एक पत्र – डॉ उर्मिला सिन्हा : Moral stories in hindi

स्थान-गुलमोहर तले

  दोस्त,

 आज बरसों बाद मैं तुम्हें पत्र लिख रही हूं।

गृहस्थी के मकड़जाल में कुछ ऐसी उलझी कि दीन-दुनिया ही भुला बैठी। अपना तन-मन धन सर्वस्व न्यौछावर कर बैठी अपने संसार को सुखमय बनाने के लिए।मन के किसी कोने में तुम्हारी याद क्षणभर के लिए ही सही विद्युत तरंगों की भांति चमक जाती है कभी कभी। विशेषकर उस समय जब मैं अपने सुखी संसार में अपने आप को विश्व की सबसे भाग्यशाली स्त्री समझती हूं-या जिंदगी के ताने बाने को सुलझाने की असफल कोशिश में स्वयं उलझती चली जाती हूं।

 सोंचती हूं हम रेत का महल क्यों बनाना चाहते हैं क्यों किसी पर ऐसा निर्भर हो जाते हैं कि छोटी से छोटी निर्णय भी स्वयं नहीं ले पाते । क्यों मान बैठते हैं हम कि जो हम देख रहे हैं वहीं सत्य है । हमें कोई छल ही नहीं सकता।

 याद है एक बार युनिवर्सिटी की सीढ़ियां उतर रहे थे : मैं फिसल गई थी। बातों बातों में मेरे पांव कुछ ऊंचे-नीचे पड़ गये थे। तुमने मुझे थाम लिया था ..अपनी बलिष्ठ भुजाओं में। तुम्हारे सीने से लगी मैं तुम्हारे देहगंध से आलोड़ित हो उठी। गिरने के भय से या तुम्हारे सानिध्य से हृदय तेजी से धड़क उठा। मैं तुम्हारे बांहों में पता नहीं कितनी देर तक खड़ी रही। तुम बिल्कुल अभिभावकीय अंदाज में मेरा कंधा थपथपाते रहे। हालांकि हम-तुम समव्यवस्क ही थे फ़िर भी तुम्हारे चेहरे पर बुजुर्गियत का भाव था। मानों मैं कोई नन्ही बच्ची होऊं जिसे तुम आश्वस्त कर रहे हो।

युनिवर्सिटी कैम्पस के लड़के लड़कियों की उत्सुक निगाहें , होंठो का कोना दबाकर हंसती लड़कियां,फिकरे कसते लड़कों ने मेरा ध्यान भंग किया। मैं शर्म से छुई-मुई हो रही थी। परन्तु उस समय तुमने जिस परिपक्वता का परिचय दिया था उसे आज भी याद कर मैं आश्चर्यचकित हो जाती हूं।

आज तक हमारे तुम्हारे बीच मात्र मित्रता थी । अब उस दोस्ती का अर्थ बदलने लगा था। तुमने कभी पहल नहीं की थी लेकिन मैं लाज से दोहरी हो उठती जब तुम एकटक मेरी ओर देखते। बनने संवरने में मेरी रूचि बढ़ने लगी थी। अपने सौंदर्य के प्रति मैं ज्यादा सचेत हो उठी थी। विशेष पहिरावे जब मैं तुम्हारे सामने होती तो प्रशंसा के दो शब्द सुनने के लिए मेरे दो नहीं बल्कि हजार कान खड़े हो जाते।पर तुम…. एक उड़ती नजर मेरी ओर डाल उसी कीट्स वर्डसवर्थ की चर्चा करने लगते जो हमें पढ़ना होता था।राजनीति की चर्चा करते या कोई सामयिक विषय। मैं चिढ़ उठती। मेनका,उर्वसी को भी अपना मान भंग होना सहन नहीं था .. मैं तो हाड़ मांस की मामूली-सी लड़की थी। बातों में मैं तुम्हें इशारा भी करती मगर तुम पाषाण हृदय जानकर भी अनजान बने रहते।इसे मैंने चुनौती समझा और ज्योंहि पापा ने घर में मेरी शादी की चर्चा छेड़ी मैं हां कर बैठी। मुझे एक साथी की तलाश थी जो मेरे रंगीन सपनों का राजकुमार हो। पढ़ना मुझे बकवास लगता।हरदम मन रंगीन कल्पनाओं में खोया रहता। मैं इंद्रधनुषी स्वप्न जाल में खोई रहती। मैं ने हंसते हुए कहा,”मेरी शादी हो रही है।”

