बुढ़ापा सार्थक हो गया – विभा गुप्ता Moral Stories in Hindi

 स्त्री हो या पुरुष, बुढ़ापा के बारे में सोचकर सभी चिंतित हो जाते हैं।जिनके बेटे हैं वो सोचते हैं कि अगर बहू सेवा न की तो…और बेटी वाले सोचते हैं कि काशः हमारे भी एक बेटा होता तो बुढ़ापा आराम से कट जाता।लेकिन श्री महावीर प्रसाद और श्रीमती कनकलता देवी जी का कहना था कि हमारा बुढ़ापा तो सार्थक हो गया।

         कृषक पिता के पुत्र महावीर अपने तीन भाईयों में सबसे छोटे थे।कस्बे के स्कूल से मैट्रिक पास करके वो शहर चले गये और अपना ग्रेजुएशन कंप्लीट किया।फिर उन्होंने बैंक की परीक्षा दी और एक सरकारी बैंक में नौकरी करने लगे।रहने के लिये उन्होंने एक कमरा किराये पर ले रखा था… कभी स्वयं कुछ पका लेते तो कभी बाहर खा लेते।

         महावीर की दो भाभियाँ आ चुकीं थीं तो उनके माता-पिता ने एक शुभ मुहूर्त में कनकलता से उनका भी विवाह करा दिया।शहर में रहने की उचित व्यवस्था न होने के कारण कनकलता ससुराल में ही रही।महीने में दो-तीन दिनों की छुट्टी लेकर महावीर आ जाया करते थें।

         साल भर बाद कनकलता ने एक बेटी को जनम दिया।परिवार में सभी को पहली संतान बेटा और इनके बेटी….।सास ने सोचा कि अगली संतान बेटा हो जायेगा।लेकिन ऐसा हुआ नहीं…कनकलता ने जब लगातार तीन बेटियों को जनम दिया तो सास का मन खिन्न हो गया।वे दबी ज़बान से महावीर को कह ही देती कि तेरा वंश कैसे चलेगा…बुढ़ापे में तेरी सेवा कौन करेगा…और महावीर उनकी बातों को एक कान से सुनते तथा दूसरी कान से निकाल देते।कनकलता की जेठानियाँ भी कम नहीं थीं…गाहे-बेगाहे उसे तीन बेटियाँ जनने और बेटा न होने का ताना तो मार ही देती थी।

           कनकलता की तीनों बेटियाँ पढ़ने में होशियार थीं।स्कूल में अच्छे अंक आने पर जब वो अपनी बेटियों को शाबासी देतीं तो जेठानियाँ तपाक-से कह देतीं,” नंबर-वंबर से क्या होता है…वंश तो नहीं चलाएगी ना..।” और तब वह तिलमिला कर रह जाती।

          सास-ससुर के गुज़र जाने के बाद तो कनकलता का उस घर में रहना दुश्वार हो गया तब महावीर ने दो कमरों का एक घर किराये पर ले लिया और परिवार सहित उसमें शिफ़्ट हो गया।उसकी तीनों बेटियाँ मेघा, वर्षा और सुमन देखने में सुंदर और स्वभाव में बहुत ही सरल थीं।फिर भी आसपास वाले जब कनकलता से कहते कि तुम तो अभी से तीनों बेटियों के लिये दहेज़ जमा करना शुरु कर दो तब वो जवाब तो नहीं देती लेकिन अंदर ही अंदर डर जातीं कि कैसे…।तब महावीर उनको कहते,” कनक…हमारी बेटियाँ अपनी किस्मत खुद लेकर आईं है।वे स्काॅलरशिप लेकर अपनी पढ़ाई कर रहीं हैं और देख लेना उनका विवाह भी…।”

         ऐसा हुआ भी।मेघा ने काॅलेज़ के सालाना जलसा में एक नृत्य-नाटिका प्रस्तुत किया था।उसकी प्रस्तुति देखकर मुख्य अतिथि श्री जमुनालाल जो शहर के जाने-माने उद्योगपतियों में से एक थें, मुग्ध हो गये और कुछ दिनों के बाद वे मेघा के घर पहुँच गये।अपना परिचय देकर उन्होंने कहा कि हम अपने बेटे उदय के लिये आपकी बेटी मेघा का हाथ माँगने आये हैं।कनकलता जी तो चकित रह गई।बोलीं, “भाईसाहब…हमारा-आपका तो कोई मेल ही नहीं है और हम दहेज़ भी…।” तब श्रीमती जमुनालाल बोलीं,” आप तो मेघा के रूप में हमें साक्षात् लक्ष्मी दे रहीं हैं..ये क्या कम है।” 

