मैं भिखारी नहीं हूँ आंटी जी – निभा राजीव “निर्वी”

अनुराधा अपने 8 वर्षीय पुत्र शौर्य को उसके जन्मदिन के अवसर पर उसे लेकर खिलौनों की दुकान पर उसे खिलौने दिलाने आई थी।शौर्य बहुत उत्साहित होकर पूरी दुकान घूम घूम कर देख रहा था और अपने खिलौने पसंद करता जा रहा था। अनुराधा उसके साथ चलती हुई मुग्ध भाव से उसे देखती जा रही थी। तभी अचानक उसकी दृष्टि दुकान के बाहर खड़े उसी के पुत्र की आयु के एक निर्धन बच्चे पर पड़ी। वह बड़ी उत्कंठा से और लालसा से दुकान को देख रहा था। उसकी दृष्टि बार-बार प्लास्टिक के थैले में बंद प्लास्टिक के रंग बिरंगे गेंद और बल्ले की तरफ जा रही थी । उसने हाथ बढ़ाकर गेंद और बल्ले को छू कर  देखना चाहा, तभी दुकानदार की कड़कती सी आवाज आई “-ओए छोकरे! दूर हट!! तोड़ ही डालेगा क्या! चल हट, भाग यहां से….. चले आते हैं जाने कहां कहां से…”

करुणा, भय और अपमान के मिले जुले भाव बच्चे के चेहरे पर तत्क्षण उभर आए और उसका नन्हा चेहरा आरक्त हो गया और आंखें डबडबा गईं। अनुराधा का मन उस बच्चे के लिए करुणा से भर गया । खिलौने के प्रति उसकी लालसा भरी दृष्टि अनुराधा का ह्रदय कचोट रही थी। बच्चे ने घबराकर अपना हाथ पीछे कर लिया था और वहां से जाने ही लगा था की अनुराधा ने उसे आवाज दी “-रुक जाओ बेटे!”

पर उस बच्चे ने जैसे सुना ही नहीं। वह कुछ कदम और आगे बढ़ गया अनुराधा जी ने फिर उसे आवाज दी “-ऐ लड़के! जरा रुको!”… इस बार वह बच्चा रुक गया और पीछे मुड़ कर देखने लगा। उसे शायद ‘बेटे’ जैसा आत्मीय संबोधन सुनने की आदत नहीं थी, इसीलिए उसने पहली बार अनुराधा की पुकार को अनसुना कर दिया था। अनुराधा ने आगे बढ़कर दुकानदार से गेंद और बल्ले का मूल्य पूछा और मूल्य चुका कर गेंद और बल्ला उस बच्चे के हाथ में देना चाहा। 



बच्चे की आंखें प्रसन्नता से चमक उठी और उसने हाथ बढ़ाकर गेंद बल्ला लेना चाहा, तभी न जाने क्या बात उसके मन में आई और उसने अपना हाथ पीछे कर लिया। अनुराधा ने उससे गेंद और बल्ला लेने के लिए बहुत आग्रह किया, फिर भी वह लेने को तैयार नहीं था। तब अनुराधा ने तनिक रुआँसी होकर उससे कहा “- बेटे, मैंने यह तुम्हारे लिए ही खरीदा और तुम इसे लेने से मना कर रहे हो….” उसके भावपूर्ण स्वर को सुनकर उस बच्चे ने कुछ सोचकर वह गेंद और बल्ला उसके हाथ से ले लिया और दुकान के पास ही खड़ा हो गया। अनुराधा आशा कर रही थी कि वह गेंद और बल्ला लेते ही भाग निकलेगा और उत्साह से अपने साथियों को दिखाएगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

 अनुराधा को थोड़ा आश्चर्य तो हुआ और फिर उसने अनदेखा कर दिया। वह बच्चा वहीँ दुकान के बाहर ही खड़ा रहा। अनुराधा ने शौर्य के पसंद किए हुए खिलौनों के मूल्य भी चुका दिए और दुकान से बाहर निकली। उसके बाहर निकलते ही वह बच्चा भी उनके साथ साथ चलने लगा। अनुराधा एक बार तो अचंभित रह गई। फिर सोचा कि शायद उसके प्यार और उपकार के कारण आभारी होकर वह उन्हें जाते हुए देखना चाहता है। वह मुस्कुरा पडी।वह बच्चा साथ-साथ अनुराधा की गाड़ी तक पहुंचा और जब अनुराधा ने गाड़ी में सारा सामान रख लिया तो उस बच्चे ने गेंद और बल्ला एक ओर रख कर अपनी कमीज़ उतारी और हाथों में समेट कर फटाफट अनुराधा की गाड़ी पोंछने लगा। 

उसकी इस अप्रत्याशित कार्य पर अनुराधा चौंक गई और उसने कहा “-बेटे,यह क्या कर रहे हो! इसकी जरूरत नहीं है…तुम जाओ….”  पर बच्चे ने बड़े आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ कहा “-मैं भिखारी नहीं हूं आंटी जी! आपने मुझे खिलौने दिलाए ना, तो मैं अब आपकी गाड़ी को बिल्कुल चमका दूंगा, आप देखते जाओ…..” और आत्मसम्मान की चमक से उसका चेहरा दमकने लगा और वह दुगुने उत्साह से गाड़ी को रगड़ कर चमकाने में लग गया। उस नन्हें बच्चे की जिजीविषा और उसकी उच्च स्वाभिमान की भावना के समक्ष अनुराधा को अपना दान भी अब बहुत बौना लग रहा था।

#आत्म्सम्मान 

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी धनबाद झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

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