एक बंधन ऐसा भी” – तृप्ति उप्रेती

 बात लगभग 25-30 वर्ष पहले की है। सुदूर सिक्किम के सीमावर्ती इलाके में भारतीय फौज की एक टुकड़ी तैनात थी। अक्सर ऐसे  दुर्गम इलाकों में फौजियों को दोहरे शत्रुओं से सजग रहना पड़ता है। एक तो पड़ोसी देश की तिर्यक दृष्टि और दूसरी हाड़ कंपा देने वाली ठंड। दूर दूर तक बिछी बर्फ की चादर और कहीं जिंदगी का नामोनिशान नहीं। बहरा कर देने वाला सन्नाटा फौजी जूतों की खड़क से यदा-कदा टूटता। चारों ओर एक वीरानी,खामोशी और अजीब सा सूनापन। ज्यादातर फौजियों की जिंदगी यूं ही बीतती है।ऐसी ही एक सर्द रात में एक पोस्ट पर पहरा दे रहे सिपाही दिनेश को उदास देखकर साथी अब्दुल ने पूछा,”क्या हुआ भाई, इतने खोए खोए से क्यों हो?” दिनेश बोला, “भाई, आज मेरी बिटिया का पहला जन्मदिन है। पूरे एक बरस की हो गई। कैसी दिखती होगी? अब तो चलने भी लगी है, पिछली चिट्ठी में पत्नी ने लिखा था। वह सात महीने की थी जब मैंने उसे देखा। अब तो बस अगले महीने का दिन गिन गिन कर इंतजार कर रहा हूं,जब छुट्टी जाऊंगा और बिटिया से मिलूंगा।

     दिनेश और उमा के ब्याह को तीन बरस हो गए थे। दिनेश साल में एक दो बार छुट्टी जाता और वो दिन परिवार के लिए त्योहार सरीखे होते। माता-पिता,पत्नी, बहन सबके चेहरों की रौनक ही कुछ और होती।

            इस बार छुट्टी का उत्साह दोगुना था। बहन का विवाह तय हो चुका था और दिनेश की छुट्टियों के अनुसार ही शुभ मुहूर्त निश्चित किया गया था। घर में खूब गहमागहमी थी। कुशल मंगल शुभ कार्य संपन्न हुआ। इस सब भाग दौड़ में दिनेश पत्नी और बिटिया के साथ बहुत कम समय बिता पाया। 



    वह कहते हैं ना कि अच्छा वक्त जल्दी गुजर जाता है। देखते ही देखते दिनेश के जाने का दिन भी करीब आ गया। मां और उमा सूखा नाश्ता तैयार कर रही थी जो कई महीनों तक खराब ना हो। मठरी,आटे के लड्डू,बेसन की सेंव इत्यादि। भरे मन से सारी तैयारियां की जा रही थी। मां चुपचाप पल्लू से आंखों के कोर पोंछ लेती। पिता भरे गले से बार-बार हिदायत देते,”सब सामान ध्यान से रखना। कुछ छूट न जाए।” पत्नी यूं तो मुस्कुराती ताकि पति के सामने कमजोर न पङे जबकि  उसका मन घबराता रहता।इन सबसे बेखबर गुड़िया पिता की गोद में खेलने में मगन थी।जाने से एक दिन पहले उमा ने दिनेश से कहा,” घर में अच्छी खेती-बाड़ी है,परिवार है। क्यों नहीं आप यहीं रह जाते। खाने लायक गुजर तो हो ही जाती है। ऐसा क्या है जो आपको इस नौकरी से बांधे हुए हैं, जहां ना घर का सुख है ना परिवार का साथ। 

     दिनेश मुस्कुराते हुए बोला, “तू एक फौजी की पत्नी हो कर ऐसी बातें कैसे कर सकती है।” इस पर उमा ने कहा, “एक फौजी की पत्नी होने के साथ-साथ एक स्त्री भी हूं, जिसका दिल हमेशा अपने प्रियतम की सलामती के लिए धड़कता रहता है।”

     “उमा मैं समझता हूं तेरे जज्बातों को,पर यह बहुत मजबूत बंधन है। यह बंधन है ‘आशा और विश्वास’ का। वह आशा जो देश के करोड़ों लोगों को हमसे है कि हम देश की सुरक्षा हर हाल में करेंगे। यह बंधन है विश्वास का जो हर देशवासी के मन में है कि हमारी सेना उनकी रक्षा में तत्पर है और इसी विश्वास के सहारे भारत का हर नागरिक चैन की नींद सो पाता है। कैसे तोड़ दूं इन बंधनों को? आशा और विश्वास के इस बंधन को अक्षुण्ण रखने के लिए मुझे यह मोह के बंधन तो तोड़ने ही पड़ेंगे। उमा, अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ते रहने के लिए मुझे सदा तुम्हारे साथ की जरूरत होगी।”

      फिर एक नई भोर उगी…. जब इस विलक्षण बंधन में बंधा एक फौजी मुस्कुराते हुए अपने परिवार को पीछे छोड़ अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ चला और यूं ही मुस्कुराते हुए उस साहसी परिवार ने भी उसे विदा किया,आंखों में झिलमिलाती उम्मीद के साथ कि वियोग का यह समय शीघ्र गुजर जाएगा और वह फिर वापस आएगा और तब तक इस परिवार का हर दिन उसकी कुशलता की प्रार्थना करते बीतेगा…….

#बंधन 

मौलिक,अप्रकाशित और स्वरचित….

तृप्ति उप्रेती

 

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