम्ब के सघन पेड़ों के बीच से निकल कर सूरज की एक अति महीन किरण खिड़की पर सरक आयी थी।”

“भौर तलक एकबार फिर हम दोनों साथ बैठे हुए थे। एकदूसरे के काँधे पर सिर टिकाएं। मगर…इस बार…संस्कार की चादर के उस पार…

मंजुला 

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