“क्या…?” तुम चौंक उठे थे। सदैव उत्साह से दमकता तुम्हारा मुखमंडल फीका पड़ गया था। तुम पहली बार घुटनों पर मेरे सामने झुके बैठे थे।

“यह मैं क्या सुन रहा हूं ?”

“ठीक सुन रहे हो…!”

मुझे तुम्हारा गिड़गिड़ाना भीतर तक शीतलता प्रदान कर रहा था।

“बच्चू मैं तुम्हारे प्रेम के आग मैं कैसी जली हूं तुम्हें क्या पता ?… तुमने प्रीत की अग्नि तो जला दी और किनारे बैठे मजा लेते रहे … अब तुम्हें पता चलेगा कि मैं भी क्या चीज हूं।”

” तुमने जल्दी बाजी की है । जरा सोंचो यह हमारा आखिरी साल है , इसके बाद कुछ बन जायें फिर विवाह की सोचेंगे ।हर चीज का एक समय होता है। तुम्हें मैं संसार की सारी खुशियां दूंगा पर अलाउद्दीन खां चिराग मेरे पास नहीं है, इसके लिए तुम्हें कुछ वर्ष ही सही इन्तजार तो करना ही पड़ेगा।सब्र का फल मीठा होता है। इस तरह मेरा दिल न तोड़ो …..”

  तुम अनवरत बोलते रहे, मेरी चिरौरी करते रहे । तुम्हें इश्क के इतने लफ्ज़ भी आते हैं ।मैं तो सोचती थी तुम्हारे सीने में दिल ही नहीं है मस्तिष्क में सिर्फ किताबी  बातें भरी हुई है__किन्तु तुम रूमानी भी हो यह आज पता चला ।पल भर के लिए मैं विचलित हो उठी।

आंसुओं से लवरेज तुम्हारी आंखों की कोमलता ने मुझे छू लिया। चाहे जो हो मैंने तुम्हें दिल से ‌चाहा था। इसमें कोई फरेब न था । मैं तुम्हें रोता नहीं देख सकती थी । युनिवर्सिटी कैम्पस का बड़ा सा मैदान और गुलमोहर का बड़ा सा पेड़। उसी गुलमोहर तले हम आखिरी बार मिले थे।

मेरे कोमल पड़ते ही तुमने मुझे हृदय से लगाकर चूम लिया था । आज भी अपने बायें गाल पर उसकी गर्मी मैं महसूस करतीं हूं। तुम मुझे हर तरह से आश्वस्त करने की कोशिश करते रहे ,”हम सेटल होते ही हम एक सूत्र में बंध जाएंगे “मैं अपने पापा को साफ इन्कार कर दूं और अपना समग्र ध्यान पढ़ाई लिखाई में लगाऊं । कैरियर बनाने के बाद ही गृहस्थी का सच्चा सुख उठाया जा सकता है।

   मुझपर पता नहीं कौन-सा भूत सवार था तुम्हारी सही सलाह मुझे बकवास लगने लगा। भविष्य की योजनाएं मुझे थोथी लगने लगीं। दर‌असल मुझे एक ऐसे साथी की चाहत थी जिसके संग संसार रूपी अम्बर में नि:शंक उड़ाने भर सकूं । चोंच में चोंच मिलाकर गुटरगू कर सकूं। इन्तजार करना मेरे वश की बात नहीं थी । पता नहीं इस प्रतियोगिता के युग में तुम कुछ खास बन भी पाओगे या नहीं ।सन्देह‌ रूपी नाग फुफकारने लगा।

