मायका- अनुमित्तल “इंदु”

*मायका *शब्द सुनते ही भावुक हो जाती है हर स्त्री। मायका चाहे छोटे से गांव में हो या बड़े शहर में,हर औरत को ख़ास लगाव होता है। 

मुझे याद है मम्मी जब अपने मायके जाती तो नानी मामा मामियाँ सब पलकों पर लिये रहते। कितने कितने दिन मायके में लगाकर आतीं।

ढेर सारे उपहार और शॉपिंग के साथ वापिस आतीं। मायके जाकर शॉपिंग करने का अलग ही मज़ा होता है।

 

फ़िर  मेरी शादी के बाद  मैं जब भी अपने मायके गई तो चार पांच दिन से ज्यादा रुक नहीं पाई।रही भी तो पापा को यही चिंता रहती कि बेटी ठीक ठाक अपने ससुराल पहुँच जाये क्यूंकि पंजाब में उन दिनों  आतंक इतना ज्यादा था कि घरवालों को आने की ख़ुशी से ज्यादा सकुशल भेजने का डर था। 

दिल्ली आने के बाद मायके जाना बस तभी हुआ जब 1992 में पिता की death हो गई। 

मम्मी मेरे छोटे भाई के साथ मोगा में शिफ्ट हो गईं। 


बच्चे थोड़े बड़े हुये तो उन्हें लेकर कभी जब मायके जाती तो दो दिन तो बच्चे ख़ुश रहते क्यूंकि मामा मामी नानी और भाई के बच्चे सबके साथ अच्छा वक्त गुज़र जाता मगर तीसरे दिन ही बच्चे वापिस जाने की ज़िद करने लगते।

 बच्चों को बाहर घूमना फिरना पसंद था।मोगा में उनका मन नहीं लगता था। मगर मेरा तो मायका था।अपनी माँ भाई भाभी से मिल कर जो ख़ुशी मिलती है वो कुछ अलग ही होती है।

अब जब कि मैं बेटी की शादी कर चुकी हूँ तो बेटी पिछले दिनों पांच साल बाद विदेश से अपने मायके आई तो हमें भी ख़ुशी के साथ साथ इस बात का डर भी रहता था कि कहीं बीमार न हो जाये। 

वो सकुशल अपने  बच्चों के साथ वापिस जाये।उसे कोई तकलीफ़ न हो। 

 

मायका किसी का भी हो ख़ुशी तो देता है मगर वो अब आपका घर नहीं है ,यह बात मन के किसी कोने में ज़रूर रहती है। 

अनुमित्तल “इंदु”

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