सुबह सुबह ज्योति सोकर उठती है…तो सुनती है मां कुछ कह रही है… इस तरह से कब तक सोती रहेगी ससुराल में तेरी कैसे निभेगी। ज्योति उठते-उठते कहती है “ आपको तो हमेशा मेरी शादी की ही पड़ी रहती है। अभी मुझे पढ़ना है, कुछ बनना है तब जाकर मैं शादी करूंगी। ये सब सुनते ही ज्योति की मां आंख बबूला हो उठती है… और बोल पड़ती है “कब तक पढ़ेगी तू? …इतना पढ़ेगी तो क्या हम तेरे बराबर का लड़का ढूंढ पायेंगे, और इन लड़कों वालों की दहेज़ की मांग अलग से घर में दो-दो जवान बेटियां कैसे हो पायेगी इनकी शादियां”?
ये रोज़ की किच किच सुनकर ज्योति चली जाती हैं…गुसलखाने की तरफ नहाने। नहाकर आते ही वो मां को आवाज़ लगाती है…मां क्या मेरा लंच बॉक्स तैयार हो गया है? मुझे अभी निकलना है।
मां चिल्लाती हुई कहती हैं… “सबकुछ करके दो इन लड़कियों को अपना टिफिन तक नहीं लगा पाती है। पता नहीं अपना घर संसार कैसे चलायेगी… ये लड़की
ज्योति तैयार होकर रसोई घर की तरफ आती है और अपना लंचबॉक्स लेकर निकल जाती है…अपने ऑफिस की तरफ़। सुबह से शाम 6 बजे तक उसकी यही दिनचर्या थी। परंतु पढ़ाई से कभी नाता नहीं तोड़ा उसने। ऑफिस से आने के बाद जितना भी समय मिलता था, वो अपने पढ़ाई पर लगाती थी । थकती ज़रूर थी, मगर बी. ए की डिग्री जैसे- तैसे ले ही ली। कॉलेज न जाने का मलाल हमेशा बना ही रहा। उसके डिग्री तक की पढ़ाई कैसे की वो उसे ही पता था।
मां के रोजाना की घिट-पिट…करते रहने की वजह से एक दिन उसका रिश्ता तय ही हो गया। ज्योति की बहुत आशाएं बंधी हुई थी। अपने इस विवाह के साथ … और वह दिन आ ही गया जब ज्योति नव- विवाहिता बनकर बैंगलोर जैसे शहर में पहुंच गयी। उसके घर में सास- ससुर, देवर, ननद व ननद के बच्चे सभी होते हैं।
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वह खुश है क्योंकि जिस भरे पूरे घर को वह छोड़ कर आई थी, उसकी कमी इस घर यानी उसके ससुराल ने पूरी कर दी। हालांकि ज्योति के ससुर नामी-जामी व्यक्ति तो नहीं थे। परन्तु वे बैंगलोर में ही एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में बस ड्राइवर के रुप में कार्यरत थे। घर के सभी सदस्य विश्वविद्यालय के सरकारी क्वार्टर में ही रहते थे। ज्योति का देवर एम.बी.ए करके जॉब की तलाश में इधर-उधर भटक रहा होता है।
ज्योति के पति जो एक बैंक में काम करते है,वह हमेशा से ज्योति को घर के माहौल को समझाने में लगे रहते हैं। वह ज्योति को समझाते हुए कहते है“ देखो ज्योति, अब यही तुम्हारा घर है… इस घर को कैसे संभालना है ये सब तुम्हारी जिम्मेदारियां है”। ज्योति धीरे धीरे इस घर के माहौल तथा यहां की संस्कृति को समझने लगी थी। ज्योति की ननद जो बहुत ही चालाक और धूर्त किस्म की महिला होती है। अपने ससुराल तो नहीं जाती थी
परन्तु ज्योति को नीचा दिखाने के लिए तिकड़म बैठाती रहती थी। हमेशा उसके दिमाग़ में यही चलता रहता कि“ क्या करें उसके कामों में कमियां निकाल कर उसकी सभी के सामने बेइज्जती की जा सके”। ज्योति बेचारी जो कभी अपने मायके में कभी पूरे दिन का खाना तक नहीं बनाती थी। आज वह अपने ससुराल में आ कर सभी के लिए साउथ के व्यंजन वो भी चूल्हे पर बनाने लगी थी। उसकी सास व ननद जो चाहती थी। धीरे धीरे वो ज्योति को अपने जैसा बनाने में सफल होती जा रहीं थी।