     दो साल बाद मेघा ने अपने चचेरे देवर विपिन के लिये वर्षा का हाथ माँग लिया और तब महावीर बाबू पत्नी से बोले,” देखा कनक…मैंने कहा था ना कि बेटियाँ अपना भाग्य खुद लेकर आतीं हैं।कल को हमारी सुमन भी विदा हो…।” उनका गला भर्रा गया था।

         एक दिन महावीर बाबू के घर उनके मित्र श्री योगेन्द्र जी आयें।बातों-बातों में उन्होंने कह दिया,” महावीर भाई…ईश्वर की कृपा से मेरा बेटा प्रकाश दिल्ली के एक बैंक में नौकरी कर रहा है।आपकी सुमन भी बीएड कर चुकी है… उचित समझे तो हम सुमन को अपने घर की बहू बनाना चाहते थे।” पीछे खड़ी कनकलता जी बोलीं,” भाईसाहब..चाहते तो हम भी यही थे लेकिन सुमन नौकरी करना…।”

    ” उसकी चिंता आप न करें…हमारी तरफ़ से बच्चों को पूरी आज़ादी है।वो दिल्ली जाकर नौकरी कर सकती है।” योगेन्द्र जी तपाक-से बोले और बस चट मंगनी पट ब्याह हो गया।

      कनकलता जी की तीनों बेटियाँ अपने-अपने घरों में सुखी थीं।तब वे अपने पति से बोलीं,” कुछ ही महीनों में आप रिटायर हो जायेंगे तब हम अपने पैतृक घर जाकर अपना बाकी का जीवन आराम से व्यतीत करेंगे।”

         चार महीने बाद कनकलता जी ने सारा सामान पैक किया और पति संग अपने घर चली आईं।इतने सालों में उनका कस्बा भी एक शहर में तब्दील हो गया था।बड़े जेठ रहे नहीं तो उनके बेटे अपना हिस्सा बेचकर माँ को अपने संग ले गये और छोटे जेठ तो बहुत पहले ही मुंबई में अपने बेटे-बहू के साथ रहने लगे थें।शहर की आपाधापी ज़िंदगी से उन्हें यहाँ बड़ी शांति मिल रही थी।

महावीर बाबू को भी अपनी पैतृक खेती में बड़ा आनंद आ रहा था।लेकिन महीने भर बाद कनकलता जी को खालीपन महसूस होने लगा।पति तो खा-पीकर खेत पर चले जाते, पड़ोसिनें अपने पोते-पोतियों को खिलाती और वो अपने खाली घर को देखती…तब सोचती कि काश! मेरे भी एक बेटा होता तो मैं भी…अंदर ही अंदर वो घुटने लगीं।बात-बात पर चिड़चिड़ाने लगतीं।न तो वो खुद को सजाती- संवारती और न ही उन्हें अपने खाने-पीने का होश रहता।कभी-कभी पति से कहती कि ये मुआ बुढ़ापा भी एक बोझ ही है।

       महावीर बाबू ने जब बेटियों से कहा तो उन्होंने कहा कि पापा…आप चिंता न करें… बढ़ती उम्र में लोग अक्सर ऐसा व्यवहार करने लगते हैं।कनकलता जी मंदिर के कीर्तन में भी जाती…वहाँ जब कुछ महिलाओं को अपने पोते के साथ हँसते-बोलते देखती तब भगवान से शिकायत करतीं कि एक बेटा हमें भी दे देते तो आज मैं भी….और उनकी आँखों में आँसू आ जाते।

          एक दिन कनकलता जी कीर्तन के बाद मंदिर से लौट रहीं थीं तो सीढ़ियों पर मैली-कुचैली साड़ी में एक महिला को बैठे देखा।उनको चेहरा कुछ जाना-पहचाना-सा लगा।ध्यान-से देखा तो चौंक पड़ी,” सुखिया भाभी ..आप! इस हाल में…आपका बेटा नरेश कहाँ…।” नरेश का नाम सुनते ही वह महिला फूट-फूटकर रोने लगी।

     कनकलता जी अपने मोहल्ले की सुखिया भाभी को घर ले आईं।उन्हें पानी पिला कर कुछ खिलाया और फिर पूछा कि आपकी तो बड़ी हवेली थी..फिर आप इस तरह…।तब सुखिया भाभी ने बताया कि पति के देहांत के बाद नरेश ने मुझे अपने संग ले जाने की बात कहकर हवेली बेचने के कागज़ पर मुझसे साइन करवा लिया और फिर…पैसे के लालच में बेटी भी भाई के साथ मिल गयी और मैं…।रिश्तेदार भी खाली हाथ वालों को अपने घर में जगह नहीं देते हैं कनक…।

