सम्मोहन/ चेतना – कंचन शुक्ला

आँगन में तन्नी से सूखे कपड़े उतारती राम्या, मनमग्न है। अपनी दिनचर्या में प्रतिपल अवांछित व्यवहार ही मिलता उसे। सब के लिए दिनभर जूझती, अथक प्रयासों से सबको प्रसन्न करने का प्रयत्न करती पर सब बेकार। उद्गार, भावभंगिमा, उचित सम्मान भी नगण्य हो जाता। बल्कि कई बार परिवारजनों से उलाहना व असम्मान का भोगी ही बनना पड़ता।

उसी जगह से अक्सर वह अपनी पड़ोसी व नामी अंकविशेषज्ञ व सम्मोहिका, “दृष्टि” का अलौकिक, मंत्रमुग्ध करने वाला बंगला निहारती। सोचती ऐसा क्या नायाब या मायावी है उसमें, जो उसने यह सब अपने दम पर हासिल किया?? कोई बहुत पढ़ीलिखी डिग्रीधारी भी नही। एक आध धनी लोगों पर उसका ज्ञान या तुक्का क्या लक्षित हुआ, चर्चे होने लगे, धीरेधीरे नाम बन गया।

जो जमावड़ा उसके यहाँ जबतब लगता है, उस पर तो हम पड़ोसियों को भी नाज़ है। वो दिलचस्प शख्सियत है। पर उसके अलावा उसका कोई कभी अपना नही दिखा। समसामयिक साथी कई रहे, पर ऐसा कोई नही जो जनम भर साथ दे दे।

कई बार राम्या ने भी दृष्टि को उसे देखते देखा है। आज दृष्टि ने इशारे से राम्या को अपने घर बुला लिया। राम्या ने भी सोचा, क्यूँ ना इसी बहाने उसको और उसके घर को देख लिया जाय। जो बाहर से इतना खूबसूरत है उसकी अंदरूनी सुंदरता का क्या ही कहना होगा??

राम्या, दृष्टि के घर जाती है। औपचारिक बातचीत के बाद, बातोंबातों में दृष्टि, राम्या की मनःस्थिति भाँपते हुए, उससे बहुत कुछ जान लेती है। निराकरण के अंदाज़ में उसे अज़ीब सी सलाह देती है। वह सम्मोहन शक्ति से खुद को उसमें बदल उसके घर में प्रवेश करना चाहती है। अपने आज़माये नुस्खों से सभी समीकरणों को दुरुस्त करने का आश्वासन देती है। और जैसे ही सब ठीक हो जायेगा वैसे ही सम्मोहन भंग करने का विश्वास भी दिलाती है।


राम्या के मन में संशय तो है परंतु दृष्टि के कथन पर आश्वस्त हो, वह राज़ी हो जाती है। कहीं ना कहीं राम्या के मन में भी, दृष्टि के जीवन को जीने की, अभिलाषा पेंगे मार रही थी। दृष्टि जो सोच रही थी वह तो शायद, किसी ने भी नही सोचा होगा।

दृष्टि ने वर्षों से अध्ययनित अपनी सम्मोहन ज्ञानशक्ति का इस्तेमाल कर राम्या के घर में अपनी जगह बना ली। उसका उचित सम्मान होता, सभी उसके प्रेम, सेवा और समर्पण के प्रति धन्य रहते। परिवार तनिक भी यह नही जान पाया कि आखिर इस बदलाव का कारण क्या हो सकता है??

राम्या, इस एक हफ्ते में कई बार दृष्टि से मिलने अपने घर गई पर किसी ने उसे पहचाना नही। कुछ दिनों बाद ही दृष्टि और राम्या की मुलाकात मंदिर में फिर हुई। राम्या का मन दृष्टि की जीवनशैली से भर चुका था। उसको बच्चों और परिवार की कमी खलने लगी थी। अब उससे यह सब और नही हो रहा था। सो राम्या ने दृष्टि से इल्तेज़ा की कि,” सब पहले जैसा कर दो। मुझे तुम्हारा जीवन नही चाहिए। मैं अपने घरपरिवार में जैसे भी रह रही थी ठीक था। तुम्हारे घर का नितांत अकेलापन, बेबस दिनचर्या मारक है। मुझ में इसे जीने की क्षमता नही।”

दृष्टि को तो वो सब मिल गया जिसकी महत्त्वाकांक्षा वह किया करती थी। एक परिवार, जिसके लिए वह जी सके। उसके मन में छल घर चुका था। दृष्टि अब राम्या बन चुकी थी। वह बहुत खुश थी। लगभग तिरालीस वर्ष का जीवन अकारण ही जिया ऐसा लग रहा था उसे। जीवन तो सच में यही है।

बेचारी राम्या को ना चाह कर भी दृष्टि का जीवन जीना पड़ रहा है। कभीकभार लगता है यह सब संभव नही हो सकता। पर भाग्य, लालच, लोलुपता, समय और परिस्थितियों के हम सभी दास मात्र हैं। इनके आगे ना झुकने वाले विरले ही होते होंगे।

मौलिक और स्वरचित

कंचन शुक्ला- अहमदाबाद

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