चूक –  मुकुन्द लाल

प्रोफेसर राजेश्वर को शाम में युनिवर्सिटी से लौटकर घर पहुंँचने के बाद उसकी पत्नी तापसी तुरंत चाय-नास्ता बनाने के लिए किचन में चली गई।

  प्रोफेसर साहब के बैठने के 

कुछ मिनटों के पश्चात ही उनका मोबाईल बजने लगा।

 ” हैलो!… कौन?… कहांँ से बोल रहे हैं आप?…”

  “प्रणाम सर!… आपने नहीं पहचाना!… मैं आपका शिष्य भुवनेश…”

  “ओह!… भुवनेश!… बहुत दिनों के बाद तुम्हारी आवाज सुनने को मिली… हाल-समाचार सब ठीक है न…”

  “हांँ सर!… आपकी दुआ से सब कुशल-मंगल है।… वास्तव में बहुत व्यस्त रहता हूँ सर!… डी. सी. के पद पर कार्यरत हूँ, मौका मिलते ही आपसे मिलने जरूर आऊंँगा सर, आज मैं जो कुछ हूँ आपकी मेहरबानियों की बदौलत ही हूँ सर! “

 ” ठीक है भुवनेश मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा… तरक्की करो, ऊंँचे से ऊंँचे ओहदे पर पहुंँचो,यही मेरी कामना है… “

   प्रोफेसर साहब के निवास में एक गरीब विद्यार्थी वर्षों से रह रहा था। उसके माता-पिता गांव के खेतों में काम करके अपना जीवन-यापन करते थे। उसका पुत्र भुवनेश पढ़ने में कुशाग्र बुद्धि का था। उसकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गांव के स्कूलों में ही हुई। उसके बापू की सोच अन्य खेतिहर मजदूरों से थोड़ा हटकर थी। विद्यालय के शिक्षकों के प्रति उसके दिल में बहुत सम्मान था जो उसके व्यवहार में साफ दिखलाई पड़ता था। यही कारण था उनका ध्यान विशेष रूप से उसकी प्रगति पर रहता था। वैसे भी मेधावी छात्र शिक्षकों के प्रिय होते ही हैं। 

  जब उसने प्रथम श्रेणी में अच्छे रैंक के साथ मैट्रिक पास किया तो पढ़ाने के नाम  पर उसके बापू ने यह कहते हुए अपने हाथ खड़े कर लिए कि उसके परिवार में दो बेटियाँ और एक छोटा पुत्र भी है, इस कुनबे को ही परवरिश करना उसके लिए पहाड़ मालूम पड़ता है। ऐसी परिस्थितियों में आगे की पढ़ाई-लिखाई करवाना उसके वश के बाहर की बात है। 




  उस विद्यालय के जतिन सर भुवनेश के बापू की मंशा से अवगत होने के बाद वे चिंतित हो गये। वे प्रगतिशील विचारधारा के पोषक थे। उनको अफसोस हो रहा था कि अगर इस गुदड़ी के लाल को सहारा और मार्गदर्शन नहीं मिला तो एक मेधावी की जिन्दगी निश्चित ही मटियामेट हो जाएगी। गांव का यह स्काॅलर कहांँ विलुप्त हो जाएगा, काल के चक्रव्यूह में कब गुम हो जाएगा कहना मुश्किल है। 

  जब वे भुवनेश के संबंध में सोच ही रहे थे कि अचानक उनका ध्यान पड़ोसी शहर के काॅलेज के उनके मित्र प्रोफेसर राजेश्वर पर चला गया। 

  उस दिन वह भुवनेश को  साथ लेकर शहर में  उनके निवास पर प्रोफेसर साहब से मिला। उन्होंने भुवनेश और उसकी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि की पूरी दास्तान सुना दी। उसकी पढ़ाई के रास्ते में आने वाली बाधाओं के संदर्भों में दोनों ने गंभीरता से विचार-विमर्श किया। 

  अंत में राजेश्वर बाबू ने निर्णय लेते हुए कहा कि उसके तीन छोटे बच्चे हैं और एक बड़ी बेटी है जो हाई स्कूल में पढ़ती है। वह तीनों बच्चों को सुबह-शाम पढ़ा दिया करेगा। उसको यहांँ रहने-खाने की व्यवस्था हो जाएगी। काॅलेज की फीस चुकाने और लाइब्रेरी से किताबों को उपलब्ध करवाने की जिम्मेवारी भी मेरी ही होगी। 

   इस तरह जतिन सर के भागीरथी प्रयास से भुवनेश की पढ़ाई शुरू हो गई। 




   काॅलेज जाने और बच्चों को पढ़ाने के बाद जो समय मिलता उसमें रात-दिन मन-चित लगाकर परिश्रम से पढ़ने लगा। 

  वह गैर जरूरी कार्यों के पीछे अपना वक्त नहीं गंवाता। उसे इस बात का ज्ञान था कि समय और सफलता में अन्योन्याश्रय संबंध है। 

  उसके परिश्रम ने रंग लाया। वह इंटर में भी अच्छे रैंक में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। 

   अच्छे रैंक के साथ प्रथम श्रेणी में स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद वह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में जी-जान से जुट गया। प्रोफेसर साहब भी उसे नैतिक रूप से  तो सहयोग कर ही रहे थे, अब समय-समय पर किताबों व अन्य सामग्रियों के लिए आर्थिक मदद भी करने लगे उसकी विद्वता देखकर। 

