भाई यह मकान नहीं हमारा ‘घर’ हैं – मनीषा गुप्ता  : hindi stories with moral

hindi stories with moral : रिया बहुत खुश थी दीपावली का त्योहार बहुत ही खुशी-खुशी निकल गया था आज भैया दोज थी।

रिया खुश थी कि वह अपने भाई को टीका लगाने गांव जाएगी। माता-पिता के जाने के बाद गांव जाना कम ही होता था । लेकिन जब भी जाती वह अपनी बचपन की यादों को टटोल आती ।

भाई का फोन आता है वह कुछ बोलती उससे पहले ही भाई ने कहा रिया तुम थोड़ा जल्दी आ जाना। मेरी नौकरी मुंबई में स्थाई हो गई है इसलिए अब हमको मुंबई शिफ्ट होना पड़ेगा। मुंबई में रहने के लिए नया फ्लैट खरीदना था इसलिए मैंने इस पुस्तैनी मकान को बेच दिया है। एक दो जगह तुम्हारे हस्ताक्षर की भी जरूरत है इसलिए आ जाना और दोनों काम कर जाना।

भाई के मुंह से यह सब बातें सुनकर उसे बहुत दुख हुआ रिया को लगा जैसे कोई उसका बचपन छीन रहा हो।

पर अनमने मन से वह अपने गांव पहुंची तो उसने देखा कि, पूरा घर खाली हो चुका था। घर का सभी फर्नीचर भाई ने आधी कीमत पर बेच दिया था, खाली मकान में उसे अपने माता-पिता की ओर भी अधिक याद आ रही थी। घर की किसी कोने में पड़ा सिलपट्टा देख उसकी आंखों में आंसू आ गये। जिस पर पीसकर बचपन में उनकी मां उनके लिए चटनी बनती थी, और वह अपने भाई  और पिता के साथ बैठकर बड़े ही चाव से खाती थी। शादी के बाद भी वह जब भी गांव आती थी तो मां के हाथ की चटनी जरूर खाती थी। तभी उसने बाहर भंगार वाले की आवाज को सुना तो वह बाहर आ गई भंगार वाला कह रहा था कि वह इस जर्जर कुर्सी का

 कोई मोल नहीं देगा। घर के आंगन में पड़ी पिता की कुर्सी जिस पर बैठकर वह हमेशा अखबार पढ़ते थे आज उस कुर्सी का कोई मोल न था।

भाई भाभी के टीका लगाने के बाद रिया ने कागजात पर हस्ताक्षर भी कर दिए थे, वह अपने भाई को कहना चाहती थी कि, भाई यह मकान नहीं हमारा ‘घर’  हैं इसमें हमारे माता-पिता की और हमारी बचपन की यादें हैं। इसे मत बेचिए। पर वह नहीं बोल पाई।

जाते समय जब भाई भैया दूज का उपहार देने लगा तो रिया ने कहा, भाई उपहार के रूप में मैंने मां का सिलपट्टा, पिता की जर्जर कुर्सी और हमारी बचपन की फोटो जिसे आप दीवार से उतरना भूल गए थे वह ले ली है। जो मेरे लिए अनमोल है और कोई उपहार मुझे नहीं चाहिए।

भारी मन से रिया यह कहते हुए घर से बाहर निकल गई। गाड़ी में बैठकर रिया डबडबाई आंखों से घर को जब तक देखती रही जब तक की वह आंखों से ओझल ना हो गया।

अब रिया उस सिलपट्टे पर पर अपने परिवार को बड़े ही चाव से चटनी पीसकर खिलाती थी और बच्चों को अपने बचपन के किस्से सुनाती थी। अपने परिवार की फोटो को उसने अपने घर की खूबसूरत दीवार पर लगा दिया था। और पिता की कुर्सी पर आंगन में बैठकर वह सुबह-शाम की चाय पीते हुए अपने मायके के ‘घर’ को अपने करीब महसूस करती थी।

 

अप्रकाशित रचना

‘घर’

मनीषा गुप्ता

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