        उस दिन कनकलता जी ने जाना कि बेटा होना ही काफ़ी नहीं है।बेटा नालायक निकल जाये तो बुढ़ापा दुखदायी भी हो जाता है।उन्होंने तुरंत अपनी बेटियों को फ़ोन करके समझाया कि अपने वृद्ध सास-ससुर का हाथ कभी नहीं छोड़ना और फिर सुखिया भाभी को अपने पास रख लिया।

         सुखिया के आने से कनकलता जी चहक उठी थी।बातों-बातों में एक दिन सुखिया ने उन्हें बताया,” कनक…यहाँ कितनी ही महिलाएँ हैं जो अपने बेटे-बहू के मोह में उनका अत्याचार सहती हैं। बहुओं को घूमने जाना होता है तो अपनी सास को मंदिर में छोड़ जातीं हैं।किसी-किसी को तो…।”

सुखिया कहती जा रही थी और वो सोच रहीं थीं समाज का पतन हो रहा है…उन्हें खबर तक नहीं।रात को ये बात जब उन्होंने पति से कहा तो महावीर बाबू बोले,” कनक…रिटायर होने बाद तो पुरुष को उसी के घर में एक फ़ालतू सामान समझा जाता है।साठ की उम्र में ही वे अस्सी के दिखाई देते हैं।” सुनकर तो उनकी आँखों से नींद उड़ गई।

          कनकलता जी ज़्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं थी लेकिन अपने अधिकारों की उन्हें पूरी जानकारी थी।बस अपनी उम्र वालों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने,उन्हें जागरुक करने और उन्हें संबल बनाने का उन्होंने बीड़ा उठा लिया।अब उनके अंदर का भय और बुढ़ापे की चिंता गायब हो चुकी थी।महावीर बाबू  ने कहा भी कि कनक…अब तुम बूढ़ी हो…।

    ” बूढ़े होंगे आप…मोदी जी सत्तर साल का होकर देश संभाल सकते हैं तो मैं अठावन की उम्र में चार लोगों को उनका हक भी नहीं दिला सकती..।” पत्नी की बुलंद आवाज़ सुनकर उस दिन महावीर बाबू चकित रह गये थे।सुखिया के साथ कनकलता जी घर-घर जातीं…घर की वृद्धा को समझाती कि यह घर आपका है..किसी के मोह या दबाव में अपना अंगूठा बिल्कुल भी नहीं लगाना है।साथ ही..वो उनके बेटे-बहुओं को भी चेतावनी देती कि यदि आपने अपने माता या पिता को किसी तरह से परेशान किया तो पुलिस आपके खिलाफ़ एक्शन लेगी।उन्होंने नरेश को खबर दिया और सुखिया को उसकी हवेली दिलवाई।उनके भय से महावीर बाबू के दो मित्रों के बेटों ने भी अपने पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना शुरु कर दिया था।

      हालांकि यह सब करना कनकलता जी के लिये आसान न था।इस रास्ते में उन्हें काफ़ी रुकावटें आईं…लोगों के ताने भी सुनने पड़े लेकिन कहते हैं ना कि जहाँ चाह वहाँ राह और पूरी लगन से जिस काम को किया जाये तो सफलता अवश्य मिलती है।महावीर बाबू खुद अपनी पत्नी के नये रूप को देखकर दंग रह गये थें।

       कनकलता जी के प्रयास से अब उस कस्बे के सभी महिला-पुरुष वृद्ध सम्मानपूर्वक अपना जीवन जीने लगे थें।उन सभी के मुस्कुराते हुए चेहरे देखकर एक दिन उन्होंने अपने पति से कहा,” ऐ जी..मेरा बुढ़ापा तो सार्थक हो गया और तब महावीर बाबू उनको मुस्कुराते हुए देखते हैं जैसे कह रहें हों,” तुम जैसी जीवनसंगिनी हो तो बुढ़ापे से क्या डरना।”

विभा गुप्ता

# बुढ़ापा           

स्वरचित 

( सर्वाधिकार सुरक्षित )

           जीवन का अंतिम पड़ाव बुढ़ापा है जिसका आना स्वाभाविक है।उस समय इंसान खुद को किसी काम में व्यस्त कर ले तो वो चिड़चिड़ेपन और तनावों से मुक्त हो जाता है जैसे कि कनकलता जी और महावीर बाबू ने किया।

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