  स्नातक करने के बाद जब राजेश्वर बाबू के सामने उनका निवास छोड़कर अपने घर जाने की बातें की थी तो उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि कहांँ वह भटकेगा इधर-उधर यहीं शांतिपूर्वक रहकर अपनी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियाँ जारी रखो। मेरे बच्चे हाई स्कूल में पहुंँच गये हैं, उन्हें थोड़ा गाइड कर देना। बेटी छवि भी स्नातक में पहुंँच गई है, उसकी पढ़ाई पर भी ध्यान रखना। गांव में तुम्हारे जैसे स्काॅलर के लिए कोई भविष्य नहीं है। वहांँ जाकर क्या करोगे? सिवाय अपना जीवन बर्बाद करने के। अपने माता-पिता का हाल-समाचार जानने के लिए कभी-कभी गांव जा सकते हो। 

  वास्तव में राजेश्वर बाबू दूरदर्शी अभिभावक थे। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था कि भुवनेश की जरूर एक न एक दिन ऊंँचे ओहदे पर बहाली होगी। निश्चित रूप से वह गजटेड अफसर भविष्य में बनेगा ही, देर भले हो लेकिन अंधेर नहीं है। अभी वह संघर्षरत है लेकिन उसकी लगन और निष्ठा उसे उस मुकाम पर पहुंँचा देगा जो शायद विरलो को नसीब होता है। वर्तमान में भले ही वह गरीबी व मुफलिसी की जिन्दगी जी रहा है किन्तु कल उसके जीवन में समृद्धि का उजाला आना तय है। अगर छवि से उसकी शादी हो जाए तो उसका जीवन बहुत सुखमय होगा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए, वे अनेक प्रकार की सुविधाएं मुहैया करवाए हुए थे। भुवनेश बच्चों को पढ़ाई में गाइड तो कर ही रहा था, उसके अलावा वह उनके घरेलू कामों में भी प्रोफेसर साहब के मना करने के बाद भी बढ़-चढ़कर भाग लेता था। जरूरत पड़ने पर बाजार से चौका की सामग्री, साग-सब्जी… आदि भी ले आता था। कभी गमलों में लगे फूलों की देखरेख और उनकी सिंचाई भी कर देता था। ऐसे मौकों पर कार्य करने के दौरान बात-चीत के क्रम में छवि अक्सर उससे हंँसी-मजाक कर लेती थी, जिसको मौन रहकर वह सुन लेता था लेकिन दुख नहीं मानता था। 




  उस दिन जब भुवनेश बाजार गया हुआ था राजेश्वर बाबू ने अपनी लड़की की शादी भुवनेश से करने के बाबत अपनी पत्नी तापसी से बात चलाई तो एक बारगी वह भड़क उठी। उसने गुस्से में उबलते हुए कहा, 

” इस फकीर से अपनी बेटी की शादी करके अपनी नाक तो कटवाइयेगा ही, छवि की जिन्दगी भी बर्बाद करके रख दीजिएगा, इसीलिए ही इस भिखारी को अपने घर में शरण दिये हुए हैं? अब समझ में आया।… मेरी बेटी की जिन्दगी को चौपट करने का कोई हक नहीं है आपको। उसके साथ शादी की चर्चा आइन्दा कभी मुझसे नहीं कीजिएगा। ” कहते-कहते वह पैर पटकती हुई उनके सामने से उठकर चली गई थी। 

  इस तरह भुवनेश से छवि की शादी की बातें हमेशा के लिए टल गई थी। 

  बाद में वहांँ  के माहौल में कुछ बदलाव महसूस करने के बाद उसने उनका घर छोड़कर अपना ठिकाना अन्यत्र बना लिया था। 

  भविष्य में उसने संघ लोक सेवा आयोग(यू. पी. एस. सी.) की परीक्षा अच्छे रैंक में निकाल लिया। 

  उसे ऊंँचे ओहदे पर  उसकी सर्विस हो गई। 

                             बात-चीत के क्रम में राजेश्वर बाबू ने दबी जुबान से पूछा कि उसने शादी की है या नहीं तो उसने कहा था कि उसकी शादी निकट भविष्य में हो जाएगी, उसका विवाह मुंबई के एक बड़े उद्योगपति की लड़की से तय हो गई है। उसने आगे कहा कि वह स्वयं निमंत्रण-कार्ड आकर देगा और उनका चरणस्पर्श करके आशीर्वाद भी लेगा। इसके साथ ही मोबाइल का कनेक्शन कट गया था। 

  तापसी चाय और नास्ता लिए उनके सामने पहुंँचते ही पूछा था कि किसका फोन था तब उन्होंने कहा, ” भुवनेश का था, वह किसी जिला का डी. सी. बन गया है, माह दो माह के बाद ही उसकी शादी मुंबई में किसी बड़े उद्योगपति की बेटी से पक्की हो गई है।”  




   तापसी ने अपने मन में स्वतःकहा, “उससे चूक हो गई, उसने हाथ में आये हुए अवसर को खो दिया।”  

  दोनों पति-पत्नी के चेहरों पर उदासी छा गई थी। उनके सामने छवि की शादी की समस्या मुंँह बाये खड़ी थी। 

     #मासिक_कहानी_प्रतियोगिता 

          प्रथम कहानी 

      स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                  मुकुन्द लाल 

                 हजारीबाग(झारखंड) 

                   18-04-2023

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