मेरा कच्चा मन पुनः गिरगिट की तरह रंग बदलने लगा। एक तरफ तुम थे मेरे पहले प्यार और दुसरी तरफ शहर के प्रसिद्ध व्यवसायी का युवा हैंडसम पुत्र। आलीशान कोठी  दो-दो कारें क‌ई नौकर चाकर । इतना शानदार रिश्ता ,मौज ही मौज। मैं ने हां कर दी।

तुम्हारा दिल टूट गया। तुम शहर छोड़कर चले गए थे।न तुमने फिल्मी आशिकों की तरह जुदाई के गीत गाए न मुझे ब्लैक मेल करने की धमकी दी न आत्महत्या के लिए किसी ट्रेन के आगे कूदे न तो तलाब में छलांग लगाई।

संसार की सारी खुशियां मेरे कदमों तले थी आज लंदन तो कल पेरिस। दिल्ली मुंबई क्या चीज थी। श्रृंगार, कपड़ों का ढेर, कीमती आभूषणों का चमक-दमक, खूबसूरत बलिष्ठ बाहों का सहारा , मातहतों पर हुक्म और क्या चाहिए था ….!: समय बीतता गया । मैं प्यारे-प्यारे दो बच्चों की मां बनी।प्यार का नशा उतरने लगा ,मेरा रूप-रंग फीका पड़ने लगा। पति को अब मैं फूहड़, गंवार दीखने लगी हूं।उनका भ्रमर हृदय अपना रास्ता तलाशने लगा है। बेतहाशा पीते हैं और बात-बे-बात मुझे पीटकर अपनी खीझ निकालने का प्रयास करते हैं। पैसों के बल पर नित्य नवीन ऐय्याशी की सामग्री तलाशते हैं। बच्चे बड़े हो गए हैं।महंगे बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते हैं।मैं सिर्फ शो-पीस बनकर रह गई हूं।

    घर की मालकिन हूं पर गृहस्वामी पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं है। जिस धन-दौलत के चकाचौंध में डूबी हुई थी आज उसी की चमक में मेरा वजूद खो गया है। अपने आप को खोजने की स्थिति में पति से झगड़ा करती हूं , बच्चों पर हाथ उठा देती हूं । मातहतों पर बेतरह चिल्ला पड़ती हूं___तो सभी मुझे पागल साबित करने पर आमादा हैं।सप्ताह में दो-तीन दिन मनोचिकित्सक मेरी जांच करने आते हैं।मोटी फीस वसूलते हैं।जी करता है डॉक्टर का गला दबा दूं। एक दिन उसे मारने दौड़ी बेचारा डॉक्टर उल्टे पांव भागा “बचाओ, बचाओ”चिल्लाते हुए।

    मेरी एक न सुनी गई । मुझे धड़-पकड़ कर मानसिक आरोग्य शाला में भर्ती करा दिया गया है। मैं अनेक बार सोचने पर विवश भी —-कि आखिर मुझे किसने पागल बनाया “मेरे पति ने, समाज ने या मेरी रंगीन महत्त्वाकांक्षाओं ने , जिसने मुझे कहीं का भी नहीं रखा।”

काश ! मैंने तुम्हारी बात मान ली होती । धन-दौलत और प्यार को एक ही तराजू पर नहीं तौला होता, जिसके तीव्र आकर्षण को मैंने प्रेम समझा था वह मात्र भोतिक सुख-सुविधाओं को पाने की लालसा थी।

 इस पागलखाने के चारदीवारी में कैद आत्मचिंतन का सुनहरा मौका मिला है। युनिवर्सिटी कैम्पस की तरह यहां भी एक गुलमोहर का पेड़ फूलों से लदा हुआ है। उसी तले मैं तुम्हें यह पत्र लिख रही हूं।जिसकी छांव ने बरबस तुम्हारी याद दिला दी।

   दुनिया वालों के लिए यह पागल का प्रलाप सही पर मैं जानती हूं तुम मेरी व्यथा समझोगे।

   प्रथम प्रेम की मधुर यादगार को समर्पित है यह मेरा खत।

    एक आस्था और विश्वास के साथ —जो तुम्हारी हो न सकी …..!

  सर्वाधिकार सुरक्षित  मौलिक रचना–डॉ उर्मिला सिन्हा©®

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