ज्योति की ननद बाप रे…जैसा कहा जाता हैं न कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है। पूरी तरह से सटीक बैठता था ये व्यंग उस पर…। हर दिन चाहे सोमवार से लेकर शनिवार ही क्यों ना हो पर जैसे ही रविवार का दिन आता तो मानों ज्योति की ननद पर चुगलखोरी का भूत सवार हो जाता था।
वो…अपनी मां से ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते हुए कहती “ तू- तू ही गयी थी न…दिल्ली जैसे शहर में बहू खोजने शहर की बहू चाहिए थी तुझे … लेकर आई न अपनी पसन्द की बहू”। अब तू… ही भूगत इसे । बेचारी ज्योति जो दिनभर घर का काम करती रात होने पर इन…बेइंसानी लोगों से माफ़ी मांग कर इन्हें खाना भी खिलाती थी।
रात भर सोचती और रोती रहती कब उसको नींद आ जाती पता ही नहीं चलता था उसे। उसका पति ऐसा नहीं था कि उसके जज़्बातों को समझता नही था। परन्तु वह करता भी क्या? एक तरफ़ पत्नी तो दूसरी तरफ बहन और मां। वह ज्योति को ही कहता“…ज्योति तुम समझदार हो तुम को मैं समझा सकता हुं। इन लोगों को बोलनें का कोई फ़ायदा है ही नहीं”। ज्योति के लिए ये सब रोजमर्रा का काम बन गया। वह अब एक कान से सुनती और अपने कामों को निपटा कर कमरे में चली जाती। जो उसका अपना कमरा तक नहीं था। बल्कि सांझा था।
दूसरी तरफ…वहीं ज्योति की ननद व सास तथा आस पड़ोस की अन्य स्त्रियां आंगन में इक्कठा होकर अपनी अपनी बहुओं की बुराइयों में लगी रहती। ऐसी स्त्रियों की दुनियां कितनी सीमित होती हैं न, न कोई सपना न कोई इच्छा न कुछ करने का इरादा। क्योंकि इनको पता है कि “ किसी के पापा तो किसी के पति सरकारी नौकरी में हैं। कुछ काम करने की जरूरत ही क्या है? घमंड है इन्हें सरकारी नौकरी का। बस यही है इनकी दुनियां…।
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ज्योति के मन में हमेशा खलबली मची रहती थी कि कैसे इस दुनियां से बाहर निकला जाएं। कुछ बनाने था उसे कुछ करना चाहती थी। पर करा कैसे जाएं। कितने ही सपने थे उसके कितनी ही आशाएं बांधी थी उसने। मगर उम्मीद का साथ नहीं छोड़ा उसने। ऐसे ही बातों बातों में उसने अपने पति के सामने पढ़ने की इच्छा ज़ाहिर की।
शायद यहां से उसके सपनों को उड़ान मिलना था। एक तो वो विश्वविद्यालय के प्रसर में रहती थी… तो और समय भी अनुकूल था। उस समय पत्राचार से डिप्लोमा के फ़ॉर्म भी निकले हुए थे। उसने बहुत उत्साहित होकर अपने पति से कहा “ आप फॉर्म लेकर आएं। मैं ये फॉर्म भरना चाहूंगी और आगे पढ़ना चाहूंगी”। उसने सारी औपचारिकता को पूरा कर अपनी पढ़ाई शुरू कर दी”।
चाहें कितनी भी रूढ़ीवादी परम्परायें क्यों न हो। मन में यदि कुछ करने की आशा है, तो अनुकूल समय आने पर उसे किया जा सकता है। जैसे ज्योति ने किया अपनी आशा के साथ…और ज्योति के बाद उस घर में और बहुओं ने भी उसे देखकर पढ़ना शुरू किया।
@डॉ. उषा यादव